हिंदू-मुस्लिम एकता के असली प्रवक्ता थे तिलक, लखनऊ समझौता इसका प्रमाण

Story by  अर्सला खान | Published by  [email protected] | Date 01-08-2025
Death anniversary of Bal Gangadhar Tilak: Hindus and Muslims are the two eyes of this country
Death anniversary of Bal Gangadhar Tilak: Hindus and Muslims are the two eyes of this country

 

अर्सला खान/नई दिल्ली
 
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक अग्रणी व्यक्तित्व रहे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की पुण्यतिथि पर आज उन्हें याद करते हुए देश उनके विचारों और उनके संघर्ष के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर रहा है. वे केवल एक राजनेता या क्रांतिकारी नहीं थे, बल्कि एक ऐसे चिंतक थे जिनकी दृष्टि भारतीय समाज की आत्मा में गहराई तक पैठी हुई थी. 

उन्होंने अंग्रेज़ी शासन की गुलामी को केवल राजनीतिक ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और बौद्धिक पराधीनता भी माना. इसके विरुद्ध उनका सबसे बड़ा हथियार था राष्ट्रवाद, स्वदेशी और भाषाई आत्मनिर्भरता.
 
अंग्रेज़ी भाषा और शिक्षण की आलोचना

तिलक ने बार-बार इस बात को उठाया कि अंग्रेज़ी शिक्षा ने भारतीयों को अपनी संस्कृति से काट दिया है. उनका मानना था कि यह शिक्षा प्रणाली जानबूझकर इस तरह बनाई गई है कि भारतीय अपनी जड़ों को भूलकर केवल "क्लर्क" और गुलाम बने रहें. वे कहते थे, "एक राष्ट्र, जो अपनी भाषा में शिक्षा प्राप्त नहीं करता, वह अपनी आत्मा खो बैठता है." उनकी दृष्टि में अंग्रेज़ी भाषा ज्ञान का एक माध्यम हो सकती थी, लेकिन उसे श्रेष्ठ या अनिवार्य मानना आत्मवंचना थी. उन्होंने मातृभाषाओं में शिक्षा को ज़रूरी बताया ताकि राष्ट्र निर्माण की नींव आम जनता की चेतना में डाली जा सके.
 
मुसलमानों से प्रेम और एकता का भाव

तिलक की सोच हिंदू राष्ट्रवाद की सीमाओं से कहीं आगे थी. उन्होंने भारत को एक बहुधर्मी, बहुजातीय समाज के रूप में स्वीकार किया, जहां सभी समुदायों की भूमिका समान थी. वर्ष 1916 में जब उन्होंने मुस्लिम नेता मोहम्मद अली जिन्ना और अन्य मुस्लिम नेताओं के साथ मिलकर लखनऊ समझौते में सहयोग किया, तो यह उनके राजनीतिक दृष्टिकोण की व्यापकता का परिचायक था.
 
उन्होंने बार-बार कहा कि "हिंदू और मुसलमान इस देश की दो आंखें हैं, और इन दोनों के बीच संघर्ष देश को अंधा बना देगा।" तिलक जानते थे कि अंग्रेज़ी हुकूमत "फूट डालो और राज करो" की नीति के जरिए दोनों समुदायों के बीच खाई पैदा कर रही है. उन्होंने हमेशा इस विभाजनकारी सोच का विरोध किया और साझा संघर्ष की ज़रूरत पर ज़ोर दिया.
 
गीता रहस्य से आत्मबल और राष्ट्रधर्म की सीख

तिलक का "गीता रहस्य" केवल धार्मिक ग्रंथ की व्याख्या नहीं, बल्कि उनके राजनीतिक विचारों का घोषणापत्र था. उन्होंने कर्मयोग को देशभक्ति से जोड़ा और कहा कि "शुद्ध आत्मा से किया गया कर्म ही सच्चा धर्म है." उनका यह विचार हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों को प्रेरित करता था, क्योंकि यह आध्यात्मिकता के माध्यम से सामाजिक और राजनीतिक एकता की बात करता था.
 
 
पुण्यतिथि पर प्रासंगिकता

आज जब भारत वैश्विक भाषा के दबाव, सांस्कृतिक अस्पष्टता और धार्मिक ध्रुवीकरण के दौर से गुजर रहा है, तिलक की सोच और भी प्रासंगिक हो जाती है. उन्होंने जो चेतावनी अंग्रेज़ी भाषा की अंधभक्ति को लेकर दी थी, वह आज के डिजिटल युग में एक नई गंभीरता के साथ सामने आती है.
 
 
उन्होंने जो पुल हिंदू और मुसलमानों के बीच बनाया था, वह आज के भारत में सशक्त करने की आवश्यकता है, जहां धर्म की राजनीति ने सामाजिक संवाद को विकृत कर दिया है.
 
लोकमान्य तिलक ने हमें सिखाया कि सच्चा राष्ट्रवाद वह है जो अपनी जड़ों को पहचानता है, अपनी भाषा को सम्मान देता है, और अपने सभी नागरिकों को समान दृष्टि से देखता है. उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उनके विचारों को आज के भारत में जीवित रखें  जहां धर्म नहीं, इंसानियत आधार हो; और जहां भाषा का माध्यम मातृभाषा हो, आत्महीनता का साधन नहीं.
 
 

 
"स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा" यह नारा आज भी उतना ही प्रासंगिक है, अगर हम उसमें 'संस्कृति, भाषा और एकता' का स्वराज जोड़ दें.