ईरान का परमाणु संकट और मध्य-पूर्व का भविष्य

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 09-07-2025
Iran's nuclear crisis and the future of the Middle East
Iran's nuclear crisis and the future of the Middle East

 

अब्दुल्लाह मंसूर

हाल में अमेरिका और इज़रायल ने ईरान की परमाणु संवर्धन स्थलों—फोर्डो, नतान्ज़ और इस्फहान—पर सैन्य हमला किया.फारस की खाड़ी से दागे गए टॉमहॉक मिसाइलों और बी-2बमवर्षकों से गिराए गए बंकर-बस्टर बमों ने एक बार फिर दिखा दिया कि पश्चिमी दुनिया, विशेष रूप से अमेरिका और इज़रायल, अंतरराष्ट्रीय नियमों और किसी भी देश की संप्रभुता का खुलेआम उल्लंघन करने से पीछे नहीं हटती.यह हमला उस समय हुआ जब ईरान एक नए परमाणु समझौते के लिए बातचीत कर रहा था.

तनाव को कम करने की कोशिश में था.लेकिन इज़रायल ने, हमेशा की तरह, कूटनीतिक प्रयासों को दरकिनार करते हुए सैन्य बल का रास्ता चुना.ईरान-इज़रायल संघर्ष की ऐतिहासिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि क्या है, मुस्लिम दुनिया की भूमिका और सीमाएँ क्या हैं, और परमाणु हथियारों की इस दौड़ का क्षेत्रीय व वैश्विक संतुलन पर क्या असर पड़ सकता है?

साथ ही, हम यह भी विश्लेषण करेंगे कि ईरान की आंतरिक स्थिति—जैसे अभिव्यक्ति की आज़ादी, महिलाओं के अधिकार, आर्थिक समस्याएं और जनता की अपेक्षाएँ—कैसे उसकी बाहरी नीति को प्रभावित करती हैं?

इज़रायल की यह नीति कोई नई नहीं.दशकों से वह न केवल फिलिस्तीन में, पूरे क्षेत्र में मनमानी करता आया है.ग़ज़ा पट्टी में उसका हालिया हमला इस क्रूरता की पराकाष्ठा है.स्कूलों, अस्पतालों, मस्जिदों और रिहायशी इमारतों पर बम गिराकर इज़रायल ने हज़ारों निर्दोष फिलिस्तीनियों को मौत के घाट उतार दिया.

यह कोई ‘सुरक्षा अभियान’ नहीं, खुलेआम नरसंहार है, जिसे अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी मान्यता दी है.अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) ने 2024में इज़रायल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों को युद्ध अपराध और मानवाधिकार उल्लंघन का दोषी ठहराया है.बावजूद इसके, अमेरिका ने न सिर्फ इस फैसले की आलोचना की बल्कि ICC के खिलाफ दबाव बनाने की कोशिश की, जो उसकी दोहरी नीति को उजागर करता है.

इज़रायल की इस आक्रामकता के जवाब में जब ईरान अपनी सुरक्षा और क्षेत्रीय प्रभाव बनाए रखने की कोशिश करता है, तो उसे “खतरा” कहकर चिन्हित किया जाता है.यही दोहरा मापदंड है जिससे न सिर्फ वैश्विक दक्षिण के देश असहज हैं, बल्कि पश्चिमी देशों की नैतिक विश्वसनीयता भी सवालों के घेरे में है.जब एक देश—ईरान—संयुक्त राष्ट्र और IAEA के दायरे में रहकर शांतिपूर्ण परमाणु तकनीक प्राप्त करना चाहता है, तब उस पर संदेह, प्रतिबंध और हमला होता है.दूसरी ओर, इज़रायल परमाणु हथियार संपन्न देश है.किसी संधि का हिस्सा नहीं है.फिर भी उसे कोई सज़ा नहीं मिलती.

ईरान में 1979 की इस्लामी क्रांति ने एक नई व्यवस्था की नींव रखी थी—जहाँ आज़ादी, समानता और इस्लामी मूल्य जनता के केंद्र में थे.यह क्रांति शाह की अमेरिका-समर्थित सत्ता के खिलाफ थी.जनता को यह उम्मीद थी कि अब उन्हें न्याय मिलेगा. सम्मान मिलेगा.

समय के साथ यह लोकतांत्रिक सपना एक धार्मिक केंद्रीकृत तंत्र में तब्दील हो गया.सर्वोच्च नेता के पास सभी निर्णयों की शक्ति केंद्रित हो गई, और राष्ट्रपति व संसद के अधिकार सीमित रह गए.‘विलायत-ए-फक़ीह’ की प्रणाली ने जनता की भागीदारी को नाममात्र बना दिया.

ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्ला खुमैनी ने सत्ता संभालते ही ईरान ने इज़रायल के साथ सभी संबंध तोड़ दिए.उसे "इस्लाम का दुश्मन" घोषित किया.ईरान ने फिलिस्तीनी संगठनों जैसे हमास और हिज़्बुल्ला का समर्थन शुरू किया, जो इज़रायल के खिलाफ हैं.ईरान की राजनीति में इज़रायल लंबे समय से एक प्रमुख दुश्मन के रूप में देखा जाता है.

यह दुश्मनी सिर्फ धार्मिक कारणों से नहीं है, बल्कि इसके पीछे राजनीतिक फायदे भी हैं जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.मुस्लिम एकता और फिलिस्तीनियों के प्रति सहानुभूति के चलते ईरान इज़रायल की मौजूदगी को इस्लामी भूमि पर एक अवैध शासन मानता है.लेकिन यह विरोध केवल भावनात्मक नहीं है, बल्कि इसके कई व्यावहारिक फायदे भी हैं.

पहला फायदा यह है कि इज़रायल के खिलाफ तेवर दिखाकर ईरान अरब दुनिया में अपनी छवि सुधारने की कोशिश करता है.चूंकि ईरान एक शिया और फारसी देश है और अरब क्षेत्र मुख्यतः सुन्नी और अरबी है, इसलिए उसके लिए वहाँ प्रभाव बनाना कठिन होता.लेकिन जब वह इज़रायल के खिलाफ खड़ा होता है, तो उसे आम अरब जनता का समर्थन मिलता है, और वह खुद को फिलिस्तीनियों के पक्ष में खड़ा सबसे मजबूत नेता बताने में सफल होता है.

दूसरा पहलू यह है कि ईरान का इज़रायल-विरोध, उसकी क्रांति के बाद पुराने शाह शासन से अलगाव का प्रतीक बन गया.शाह ने इज़रायल से दोस्ती की थी और पश्चिमी दुनिया की ओर झुकाव दिखाया था, लेकिन क्रांति के बाद नया शासन इसे अस्वीकार करके अपनी "इस्लामी पहचान" को मज़बूत करने की कोशिश करता है.इस तरह इज़रायल विरोध नए और पुराने शासन के बीच की खाई को दर्शाता है.

तीसरा फायदा यह है कि इज़रायल जैसा शक्तिशाली लेकिन दूर का दुश्मन, जनता को सरकार के साथ एकजुट करता है.इस युद्ध में ईरानी नेतृत्व ने यह दिखाया कि वह इज़रायल जितना ही ताकतवर है, जिससे उसका सम्मान बढ़ता है.चूंकि ईरान की सेना उतनी मजबूत नहीं जितनी इज़रायल की है, इसलिए युद्ध प्रत्यक्ष न होकर, हिज़बुल्लाह जैसे संगठनों के माध्यम से आगे लड़ा जाएगा.

ईरान शिया बहुल देश है और वह अपने सांस्कृतिक, धार्मिक और वैचारिक प्रभाव को क्षेत्र में फैलाने के लिए प्रतिबद्ध रहा है.चाहे वह इराक़ में शिया मिलिशियाओं का समर्थन हो, यमन में हूती विद्रोहियों की मददया सीरिया में असद सरकार के पीछे खड़ा होना—ईरान ने अपने प्रभाव क्षेत्र को मज़बूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

इससे सुन्नी देशों के साथ उसके रिश्ते कई बार तनावपूर्ण हो जाते हैं.यह क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को बिगाड़ता है.शिया-सुन्नी संघर्ष को और गहरा करता है.हालांकि यह संघर्ष सदियों पुराना है, लेकिन आधुनिक राजनीति में इसे और अधिक हवा दी गई है.अगर ईरान परमाणु हथियार बनाता है, तो इससे पूरे मध्य-पूर्व में परमाणु हथियारों की दौड़ शुरू हो सकती है.

सऊदी अरब, तुर्की और मिस्र जैसे सुन्नी बहुल देश ईरान की बढ़ती ताक़त को संतुलित करने के लिए खुद भी परमाणु शक्ति बनने की ओर बढ़ सकते हैं.सऊदी अरब पहले ही संकेत दे चुका है कि वह ईरान की बराबरी करेगाऔर उसके पास पाकिस्तान जैसे देश से तकनीकी मदद लेने की क्षमता है.

तुर्की और मिस्र भी इसी राह पर चल सकते हैं.इससे न केवल क्षेत्र में तनाव बढ़ेगा, बल्कि परमाणु अप्रसार की वैश्विक कोशिशें भी कमजोर होंगी.साथ ही, इस दौड़ में रेडियोधर्मी सामग्री के आतंकवादी समूहों के हाथ लगने का खतरा भी गंभीर रूप से बढ़ सकता है.

ईरान की सबसे बड़ी चुनौतियाँ अब उसकी आंतरिक संरचना से जुड़ी हैं.अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कठोर पाबंदियाँ हैं.पत्रकारों को गिरफ़्तार किया जाता है, और सोशल मीडिया पर सरकार की आलोचना करना भी खतरनाक हो गया है.

इंटरनेट पर सेंसरशिप इतनी कड़ी है कि ईरानी जनता का बाहरी दुनिया से संपर्क लगभग अवरुद्ध हो चुका है.महिलाओं की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है.महसा अमीनी की मौत के बाद जो व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए, वे इस बात का प्रमाण हैं कि जनता विशेषकर युवा, अब बदलाव चाहती है.

ईरानी अर्थव्यवस्था भी गंभीर संकट में है.एक ओर वह तेल और गैस जैसी संपदा से समृद्ध है,. दूसरी ओर भ्रष्टाचार, अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों और सरकारी नियंत्रण ने आम नागरिकों की ज़िंदगी को दिन-ब-दिन कठिन बना दिया है.बेरोज़गारी, महंगाई और मुद्रा अवमूल्यन आम बात हो गई है.दवाओं की कमी, खाद्य पदार्थों की कीमतें, और जीवन की बुनियादी जरूरतों तक सीमित पहुंच—यह सब एक गहराते मानवीय संकट की ओर इशारा करता है.

ईरान बार-बार यह स्पष्ट करता रहा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण है और वह अंतरराष्ट्रीय नियमों का पालन करता है.लेकिन इसके बावजूद अमेरिका और इज़रायल उस पर एकतरफा हमले करते हैं, साइबर हमलों से लेकर वैज्ञानिकों की हत्याओं तक, और अब खुले युद्ध तक बात पहुंच गई है.यह दुनिया के लिए एक खतरनाक उदाहरण है—एक ऐसा उदाहरण जो यह बताता है कि अगर आप पश्चिम की नीति से सहमत नहीं हैं, तो आपकी संप्रभुता कोई मायने नहीं रखती.

इसके बावजूद, यह भी सही है कि किसी भी राष्ट्र की असली ताक़त उसकी जनता होती है.और जब तक उस जनता को शिक्षा, स्वास्थ्य, नागरिक अधिकार, और बराबरी का अवसर नहीं मिलेगा, तब तक कोई भी सरकार स्थायी नहीं रह सकती.ईरान को अब आत्ममंथन करने की आवश्यकता है.उसे यह समझना होगा कि सम्मान केवल मिसाइलों और यूरेनियम से नहीं आता, बल्कि नागरिक स्वतंत्रता, न्यायप्रियता और समावेशी विकास से आता है.

वर्तमान में मुस्लिम दुनिया के कई देश व्यावहारिक राजनीतिक ज़रूरतों को तरजीह दे रहे हैं.सऊदी अरब अमेरिका से अपने संबंधों को प्राथमिकता देता है, तुर्की अपने भू-राजनीतिक हितों के तहत रूस और नाटो दोनों से संपर्क में हैऔर पाकिस्तान भी अपनी सुरक्षा और आर्थिक समस्याओं में उलझा हुआ है.

उम्मत की भावना एक आदर्श हो सकती है, लेकिन व्यवहार में हर देश अपनी सीमाओं और नीतियों के भीतर काम करता है.ईरान को इस हकीकत को समझते हुए एक ऐसे रास्ते पर चलना चाहिए जो उसे आत्मनिर्भरता के साथ-साथ जनतांत्रिक अधिकारों की दिशा में भी ले जाए.

अगर ईरान अपने नागरिकों की भलाई को सर्वोपरि रखे, तो उसकी नीति न केवल घरेलू स्तर पर बल्कि वैश्विक मंच पर भी सराही जाएगी.वह खुद को एक धार्मिक राष्ट्र होने के साथ-साथ एक लोकतांत्रिक और मानवीय देश के रूप में स्थापित कर सकता है.

यह उसकी ताक़त को कम नहीं, बल्कि और मजबूत बनाएगा.हथियारों की दौड़, क्षेत्रीय कट्टरता और दमन की नीति से हटकर, अगर वह मानवाधिकार, शिक्षा और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देता है, तो इससे पूरे मध्य-पूर्व को एक नई दिशा मिल सकती है.

आज ईरान जिस चौराहे पर खड़ा है, वहाँ उसे तय करना है कि वह आगे क्या रास्ता अपनाएगा.क्या वह अमेरिका और इज़रायल की उकसावटी राजनीति के जवाब में केवल सैन्य तैयारी करेगा, या फिर वह अपनी जनता के साथ एक नया सामाजिक अनुबंध रचेगा? क्या वह खुद को केवल एक दुश्मन राष्ट्र के रूप में परिभाषित करता रहेगा, या फिर वह खुद को एक आत्मनिर्भर, शांतिप्रिय और न्यायपूर्ण समाज के रूप में दुनिया के सामने प्रस्तुत करेगा?

जापान इसका सबसे बेहतर उदाहरण है.द्वितीय विश्व युद्ध में परमाणु हमले झेलने के बाद भी उसने सैन्यवाद को नहीं अपनाया, बल्कि लोकतंत्र, विज्ञान और महिलाओं की भागीदारी को प्राथमिकता दी.आज वह दुनिया की सबसे उन्नत और शांतिपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं में गिना जाता है.ईरान भी अगर इसी राह को अपनाए, तो वह केवल अपने नागरिकों को राहत ही नहीं देगा, बल्कि क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिरता में एक सकारात्मक भूमिका निभा सकेगा.

यह सिर्फ ईरान का ही नहीं, बल्कि पूरे क्षेत्र और वैश्विक राजनीति का प्रश्न है.अगर वह शांति, समानता और विकास का रास्ता अपनाता है, तो वह न केवल इतिहास में एक सकारात्मक उदाहरण बन सकता है, बल्कि वह इस्लामी दुनिया में नए विमर्श की शुरुआत भी कर सकता है—एक ऐसा विमर्श जहाँ आत्मसम्मान का अर्थ बंदूक नहीं, बल्कि जनता का कल्याण हो.

( लेखक पसमांदा चिंतक हैं )