इस्लामोफोबिया के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव, अब हमारी ज़िम्मेदारियां

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 19-03-2022
संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय, न्यूयॉर्क
संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय, न्यूयॉर्क

 

wasayप्रो. अख्तरुल वासे

इस सप्ताह की शुरुआत में, संयुक्त राष्ट्र महासभा में इस्लामोफोबिया के खिलाफ ‎‎एक प्रस्ताव पारित किया गया और सर्वसम्मति से 15मार्च को विश्व इस्लामोफोबिया दिवस ‎के रूप में मंजूरी दी, जिसका उद्देश्य विश्व स्तर पर सहिष्णुता और शांति की संस्कृति को ‎बढ़ावा देना था.

इस प्रस्ताव में धर्म या विश्वास के आधार पर लोगों के खिलाफ सभी ‎प्रकार की हिंसा और इबादतगाहों (पूजा स्थलों) एवं मज़ारों (तीर्थस्थलों) सहित धार्मिक ‎स्थलों में इस तरह के कृत्यों को दृढ़ता से नापसंद किया गया और कहा गया कि यह ‎अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन है.

हालाँकि, इस प्रस्ताव का सर्वसम्मति से पारित होना ‎सराहनीय है और एक तरह से 9/11 (न्यूयॉर्क में ट्विन टावर्स पर हमला) के बाद बदलते ‎विश्वदृष्टि को दर्शाता है और हम इसका स्वागत करते हैं.

इस दुनिया को जो एक वैश्विक ‎गाँव बन चुकी है, इंसानों के रहने के काबिल बनाना हम सबकी जिम्मेदारी है. हमें यह भी ‎‎एहसास है कि कुछ देशों और सदस्यों ने, इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकार करने के ‎बावजूद शंका जाहिर की है और स्वीकार किया है कि दुनिया भर में धार्मिक असहिष्णुता है, ‎लेकिन केवल इस्लाम को अलग से प्रस्तुत किया गया है और अन्य को धर्मों को नहीं.

इस ‎तथ्य के बावजूद कि हम इस्लामोफोबिया के खिलाफ एक सर्वसम्मत प्रस्ताव के पारित होने ‎की दृढ़ता से सराहना करते हैं, हम मानते हैं कि जिस तरह से इस्लाम और मुसलमानों को ‎निशाना बनाया गया था, उससे ऐसा प्रस्ताव पारित करना जरूरी हो गया था.

‎इस्लामोफोबिया के परिणामस्वरूप जो मायूसी पिछले दो दशकों से अधिक समय से वैश्विक ‎स्तर पर मुसलमानों की हुई है, अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, यमन और सीरिया में हमने ‎जो मानव जीवन को कुचलते हुए देखा है, ऐसे परिदृश्य में इसके अलावा कोई विकल्प नहीं ‎था कि वैश्विक स्तर पर इसके लिए पश्चाताप करें.

‎‎रूस के राष्ट्रपति और न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री द्वारा व्यक्त किए गए विचारों के बाद ऐसा ‎करना अनिवार्य हो गया था. अब जहां तक फ्रांस, यूरोपीय संघ और भारत की चिंताओं का ‎संबंध है, हमएक भारतीय के रूप मेंहमारे देश के स्थायी प्रतिनिधि के विचार से पूरी ‎तरह सहमत हैं कि इस तरह के प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र महासभा में सभी सदस्यों द्वारा ‎सर्वसम्मति से सभी धर्मों के लिए पास किया जाना चाहिए क्योंकि धर्म जो भी हो, वह ‎अपने अनुयायियों के लिए भक्ति का केंद्र होता है.

उस धर्म से जुड़ी अलौकिक शक्तियों, ‎संतों, पवित्र शास्त्रों और पवित्र स्थानों का किसी भी प्रकार का अपमान बर्दाश्त नहीं किया ‎जाना चाहिए. हमारा यह विचार एक मुसलमान की हैसियत से पवित्र कुरान पर आधारित है जो कहता है ‎कि धर्म में कोई बाध्यता नहीं, दूसरों के देवताओं को बुरा मत कहो और तुम्हारा धर्म तुम्हारे लिए है और मेरा धर्म मेरे लिए है.

इसलिए हम इसे उचित समझते हैं ‎कि संयुक्त राष्ट्र, जो कि दुनिया के निवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाला निकाय है ‎इसलिए उसे एक और प्रस्ताव इसी तरह की दूसरे धर्मों के बारे में भी पास पारित करनी ‎चाहिए. साथ ही दुनिया भर की सरकारों को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके ‎लोगों का धर्म के आधार पर तिरस्कार या अपमान न हो.

उन्हें रहने-सहने, चलने-फिरने, ‎अपनी पसंद का व्यवसाय करने, क्या खाए क्या पिए, क्या ओढ़े क्या बिछाए, इसकी पूरी आज़ादी होनी चाहिए. एक मुसलमान होने की हैसियत से हम ‎बार-बार मुस्लिम हुकूमतों और मुस्लिम बहुल समाजों से वर्षों से यह कहते आए हैं कि वह ‎सभी अधिकार और रियायत जो गैर-मुस्लिम बहुल समाजों में वह अपने लिए चाहते हैं, वही ‎आगे बढ़कर सबसे पहले अपने गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को उदारता के साथ प्रदान करें.

‎इससे उनके देश में भी सद्भाव का माहौल बनेगा और वह इस दुनिया और इस दुनिया के ‎बनाने वाले के सामने भी सफल होंगे.

‎यह बात इसलिए कहनी जरूरी है कि जो कुछ भारतीय दूत ने कहा और दूसरों के ‎‎यहां जो शंका पाई जाती है उसका कारण यह है कि कुछ मुस्लिम देशों में ‎मानवाधिकारों की स्थिति ठीक नहीं है. वहां पर अल्पसंख्यकों और महिलाओं को वह ‎अधिकार भी नहीं दिये जा रहे हैं जो अल्लाह और उसके रसूल सल्ल. ने उन्हें दिये हैं.

‎इस्लामिक देशों में शिया-सुन्नी के नाम पर टकराव की जो स्थिति है वह बहुत परेशान ‎करने वाली है. इसके अलावायमन और सीरिया को लेकर मुस्लिम देशों के बीच तनाव ‎और टकराव हमारे लिए किसी कलंक से कम नहीं है.. मुसलमान दुनिया में ‎‎ख़ैर-ए-उम्मत बनाकर भेजे गए हैं, लेकिन क्या वे वास्तव में उसका हक़ अदा कर रहे हैं? ‎‎यह एक ऐसा सवाल है जिसका हमें जवाब देना ही चाहिए और यदि हम अपने मामलों और ‎नीतियों को बदलना चाहते हैं तो इसके लिए अभी से कोशिश करनी चाहिए.‎

हो सकता है कि कोई यह कहे कि हमने सिर्फ भारतीय दूत के हवाले से बात क्यों ‎की? फ्रांस और यूरोपीय संघ की जानबूझकर उपेक्षा क्यों की? तो इसका सीधा सा कारण ‎‎यह है कि फ्रांस और यूरोपीय संघ यूक्रेन में तो अपने सहधर्मियों की रक्षा कर नहीं पा रहे ‎हैं और उन्होंने उन्हें बिना सोचे-समझे उसे एक युद्ध में धकेल दिया है और आज सिर्फ दिखावे ‎के लिए रूस को बुरा-भला कह रहे हैं लेकिन युक्रेन की जो व्यावहारिक मदद होनी चाहिए ‎उसके लिए कोई आगे नहीं आ रहा है. ऐसे पाखंडी और दोगले राजनेताओं पर किसी भी ‎तरह से भरोसा नहीं किया जा सकता है.

आशा है कि संयुक्त राष्ट्र एक न्यायपूर्ण, संतुलित ‎और निष्पक्ष दृष्टिकोण अपनाते हुए दुनिया भर में लोगों की भलाई के लिए अपने ‎प्रभाव को बढ़ाएगा.

 

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं.)