डॉ. कुशल बरन चक्रवर्ती
भगवान जगन्नाथ न केवल एक दिव्य स्वरूप हैं, बल्कि वे भारतीय धर्म-संस्कृति की गहराई में व्याप्त समन्वय और एकता के प्रतीक भी हैं.‘जगन्नाथ’ का अर्थ है – ‘जगत के स्वामी’.यह उनका एक करुणामयी और सुन्दर रूप है जो न केवल श्रद्धा, बल्कि सामाजिक समरसता का संदेश भी देता है.जगन्नाथ धाम भारत के चार पवित्र धामों में से एक है और देवी के इक्यावन शक्तिपीठों में भी इसकी गणना होती है.
जगन्नाथ की मूर्ति अद्भुत है – अधूरी प्रतीत होने वाली यह मूर्ति उनके हाथ-पैरों के बिना भी पूर्ण है.यह प्रतीक है कि भगवान सबमें व्याप्त हैं.इंद्रियों से परे रहते हुए भी हर जीव में उनका वास है.उनकी मूर्ति को "दारुब्रह्म" कहा जाता है, जिसका अर्थ है लकड़ी से निर्मित वह दिव्य रूप जिसमें परम ब्रह्म निवास करते हैं.
भारत के हर प्राचीन मंदिर की कोई-न-कोई विशेषता होती है.इसी परंपरा में, भगवान जगन्नाथ की बड़ी और करुणामयी आँखें अपने भक्तों को विशिष्ट ढंग से देखती हैं.उनके प्रकट होने की कथास्कंद पुराणकेविष्णु खंडमें विस्तार से दी गई है, जिसमें राजा इंद्रद्युम्न, रानी गुंडिचा और वृद्ध शिल्पकार की कथा प्रसिद्ध है.
जगन्नाथ देव की पूजा हिंदू धर्म के पांच प्रमुख संप्रदायों — शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर और गाणपत्य — को एक सूत्र में पिरोती है.बलभद्र को शिव का, सुभद्रा को शक्ति का, जगन्नाथ को विष्णु का और सुदर्शन चक्र को सूर्य का प्रतीक माना जाता है.गणपति संप्रदाय की उपस्थिति स्नानयात्रा के दिन होती है, जब जगन्नाथ को गणेश रूप में पूजा जाता है.
जगन्नाथ मंदिर की एक और विशेषता यह है कि यहाँ भगवान स्वयं रथ यात्रा के दौरान मंदिर से बाहर निकलकर भक्तों के बीच आते हैं.जब जगन्नाथ, जो कि ‘राजाओं के राजा’ हैं, सड़कों पर उतरते हैं, तो गजपति राजा स्वयं झाड़ू लेकर उनका मार्ग साफ करते हैं.यह परंपरा राजा अनंग भीमदेव (1175–1202 ई.) के समय से चली आ रही है और यह समाज में समानता और सेवा का सन्देश देती है.
पुरी का आनंदबाजार, जहाँ भगवान का प्रसाद वितरित होता है, जात-पात से ऊपर उठकर एकता और समरसता का जीता-जागता उदाहरण है.ब्राह्मण और शूद्र एक ही स्थान पर बैठकर प्रसाद ग्रहण करते हैं.पूजा की प्रक्रिया में भी दोनों की समान भागीदारी होती है — ब्राह्मण पुजारी और शबर वंश के दयितपति, जो शूद्र होते हैं, मिलकर पूजा करते हैं.स्नान यात्रा के बाद के पंद्रह दिनों में विशेष रूप से शबर दायित्व संभालते हैं.
जगन्नाथ देव के साथ उनका बड़ा भाई बलराम और बहन सुभद्रा भी पूजे जाते हैं.यह पारिवारिक एकता और भाई-बहन के प्रेम का भी प्रतीक है.रथयात्रा में सबसे पहले बलराम का, फिर सुभद्रा का और अंत में जगन्नाथ का रथ चलता है, जो हमारी सांस्कृतिक परंपराओं में बड़ों के सम्मान और बहनों के स्नेह का प्रतिनिधित्व करता है.
तीनों रथों के नाम भी विशेष हैं — जगन्नाथ का रथ ‘नंदीघोष’ (या गरुड़ध्वज, चक्रध्वज, कपिध्वज), बलराम का रथ ‘तालध्वज’ और सुभद्रा का रथ ‘दर्पदलन’ कहलाता है.ये नाम न केवल पौराणिक, बल्कि प्रतीकात्मक अर्थ भी लिए हुए हैं.
श्रीजगन्नाथ धाम को श्री शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, तुलसीदास आदि महान आचार्यों ने अपनी आराधना और साधना का केन्द्र बनाया.श्रीरामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास भी पुरी आए थे और उन्होंने रघुपति राम के रूप में जगन्नाथ की पूजा की थी.
इतिहास में एक समय ऐसा भी आया जब कालयवन के आक्रमण के दौरान मंदिर की रक्षा हेतु पांडवों ने जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्थित ‘रत्न-पेटी’ को चिल्का झील के समीप भूमिगत कर दिया.समय के साथ यह स्थान भुला दिया गया, लेकिन बाद में श्री शंकराचार्य ने अपनी योग शक्ति से रत्न-पेटी का स्थान खोज निकाला और भगवान जगन्नाथ की पुनः प्रतिष्ठा की.
शंकराचार्य ने उस समय ध्यानावस्था में भगवान जगन्नाथ को समर्पित एक संस्कृत स्तोत्र की रचना की, जो आज भी भक्तगण श्रद्धा से गाते हैं.उस भजन में वे कहते हैं:
"नीलाचल स्थित महाभारसिंधुतीरे...
बलभद्रसहित सुभद्रामध्यस्थं जगन्नाथं।
नेत्रे पश्यंतु मे सदा॥"
अर्थात्, ‘‘हे भगवान जगन्नाथ, जो महासागर के तट पर नील पर्वत पर अपने पराक्रमी भाई बलराम और सुभद्रा के साथ विराजमान हैं, जो सभी देवताओं को सेवा का अवसर प्रदान करते हैं – कृपया मेरे नेत्रों के समक्ष सदा प्रकट रहें.’’
इस प्रकार, भगवान जगन्नाथ न केवल एक धार्मिक आराध्य हैं, बल्कि वे भारत की आध्यात्मिक एकता, सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक चेतना के भी प्रतीक हैं.उनका रथ महज लकड़ी का नहीं, बल्कि वह भारत की साझी विरासत, सहिष्णुता और समभाव का प्रतीक है – एक ऐसा रथ, जो पूरे राष्ट्र को जोड़ता है.
डॉ. कुशल बरन चक्रवर्ती, सहायक प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, चटगांव विश्वविद्यालय