कांग्रेस के लिए समुद्र मंथन का समय

Story by  क़ुरबान अली | Published by  [email protected] | Date 23-03-2022
कांग्रेस के लिए समुद्र मंथन का समय
कांग्रेस के लिए समुद्र मंथन का समय

 

quranकुरबान अली  

मई 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बाद से देश के अधिकांश राजनीतिक विश्लेषक देश की इस सबसे पुरानी पार्टी पर श्रद्धांजलि लेख लिख रहे हैं. तब से लेकर अब तक कांग्रेस अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. हालांकि लोकसभा चुनावों में लगातार दो बार पराजित होने के बावजूद इस पार्टी ने कई राज्यों में अपने बूते सरकार बनाई और कुछ राज्यों में गठबंधन सरकार बनाने में सफल रही.

दूसरी ओर यह भी सही है कि पार्टी न सिर्फ अपने विरोधियों के तल्ख निशाने पर है, उसे अपने आंतरिक झंझावातों का भी सामना करना पड़ रहा है.एक तरह से कांग्रेस के लिए यह समुद्र मंथन का समय है जिसमें उसे अपने अंदर का विष निकालना है और अमृत भी. यह तय करना है कि उसका अस्तित्व कैसे बचे ?

1885 में अपनी स्थापना के बाद से कांग्रेस राष्ट्रीय आंदोलन का हरावल दस्ता बनी और महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका से वापस आने के बाद देश का स्वतंत्रता संग्राम इसके बैनर तले लड़ा गया. तब पार्टी में कई तरह की विचारधाराएं थीं.

कांग्रेस के पेट से ही मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा का जन्म हुआ. इस से निकले ज्यादातर वामपंथी और समाजवादियों ने पहले कांग्रेस के अंदर रहते हुए राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया. फिर आजादी के बाद कांग्रेस सरकार के खिलाफ आक्रामक विपक्ष की भूमिका में आए.

आजादी के बाद कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने न केवल संविधान सभा द्वारा तीन वर्षों के लंबे बहस-मुबाहिसे के उपरांत बनाए गए संविधान को लागू किया. अपने नेतृत्व में कांग्रेस को लगातार तीन बार 1952, 1957और 1962 के आम चुनावों में शानदार कामयाबी दिलाई.

उनके नेतृत्व में केंद्र में प्रचंड बहुमत के साथ कांग्रेस की सरकारें बनीं. एक दो राज्यों को छोड़कर अधिकांश राज्यों में कांग्रेस पार्टी भारी बहुमत से चुनाव जीती और सरकारें बनाती रही.1962 में चीन के आक्रमण के बाद नेहरू का करिश्माई नेतृत्व धुंधला गया.

1963 में हुए तीन लोकसभा उप चुनावों के उपरांत जिसमें कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष जे बी कृपलानी, सोशलिस्ट पार्टी के नेता राममनोहर लोहिया और स्वतंत्र पार्टी के नेता मीनू मसानी विपक्षी पार्टी के उम्मीदवारों के तौर पर जीत कर लोकसभा पहुंचे और नेहरू पर विपक्षी हमले तेज होने लगे.

पहली बार लोक सभा में नेहरू सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया. कांग्रेस के भारी बहुमत के कारण यह प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया, लेकिन नेहरू सरकार और उसकी नीतियों की काफी आलोचना हुई.मई 1964 में पंडित नेहरू के निधन के बाद कांग्रेस पार्टी कमजोर होने लगी. 1967 के आम चुनावों में पार्टी केंद्र में हारते हारते बची, जबकि विपक्षी दलों के गठबंधनों और कांग्रेस के दल बदलू बागियों की मदद से विपक्षी दल नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकार का गठन करने में सफल रहे. उस समय श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री और कांग्रेस की बड़ी नेता थीं.

मगर उन्हें उन्हीं की पार्टी के नेता जैसे मोरारजी देसाई, निजलिंगप्पा,कामराज, सदोबा पाटिल, अतुल्य घोष, सी बी गुप्ता सरीखे लोग चुनौती दे रहे थे. नतीजे में इंदिरा गांधी ने 1969में कांग्रेस में विभाजन करके दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी नेताओं से अपने को अलग कर लिया.

कम्युनिस्ट पार्टी तथा सोशलिस्ट पार्टियों से कुछ नेताओं को तोड़कर जैसे अशोक मेहता, चंद्रशेखर, नारायण दत्त तिवारी, वसंत साठे और कुमारमंगलम, चंद्रजीत यादव, नूरुल हसन वगैरा के जरिए कांग्रेस की समाजवादी और गरीब समर्थक छवि बनाई.उन्होंने बैंकों और कोयला कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करके तथा राजे रजवाड़ों के प्रिवी पर्स खतम करके ‘गरीब हटाओ‘ का नारा दिया. लोक सभा भंग करके मध्यावधि चुनाव कराए.  

   1971 में हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को भारी बहुमत मिला और विपक्षी दलों का लगभग सफाया हो गया. इन चुनावों में इंदिरा गांधी न केवल  कांग्रेस की, बल्कि देश की सबसे बड़ी नेता बनकर उभरीं. इसी वर्ष पाकिस्तान के साथ युद्ध और बांग्लादेश का निर्माण करा कर वह दुनिया की बड़ी नेता बनकर उभरीं. लेकिन यहीं से उनके बेटे संजय गांधी के  राजनीतिक उदय और कांग्रेस पार्टी के पतन की शुरुआत हुई.

1975 में आपातकाल का लगना और लोकतंत्र का गला घोंटने की कीमत इंदिरा गांधी को 1977में हुए आम चुनावों में चुकानी पड़ी, जब लगभग समूचे उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया. वो खुद व संजय गांधी चुनाव हार गए. 

 इन चुनावों के बाद कांग्रेस पार्टी में एक और विभाजन  हुआ. इंदिरा गांधी एक बार फिर बड़ी नेता बनकर उभरीं . उसके ढाई-तीन साल बाद कांग्रेस ने संसदीय चुनाव में लगभग 70फीसदी सीटें जीतकर सत्ता में धमाकेदार वापसी की.

कांग्रेस को एक बार 1999 में भी खत्म घोषित कर दिया गया था, जब कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी ने इसकी कमान अपने हाथों में ली थी. 1999में हुए चुनावों में कांग्रेस को बड़ी हार का सामना करना पड़ा .

कांग्रेस को कुल 543लोकसभा सीटों में से 114 पर ही विजय मिली थी. लेकिन साल 2004 में सोनिया गांधी ने पार्टी को उबार लिया. एक नहीं दो बार और उनके नेतृत्व में 2009 में हुए चुनावों में पार्टी दोबारा सत्ता में आई.

दरअसल, कांग्रेस के सामने इस समय सबसे बड़ा संकट अपनी साख और विचारधारा को बचाए रखने का है.उसे गंभीर रूप से आत्ममंथन करना होगा कि उसके पतन के क्या कारण और कौन इसके जिम्मेदार हैं ?


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1947 में आजादी मिलने  और देश विभाजन के  बाद हिंदुस्तान को एक रखने की सबसे बड़ी चुनौती थी. महात्मा गांधी,जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल,मौलाना अबुल कलाम आजाद, राजेंद्र प्रसाद और सरदार बलदेव सिंह वगैरह ने मिलकर तय किया कि पाकिस्तान बन जाने के बावजूद वो इस मुल्क को हिंदू राष्ट्र नहीं बनने देंगे.

वैसा ही देश बनाएंगे जिसका वायदा राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान किया गया था. यानी इस देश को डॉ आंबेडकर द्वारा बनाए गए संविधान के तहत चलाना जिसकी प्रस्तावना कहती है कि ‘‘यह देश एक समाजवादी धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक देश होगा.

इसमें जाति, धर्म, संप्रदाय, लिंग, भाषा और इलाके के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा. सभी नागरिकों  को बराबर के अधिकार होंगे और न्याय, सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक रूप से सबके साथ होगा.समाज के पिछड़े, दलित, शोषित, वंचित, गरीब, महिलाएं, अल्पसंख्यक और हाशिए पर रहने वालों के साथ सम्मानजनक सुलूक किया जाएगा. किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा.‘‘

यही कांग्रेस पार्टी की मूल विचारधारा रही है. अगर उसे मौजूदा सत्ताधारियों से लड़ना है तो विचारधारा से लड़ा जा सकता है. उसके लिए ‘सॉफ्ट‘ हिंदुत्व की विचारधारा अपनाने से काम नहीं चलेगा. कांग्रेस को कहना होगा कि यह गोडसे का देश नहीं, गांधी का देश है.

यहां उस विचारधारा के लोग भी मौजूद हैं, जो सर्वधर्म समभाव की विचारधारा चलेगी. और देश चंद  पूंजीपतियों द्वारा नहीं बल्कि इस देश की गरीब जनता की आकांक्षा और उम्मीदों से चलाया जाएगा.कांग्रेस को अपने काडर और कार्यकर्ताओं मैं जान फूंकनी होगी.

सड़क पर किसान, मजदूर, गरीब और सर्वहारा जनता के लिए संघर्ष करना होगा, तभी उसकी धमाकेदार वापसी होगी. अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है. इसके अलावा जी-23को मनाना होगी. उनकी जिम्मेदारियां तय करने होंगी. सीनियर और जूनियर नेताओं को संगठित होकर काम करने की जरूरत है. कांग्रेस का कई खेमा ऐसा ही भी है, जा हर दम आपस में लड़ते रहने को मजबूर किया जाता है.

नोट: लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और बीबीसी के लिए लंबे समय तक काम किया है. 

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