रोहित वेमुला विधेयक: देशज पसमांदा संशय

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 01-08-2025
Rohith Vemula Bill: Indigenous Pasmanda doubts
Rohith Vemula Bill: Indigenous Pasmanda doubts

 

sडॉ फैयाज अहमद फैजी

हाल ही में कर्नाटक की कांग्रेस सरकार द्वारा “रोहित वेमुला विधेयक" लाने की बात कही गई है जिसका उद्देश्य उच्च शिक्षण संस्थाओं में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातिअन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों के साथ होने वाले जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न को रोकना है.इसे अगली कैबिनेट मीटिंग में प्रस्तुत कर राज्य विधानसभा के पटल पर रखा जाएगा.

विधेयक का उद्देश्य निश्चित रूप से प्रशंसनीय है.यह पहली नज़र में सामाजिक न्याय की ओर एक सकारात्मक कदम लगता है.परंतु इसकी संरचना और भाषा में कुछ गंभीर अस्पष्टताएं हैं, जो इसके प्रभाव को सीमित कर सकती हैं.

विधेयक में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग के साथ अल्पसंख्यक भी जोड़ा गया है जो कि धार्मिक पहचान को उजागर करता है विधेयक धर्म और जाति की पहचान को एकसमान स्तर पर रखता है.

और अल्पसंख्यक समाज के उत्पीड़न को केवल धार्मिक पहचान के आधार परिभाषित करता है,जबकि वास्तविकता यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय के भीतर भी जातिगत वंचित समुदाय जैसे पसमांदा मुसलमान, दलित ईसाई, दलित सिख और दलित बौद्ध आदि हैं,जो प्रायः अपने ही समाज के उच्च वर्ग द्वारा जातिगत भेदभाव के शिकार होते रहें हैं.

यह सच है कि धार्मिक आधार पर भेदभाव विद्यमान है.हालांकि, इस विधेयक का केंद्र बिंदु धार्मिक भेदभाव नहीं, बल्कि जाति आधारित भेदभाव है.इसमें अन्य धर्मो के मानने वालों के जातिगत पहचान को स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं किया गया है जिस कारण विधेयक में पसमांदा, दलित ईसाई, दलित सिख एवं दलित बौद्ध आदि की स्थिति अस्पष्ट हो जाती है.

भारत की सामाजिक संरचना में भेदभाव और उत्पीड़न का मूल आधार जाति रही है.जाति वह स्थायी पहचान है, जिसके आधार पर व्यक्ति का सामाजिक स्थान, अवसर, सम्मान और जीवन की दिशा निर्धारित होती है.यह संरचना केवल हिंदू समाज तक सीमित नहीं, बल्कि मुस्लिम, ईसाई, सिख आदि धार्मिक समुदायों में भी स्पष्ट रूप से मौजूद है.

धार्मिक अल्पसंख्यकता और जातिगत संरचना दो भिन्न सामाजिक सच्चाइयाँ हैं.मुस्लिम समुदाय में भी जाति आधारित भेदभाव गहराई से व्याप्त है.यह भी ध्यान देना ज़रूरी है कि भेदभाव केवल धर्मों के बीच (inter-religious) नहीं होता, बल्कि धर्मों के भीतर (intra-religious) भी होता है.

उदाहरणस्वरूप, मुसलमानों में सत्ता और सामाजिक वर्चस्व अक्सर अशराफ तबकों के हाथ में केंद्रित होता है, और  पस्मान्दा समुदाय जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न का शिकार रहा है.

एक मुसलमान, ईसाई या सिख व्यक्ति भले ही धार्मिक अल्पसंख्यक हो, लेकिन यदि वह सामाजिक रूप से उच्च जाति से आता है, तो उसे वह उत्पीड़न नहीं झेलना पड़ता जो एक पसमांदा मुसलमान, एक दलित ईसाई या एक दलित सिख का दैनिक अनुभव होता है.

विधेयक में "अल्पसंख्यक" शब्द का सामान्यीकृत उपयोग उत्पीड़न की जमीनी सच्चाइयों से दूर ले जाता है.जब एक अशराफ मुस्लिम, जो स्वयं विशेषाधिकार प्राप्त है, इस विधेयक के अंतर्गत 'पीड़ित' की श्रेणी में आ सकता और वही व्यक्ति पसमांदा समुदाय के साथ यदि जातिगत/नस्लगत भेदभाव कर रहा हो तो ऐसी स्थिति में यह विधेयक उसे कैसे संबोधित करेगी यह एक प्रश्न है.

रोहित वेमुला की त्रासदी जातिगत उत्पीड़न का परिणाम था.उसका धर्म उसमें गौण या अप्रासंगिक था.अगर रोहित वेमुला के विरासत का सम्मान करना है तो अन्य धर्मो के वंचित समाज के जातिगत पहचान को भी संबोधित करना जरूरी हो जाता है.

इस संदर्भ में, ऐसा प्रतीत होता है कि मौजूदा विधेयक, उस बहुस्तरीय सामाजिक उत्पीड़न को संबोधित नहीं करता जो भारतीय समाज की वास्तविकता है.यह एक गंभीर चूक है, जिसे तत्काल सुधारे जाने की आवश्यकता है.

यह स्पष्ट है कि कांग्रेस पार्टी ने लंबे समय से “मुस्लिम तुष्टिकरण” की नीति अपनाई है, परंतु यह तुष्टिकरण संपूर्ण मुस्लिम समाज का न होकर केवल अशराफ तबकों तक सीमित रहा है.इस विधेयक में भी "अल्पसंख्यक" कहकर समूचे मुस्लिम समुदाय को एकरूप मान लिया गया है, जबकि उनके भीतर की जातिगत खाई की सच्चाई को अनदेखा कर दिया गया है.

जब दलित और पिछड़े हिंदू समुदायों के लिए विशेष कानून बनाए जा सकते हैं, तो अपने ही समाज द्वारा जातिगत भेदभाव के शिकार पसमांदा मुसलमानों के साथ साथ अन्य धर्मो के मानने वाले वंचितों के लिए ऐसी पहल क्यों नहीं की जा सकती? क्या उनकी जातिगत पीड़ा धर्म के आवरण में छिपा दी जाएगी? या यह मान लिया गया है कि धर्म परिवर्तन से जातिगत उत्पीड़न समाप्त हो जाता है?

संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार विशेषज्ञों ने इस विधेयक का स्वागत किया है और सुझाव दिया है कि इसमें मानसिक स्वास्थ्य सहायता, हॉस्टल सुरक्षा और आर्थिक मदद जैसे प्रावधान शामिल किए जाएं.परंतु चिंता का विषय यह है कि अंतर्राष्ट्रीय संस्थान भी मुस्लिम समुदाय को समरूप मानने की वही पुरानी गलती दोहरा रहे हैं, जिसमें पसमांदा मुसलमानों की वास्तविक समस्याएँ दब कर रह जाती हैं और समाज में मजहबी सांप्रदायिकता सर उठाने लगता है.

यदि यह विधेयक जाति आधारित उत्पीड़न को केंद्र में रखता है, तो उसे अन्य धर्मों के लोगों के बीच मौजूद जातीय विभेद को भी स्पष्ट रूप से पहचानना और परिभाषित करना होगा.अन्यथा, यह विधेयक सामाजिक न्याय की अवधारणा को अधूरा ही नहीं, बल्कि विकृत भी कर देगा.पसमांदा समाज के लिए यह विधेयक एक और उपेक्षा की कहानी बनकर रह जाएगा—जिसमें वे ‘अल्पसंख्यक’ तो माने जाएंगे, लेकिन उनके सामाजिक यथार्थ को हर बार अनदेखा किया जाएगा.

यदि विधेयक के वास्तविक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अग्र लिखित बिंदुओं पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है -

देशज पसमांदा मुसलमान', 'दलित ईसाई', 'दलित सिख', 'दलित बौद्ध' आदि को विधेयक में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया जाए, जातिगत उत्पीड़न की परिभाषा में धार्मिक समुदायों के भीतर का जातिगत भेदभाव भी सम्मिलित किया जाए, जिससे संस्थागत जातिवाद को व्यापक रूप से पहचाना जा सके.

"रोहित वेमुला विधेयक" एक संवेदनशील विषय को उठाता है, लेकिन यह तभी प्रभावी सिद्ध होगा जब वह सामाजिक न्याय की वास्तविक जड़ों को पहचानकर ठोस ढंग से संबोधित करे.

भारत में उत्पीड़न की जड़ें धर्म की सतह से कहीं गहरी—जाति की संरचना में पैबस्त हैं.अगर हम रोहित वेमुला की त्रासदी को दोहराना नहीं चाहते, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि केवल धार्मिक पहचान के आधार पर न्याय अधूरा रहेगा.वास्तविक न्याय जातिगत भेदभाव को पहचानने और उसका निवारण करने से ही संभव है.

जब तक पसमांदा, दलित ईसाई, दलित सिख, दलित बौद्ध और अन्य वंचित समुदायों को नाम लेकर विधायी मान्यता नहीं दी जाएगी, तब तक यह विधेयक केवल एक प्रतीक भर  रह जाएगा — सामाजिक न्याय का उपक्रम नहीं.

लेखन अनुवादक ,स्तंभकार, मीडिया पैनलिस्ट पसमांदा-सामाजिक कार्यकर्ता एवं आयुष चिकित्सक  हैं