मुस्लिम समाज में जातिगत जनगणना की ज़रूरत और भाजपा की भूमिका

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 12-06-2025
The need for caste census in Muslim society and the role of BJP
The need for caste census in Muslim society and the role of BJP

 

~ अब्दुल्लाह मंसूर

भारत एक विविधताओं से भरा देश है, जिसमें धर्म, भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज और सामाजिक संरचनाएँ अनेक रूपों में देखने को मिलती हैं. इन्हीं विविधताओं में एक सबसे गहरी और जटिल संरचना है – जाति व्यवस्था. अक्सर जब भारत में जाति की बात होती है, तो चर्चा हिंदू समाज तक सीमित रह जाती है. लेकिन सच्चाई यह है कि जाति व्यवस्था का प्रभाव भारतीय मुस्लिम समाज पर भी उतना ही गहरा है, जितना किसी अन्य समुदाय पर. इस्लाम का मूल संदेश बराबरी, भाईचारा और इंसाफ़ का है,

लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में इस्लाम अपनाने के बावजूद जातिगत भेदभाव पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया. यह भेदभाव, भले ही धार्मिक किताबों में न हो, लेकिन व्यवहारिक जीवन में आज भी मुस्लिम समाज के हर हिस्से में मौजूद है.

भारतीय मुस्लिम समाज की जातिगत बनावट

भारतीय मुस्लिम समाज को मोटे तौर पर तीन वर्गों में बाँटा गया है – अशराफ, अजलाफ और अरजाल.
⦁    अशराफ वे माने जाते हैं, जो खुद को अरब, ईरानी, तुर्क या पठान मूल का बताते हैं. इनमें सैयद, शेख, पठान, मिर्ज़ा जैसी जातियाँ आती हैं, जिन्हें ‘ऊँची जातियाँ’ माना जाता है.
⦁    अजलाफ वे जातियाँ हैं, जिन्होंने भारत में इस्लाम अपनाया और जो मूलतः अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) से आईं—जैसे जुलाहा, कुंजड़ा, गद्दी, मंसूरी, कसाई आदि.
⦁    अरजाल वे समुदाय हैं, जो दलित या अति पिछड़ी जातियों से आए—जैसे नाई, धोबी, भंगी, हलालखोर आदि.

यह वर्गीकरण केवल नाम का नहीं है, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन के हर क्षेत्र में इसकी गूंज सुनाई देती है. इस्लाम में जाति का कोई स्थान नहीं है, लेकिन भारतीय समाज की जड़ों में मौजूद जातिवाद ने मुस्लिम समाज को भी अपने शिकंजे में ले लिया है.

मस्जिदों, मदरसों, वक्फ बोर्डों, धार्मिक संगठनों, यहां तक कि कब्रिस्तानों में भी जाति के आधार पर भेदभाव है. पसमांदा मुसलमानों को अक्सर धार्मिक और सामाजिक नेतृत्व से दूर रखा जाता है, और उनके साथ व्यवहार में भेदभाव किया जाता है.

जातिगत भेदभाव का असर केवल पहचान तक सीमित नहीं. अशराफ वर्ग ने लंबे समय तक मस्जिदों, मदरसों, वक्फ बोर्डों, राजनीतिक पार्टियों और सामाजिक मंचों पर नियंत्रण बनाए रखा है.

वहीं, पसमांदा वर्ग – जिसमें पिछड़ी और दलित जातियाँ आती हैं – लगातार हाशिए पर बना हुआ है. इस्लामिक शिक्षण संस्थानों, दरगाहों और मस्जिदों में पसमांदा इमामों और शिक्षकों को शायद ही कोई अहम स्थान दिया जाता है. कई जगहों पर तो दलित मुसलमानों को कब्रिस्तान में दफनाने तक से रोका जाता है. यह सब सामाजिक न्याय की भावना के विरुद्ध है और मुस्लिम समाज के भीतर गहरे जख्म छोड़ता है.

2023 में बिहार सरकार द्वारा कराई गई जाति आधारित जनगणना ने पहली बार मुस्लिम समाज के भीतर मौजूद जातिगत विविधता और असमानता को सरकारी दस्तावेजों में दर्ज किया. इस रिपोर्ट के अनुसार, राज्य की कुल जनसंख्या का 17.7% हिस्सा मुस्लिम समुदाय का है. इस जनसंख्या को तीन मुख्य वर्गों में बांटा गया – फॉरवर्ड मुसलमान (अशराफ), पिछड़ा वर्ग (BC), और अति पिछड़ा वर्ग (EBC).
⦁    फॉरवर्ड मुसलमान (अशराफ): 4.80%
⦁    पिछड़ा वर्ग (BC): 2.03%
⦁    अति पिछड़ा वर्ग (EBC): 10.58%

इन आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि मुस्लिम समाज में भी वही सामाजिक असमानता मौजूद है, जो भारतीय समाज के अन्य हिस्सों में है. सबसे बड़ी बात यह सामने आई कि पसमांदा (OBC, EBC, SC, ST) मुसलमानों की संख्या 85% से अधिक है, जबकि अशराफ वर्ग केवल 15% है. यह आँकड़ा सामाजिक न्याय के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. इससे पता चलता है कि मुस्लिम समाज के भीतर भी एक बड़ा तबका हाशिए पर है.

फॉरवर्ड मुसलमान (Forward Muslims) – 4.8044%: सैयद – 0.2279%, शेख – 3.8217%, पठान (खान) – 0.7548%.
पिछड़ा वर्ग (Backward Class – BC) मुसलमान – 2.0321%: मादरिया – 0.0663%, नलबंद – 0.0091%, सुरजापुरी मुसलमान (सिर्फ वे जो शेख, सैयद, मलिक, मंगोल और पठान नहीं हैं) – 1.8713%, मलिक – 0.0854%.

अति पिछड़ा वर्ग (Extremely Backward Class – EBC) मुसलमान – 10.5843%: चीक – 0.0386%, क़साब (कसाई) – 0.1024%, डफाली – 0.056%, धुनिया – 1.4291%, नट – 0.0471%, पमारिया – 0.0496%, भटियारा – 0.0209%, भाट – 0.0681%, मेहतर, लालबेगिया, हलालखोर, भंगी – 0.0535%, मिरियासिन – 0.0118%, मदारी – 0.0089%, मीरशिकार – 0.051%, साईं/फकीर/दीवान/मदार – 0.5073%, मोमिन/जुलाहा/अंसारी – 3.545%, चूड़िहार – 0.159%, राईन/कुंजड़ा – 1.3988%, ठाकुराई – 0.1128%, शेरशाहबादी – 0.9965%, बखो – 0.0282%, इदरीसी/दर्जी – 0.2522%, सैकलगढ़/सिकलीगर – 0.0145%, रंगरेज – 0.0332%, मुकेरी – 0.0432%, ईट फरोश/गधेरी/ईंतपाज इब्राहीमी – 0.0072%, कुलहैया – 0.9591%, जाट – 0.0344%, धोबी – 0.0334%, सेखड़ा – 0.3135%, गद्दी – 0.1904%, लालबेगी – 0.0021%, हलालखोर – 0.0058%..

सबसे पहले बात करें फॉरवर्ड मुसलमानों (Ashraf) की, तो इनकी आबादी कुल मुस्लिम जनसंख्या की 27.58% है. इसमें मुख्य रूप से तीन जातियाँ शामिल हैं – शेख (21.94%), पठान या खान (4.25%), और सैयद (1.29%). ये जातियाँ परंपरागत रूप से उच्च मानी जाती हैं और ऐतिहासिक रूप से सामाजिक, धार्मिक और शैक्षणिक प्रभुत्व रखती रही हैं.

पसमांदा जातियों में अशरफीकरण की प्रवृत्ति देखी गई है, अर्थात् उन्होंने अपने नाम के आगे अशरफ जातियों (जैसे शेख) के नाम जोड़ लिए हैं. यह प्रक्रिया केवल मुस्लिम समाज तक सीमित नहीं है, बल्कि हिंदू समाज में भी इसी तरह का संस्कृतिकरण देखने को मिलता है.

उदाहरण के लिए, बिहार में शेखों की संख्या जाति जनगणना में अपेक्षाकृत अधिक दर्ज हुई है, जिसका मुख्य कारण यह है कि कई पसमांदा जातियों के लोगों ने अपने नाम के आगे 'शेख' जोड़ लिया है.

इससे जनगणना के आंकड़ों में अंतर आया है. यह स्थिति पसमांदा आंदोलन के लिए एक चुनौती है, क्योंकि इससे वास्तविक पसमांदा जातियों की संख्या कम दिखती है. अतः आवश्यकता है कि एक जागरूकता अभियान चलाया जाए, जिससे अधिक से अधिक लोग अपनी मूल जाति के नाम के साथ ही जनगणना में शामिल हों, ताकि सही आंकड़े सामने आ सकें और सामाजिक न्याय के प्रयासों को मजबूती मिल सके.

इसके बाद आते हैं पिछड़ा वर्ग (Backward Class – BC) मुसलमान, जिनकी कुल आबादी मुस्लिम समुदाय में 11.67% है. इस वर्ग में चार प्रमुख समूह शामिल हैं – सुरजापुरी मुसलमान (10.75%), मलिक (0.49%), मादरिया (0.38%), और नलबंद (0.05%)। ये वे जातियाँ हैं जो फॉरवर्ड वर्ग से नीचे हैं लेकिन अति पिछड़े वर्ग में भी नहीं आतीं.

अब बात करें अति पिछड़े वर्ग (Extremely Backward Class – EBC) मुसलमानों की, जो इस समुदाय का सबसे बड़ा हिस्सा हैं. इनकी कुल आबादी 60.75% है. इस वर्ग में 30 से अधिक जातियाँ आती हैं.

जिनमें प्रमुख हैं – अंसारी या जुलाहा या मोमिन (20.35%), धुनिया (8.21%), राईन/कुंजड़ा (8.03%), शेरशाहबादी (5.72%), इदरीसी/दर्जी (1.45%), सेखड़ा (1.80%), कुलहैया (5.50%), और साईं/फकीर/दीवान/मदार (2.91%)। इसके अतिरिक्त कई अन्य जातियाँ 1% से कम हिस्सेदारी के साथ हैं जैसे कसाब, नट, भाट, ठाकुराई, धोबी, रंगरेज, गद्दी आदि.

 इस जातिगत विवरण से स्पष्ट होता है कि बिहार के मुस्लिम समाज में सामाजिक असमानता गहराई से विद्यमान है. अगर हम केवल 1% से अधिक आबादी वाली जातियों की बात करें, तो ऐसी 6 जातियाँ हैं – शेख (21.94%), अंसारी (20.35%), सुरजापुरी (10.75%), धुनिया (8.21%), राईन/कुंजड़ा (8.03%), और शेरशाहबादी (5.72%). इनमें से सिर्फ शेख जाति को ही अशरफ कहा जाता है, जबकि बाकी सभी पसमांदा (EBC या BC) श्रेणी में आती हैं.

भा.ज.पा. सरकार ने पहली बार मुस्लिम समाज के भीतर की जातियों को गिनने का ऐतिहासिक फैसला लिया है. इससे पहले हर जनगणना में मुसलमानों को एक ही धार्मिक ब्लॉक मानकर गिना जाता था, जिससे पसमांदा मुसलमानों की असली हालत छुपी रहती थी.

अब भाजपा सरकार ने स्पष्ट किया है कि आगामी जनगणना में मुसलमानों की जाति भी दर्ज की जाएगी, और पसमांदा मुसलमानों को ओबीसी श्रेणी में गिना जाएगा. इससे पसमांदा मुसलमानों को उनका हक और प्रतिनिधित्व मिलेगा और उनके सामाजिक-आर्थिक हालात पर ठोस आंकड़े सामने आएंगे.

इससे पसमांदा मुसलमानों को उनका हक और प्रतिनिधित्व मिलेगा, और उनके सामाजिक-आर्थिक हालात पर ठोस आंकड़े सामने आएंगे।जातिगत जनगणना से यह पता चलेगा कि मुस्लिम समाज के कौन-कौन से वर्ग वाकई ज़्यादा वंचित हैं, किसको शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और राजनैतिक भागीदारी में पीछे रखा गया है.

यह आंकड़े नीतियों और योजनाओं को ज़मीनी हकीकत से जोड़ने में मदद करेंगे। यह भी स्पष्ट होगा कि मुस्लिम समाज एक समरूप इकाई नहीं है, बल्कि इसमें भी वर्गीय और जातीय विभाजन हैं जो विशेष रूप से सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन की वजह बनते हैं.

पसमांदा आंदोलन इसी दिशा में एक आवाज़ है जो मुस्लिम समाज के भीतर के जातिगत भेदभाव को सामने लाता है. इस आंदोलन ने यह स्थापित किया है कि जब तक पसमांदा जातियों को उनकी पहचान, प्रतिनिधित्व और अधिकार नहीं मिलते, तब तक इस्लामी बराबरी और लोकतांत्रिक समानता सिर्फ़ भाषणों तक सीमित रह जाएगी.

पसमांदा डेमोक्रेसी द्वारा किए गए साक्षात्कारों में बार-बार यह सामने आता है कि मुस्लिम समाज में ‘रोटी-बेटी’ के रिश्तों में जातिगत सीमाएँ मौजूद हैं. धर्म के नाम पर बराबरी का दावा करने वाले कई संगठन और धार्मिक नेता व्यवहार में जातीय श्रेष्ठता को बनाए रखने का काम कर रहे हैं.

जातिगत जनगणना की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि जो वर्ग अब तक सत्ता और संसाधनों पर काबिज़ रहे हैं, वे नहीं चाहते कि हक़ और हिस्सेदारी की सच्ची तस्वीर सामने आए.

जनगणना से अगर यह उजागर हो गया कि आबादी में कौन कितनी संख्या में है और कौन कितना पीछे है, तो सत्ता का संतुलन बदल सकता है. यही डर इस प्रक्रिया को बार-बार टालने की वजह बनता है. 

यह विरोधाभास तब और गहरा हो जाता है जब उन नेताओं और संगठनों को देखा जाए जो सार्वजनिक मंचों से इस्लाम में जात-पात को नकारते हैं, लेकिन जिनकी संस्थाएँ और पद संरचनाएँ पूरी तरह से अशराफ वर्चस्व पर टिकी होती हैं.

मदरसों के प्रमुख, मस्जिदों के इमाम, वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य अक्सर ऊँची जातियों से आते हैं. यह न केवल सामाजिक न्याय का अपमान है, बल्कि इस्लाम की मूल भावना—'अत्कराकुम इंदल्लाहि अत्काकुम' (अल्लाह के नज़दीक वही सबसे बेहतर है जो सबसे ज़्यादा परहेज़गार है)—की भी अवहेलना है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार सार्वजनिक मंचों से पसमांदा मुसलमानों की चर्चा की है और इस वर्ग के साथ ऐतिहासिक अन्याय की बात स्वीकार की है.भोपाल में बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं से बात करते हुए, उन्होंने अपने ही धर्म के भीतर मुसलमानों के एक वर्ग द्वारा झेले गए ऐतिहासिक उत्पीड़न को स्वीकार किया, इस मुद्दे पर चर्चा की आवश्यकता पर बल दिया.

राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठकों के दौरान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने धर्म के भीतर ऐतिहासिक उत्पीड़न को संबोधित करते हैं, पसमांदा समुदायों द्वारा सामना किए जाने वाले भेदभाव पर चर्चा की आवश्यकता पर बल देते हैं.

प्रधानमंत्री मोदी ने मोची, भठियारा, जोगी, मदारी, जुलाहा, लोहार, तेजा, लाहेरी, हलदर जैसे विभिन्न पसमांदा समुदायों के खिलाफ भेदभाव को उजागर करते हुए कहा कि इन समुदायों ने अन्यायपूर्ण पूर्वाग्रहों का सामना किया है जिसे पीढ़ियों ने सहन किया है.

मोदी जी का यह सिर्फ़ एक राजनीतिक पैंतरा नहीं था, बल्कि उस चुप्पी को तोड़ने का संकेत था जो मुस्लिम समाज के भीतर की जातिगत असमानता को ढकती रही है.. यह बयान उन लाखों मुसलमानों को संबोधित था जो खुद को मुसलमान तो मानते हैं, लेकिन जिन्हें कभी बराबरी का दर्जा नहीं मिला.

भाजपा ने न केवल अपने संगठनात्मक ढांचे में पसमांदा नेताओं को जगह दी है, बल्कि सरकारी योजनाओं में भी ऐसे तबकों को प्राथमिकता देने की पहल की है—चाहे वह स्वरोज़गार योजना हो, शैक्षणिक छात्रवृत्ति हो या आवास योजना. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कसाई, दर्ज़ी, जुलाहा जैसे समुदायों को स्थानीय चुनावों में टिकट दिए गए, जिससे उनकी राजनीतिक भागीदारी भी सुनिश्चित हो रही है.

इस पहल से कई विपक्षी दलों को चिंता होने लगी है, क्योंकि वे वर्षों से मुस्लिम वोट बैंक का इस्तेमाल करते रहे हैं लेकिन उन्होंने कभी यह नहीं स्वीकारा कि उस वोट बैंक का बड़ा हिस्सा पसमांदा जातियों से आता है.

समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस जैसी पार्टियाँ केवल धर्म के नाम पर मुस्लिमों को जोड़ने का काम करती रहीं, लेकिन उनकी जातीय पहचान और वंचनाओं पर हमेशा चुप्पी साधे रखी. यही वजह है कि जब भाजपा ने पसमांदा मुसलमानों की पहचान को मान्यता दी और उनके लिए प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की बात की, तो पुराने समीकरण डगमगाने लगे. 

अशराफ तबका, जो मुस्लिम समाज के भीतर ऐतिहासिक रूप से प्रभुत्वशाली रहा है, अब इस बदलाव से बेचैन है. वे जातिगत जनगणना और पसमांदा आंदोलन को 'इस्लाम विरोधी', 'उम्मत में फूट डालने वाला' और 'हिंदू एजेंडा' कहकर बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं.

उनका असली डर यह है कि अगर जातीय आँकड़े सामने आ गए, तो उनकी ऐतिहासिक सत्ता और सामाजिक प्रतिष्ठा पर सवाल उठेगा. यही वर्ग है जो सदियों से मस्जिदों, मदरसों, धार्मिक ट्रस्टों, मुस्लिम संगठनों और राजनीतिक मंचों पर बिना किसी बाधा के काबिज़ रहा है.

जाति की गिनती करना इसका मतलब यह नहीं है कि हम जातिवाद का समर्थन कर रहे हैं. इसका मतलब सिर्फ़ इतना है कि हम यह मान रहे हैं कि जाति आज भी हमारे समाज में एक सच्चाई है.

जैसे हम अशिक्षा, भुखमरी या लड़कों-लड़कियों के अनुपात को गिनते हैं ताकि उन्हें ठीक किया जा सके, वैसे ही जाति को गिनना भी बदलाव की दिशा में पहला क़दम है. जब तक हर जाति की सही गिनती नहीं होगी, हम यह नहीं जान पाएंगे कि कौन लोग अब भी पीछे हैं और किसे मदद की ज़रूरत है.

यह गिनती हमें यह समझने में मदद करती है कि समाज में कौन आगे है, कौन पीछे और क्यों। जातिगत जनगणना एक मौका है सच्चाई को जानने और बराबरी की ओर बढ़ने का.

जातिगत जनगणना केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र की असल परीक्षा है. इससे यह सामने आएगा कि किस जाति और वर्ग को वास्तव में अवसर मिले और कौन अब भी हाशिए पर है.

अगर हम बिना सटीक आंकड़ों के योजनाएं बनाते रहेंगे, तो असल ज़रूरतमंद तबकों तक लाभ नहीं पहुंच पाएगा. यह जनगणना सत्ता में बैठे लोगों को जवाबदेह बनाएगी और यह तय करेगी कि विकास का लाभ सिर्फ ऊपरी तबकों तक सीमित न रह जाए.

सच्चा सामाजिक न्याय तभी संभव है जब हर जाति की वास्तविक स्थिति को स्वीकार किया जाए और उसके अनुसार नीतियां बनाई जाएं. यही समावेशी विकास का रास्ता है.

भारतीय संदर्भ में जाति जनगणना सिर्फ जातियों की गिनती नहीं, बल्कि सामाजिक हक़ीक़त को पहचानने का एक ज़रिया है. यह हमें यह समझने में मदद करती है कि जिन नेताओं ने वर्षों तक अपने समाज के नाम पर सत्ता हासिल की, क्या उन्होंने सच में अपनी जाति के लोगों की ज़िंदगी में कोई बदलाव लाया ?

अगर आंकड़े दिखाते हैं कि सत्ता के करीब रही जातियां अब भी शिक्षा, रोजगार और सम्मान से वंचित हैं, तो इससे जाति के नाम पर की जाने वाली राजनीति की सच्चाई सामने आ सकती है. यह जनगणना उन तबकों को आवाज़ दे सकती है जिन्हें अब तक राजनीतिक हाशिए पर रखा गया। सामाजिक न्याय की दिशा में यह एक ज़रूरी और ईमानदार शुरुआत हो सकती है.

जातिगत जनगणना केवल मुस्लिम समाज के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए सामाजिक न्याय की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है. इससे समाज में छिपी असमानताओं का पर्दाफाश होगा और वंचित तबकों को उनका हक मिलेगा.

यह कदम न केवल सामाजिक समरसता और भाईचारे को बढ़ावा देगा, बल्कि लोकतंत्र को भी मजबूत करेगा. भाजपा की पहल ने इस मुद्दे को राजनीति के केंद्र में ला दिया है.

अगर भाजपा इस दिशा में ईमानदारी से आगे बढ़ती है, तो यह सिर्फ मुस्लिम समाज नहीं, पूरे देश के लोकतंत्र को सामाजिक न्याय की ओर ले जाने वाला ऐतिहासिक क़दम होगा.

जातिगत जनगणना से समाज में छुपी असमानताओं को दूर करने का रास्ता खुलेगा और हर व्यक्ति को उसका हक मिलेगा. यही सच्चा सामाजिक न्याय है, यही लोकतंत्र की आत्मा है.

    लेखक पसमांदा विषय के जानकार हैं.यह लेखक के विचार हैं.