तारिक सोहराब गाजीपुरी
घूँघट कोई नया चलन नहीं है. यह मानव सभ्यता की शुरुआत से ही अस्तित्व में रहा है — आदम और हव्वा के समय से लेकर आज की आधुनिक दुनिया तक, विभिन्न समाजों और संस्कृतियों में इसका स्वरूप और उद्देश्य अलग-अलग रहा है. फिर भी, आज भी हममें से अधिकतर लोग घूँघट के पीछे के वास्तविक अर्थ और उद्देश्य को गहराई से समझने का प्रयास नहीं करते. अक्सर इसे धर्म, परंपरा या सुरक्षा से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन क्या यह परिभाषा पर्याप्त है?
भारतीय उपमहाद्वीप की बहुसांस्कृतिक संरचना — जिसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और अन्य समुदाय भाईचारे के साथ रहते हैं — घूँघट को लेकर विविध दृष्टिकोणों को जन्म देती है. उदाहरण के लिए, हिंदू समाज में जहाँ इसे 'घूँघट' कहा जाता है, वहीं मुस्लिम समाज में 'हिजाब' या 'नक़ाब' जैसे शब्दों का उपयोग होता है. लेकिन भाषा या शब्द से ज़्यादा महत्वपूर्ण है उसके पीछे की भावना और उद्देश्य.
मुस्लिम समाज में पर्दा को लेकर कई प्रकार की व्याख्याएँ प्रचलित हैं. कुछ इसे महज़ एक कपड़ा मानते हैं जो सिर और शरीर को ढकता है, जबकि कुछ इसे एक धार्मिक आदेश के रूप में प्रस्तुत करते हैं. दुर्भाग्यवश, हमारे समुदाय के कई मौलवी और विद्वान पर्दे के सही मायने को एकजुट होकर समाज के सामने नहीं रख सके हैं.
इसकी एक बड़ी वजह है मुस्लिम समाज में व्याप्त संप्रदायिक विभाजन — जैसे देवबंदी, बरेलवी, वहाबी आदि। इन मतभेदों के चलते पर्दे जैसी महत्वपूर्ण शिक्षा को भी भ्रमित कर दिया गया है.
असल में पर्दा सिर्फ़ एक कपड़ा नहीं, बल्कि एक सोच है — एक दृष्टिकोण। इस्लाम में पर्दा महिलाओं के सम्मान, मर्यादा और आत्मरक्षा का प्रतीक है. यह केवल शरीर को ढकने की बात नहीं करता, बल्कि नज़र को भी नियंत्रण में रखने की शिक्षा देता है.
कुरआन में भी यह स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि पुरुष और महिलाएं दोनों अपनी नज़रों को नीचा रखें। यानी, पर्दा एक सामाजिक अनुशासन है जो दोनों पक्षों से अपेक्षित है — केवल महिलाओं से नहीं.
दुर्भाग्य की बात यह है कि आजकल कुछ महिलाएं, शायद जानकारी के अभाव या फैशन की अंधी दौड़ में, ऐसे वस्त्र पहनती हैं जो उनके शरीर के संवेदनशील अंगों को उभारते हैं. यह स्थिति उन्हें असामाजिक तत्वों के निशाने पर ला खड़ा करती है. यह केवल उनका नहीं, बल्कि पूरे समाज का नैतिक पतन है.
जब हम खुले बाज़ारों में ऐसे दृश्य देखते हैं, जहाँ महिलाएं बिना किसी पर्दे के शोषण का शिकार होती हैं, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है — क्या हमने पर्दे के असल मक़सद को भुला दिया है?
यह समझना ज़रूरी है कि पर्दा किसी बंधन का नाम नहीं है, यह सुरक्षा और सम्मान की एक कवच है. यदि एक महिला सुंदर हो, जवान हो, लेकिन वह बिना ढके सार्वजनिक स्थलों पर निकलती है, तो वह न केवल अपने लिए, बल्कि समाज के लिए भी खतरे की स्थिति पैदा करती है.
आज का समाज जहाँ नैतिक मूल्यों में गिरावट आई है, वहाँ ऐसे कृत्य कामुक प्रवृत्तियों को उकसाते हैं. मीडिया में अक्सर हम ऐसी खबरें पढ़ते हैं जहाँ बलात्कार, छेड़छाड़ या यौन उत्पीड़न की घटनाओं में ऐसे ही हालात सामने आते हैं.
लेकिन दोष सिर्फ़ महिलाओं का नहीं है. पुरुषों की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण है. वे भी अपनी नज़रों को नियंत्रित करें, महिलाओं के प्रति सम्मान और मर्यादा का भाव रखें. एक सभ्य समाज की कल्पना तभी साकार हो सकती है जब दोनों पक्ष अपने कर्तव्यों को समझें.
हमारी सरकार और सामाजिक संगठनों को चाहिए कि वे इस विषय पर सकारात्मक और समरसतापूर्ण संवाद शुरू करें. धार्मिक विद्वानों, प्रेरक वक्ताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को एक मंच पर आकर पर्दे के सही अर्थ, उद्देश्य और उसकी सामाजिक उपयोगिता पर जनजागरूकता फैलानी चाहिए.
ऐसे प्रयास केवल किसी एक धर्म के लिए नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए ज़रूरी हैं. अगर हम किसी भी धार्मिक ग्रंथ का निष्पक्ष अध्ययन करें तो पाएँगे कि हर जगह मर्यादा, शील और दृष्टि-संयम की बातें की गई हैं.
हम यह नहीं कह रहे कि सभी समस्याओं का समाधान सिर्फ़ पर्दे में छिपा है, लेकिन यह भी सच्चाई है कि पर्दा एक शक्तिशाली सामाजिक सुरक्षा कवच हो सकता है — बशर्ते इसे एक मर्यादित सोच और सम्मान के साथ अपनाया जाए. यह केवल महिलाओं के वस्त्र तक सीमित नहीं है, बल्कि पुरुषों की सोच और नज़रों में भी पर्दा होना चाहिए.
इसलिए, मैं सरकार और समाज के ज़िम्मेदार वर्गों से अपील करता हूँ कि वे नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए, खासकर महिलाओं की सुरक्षा को लेकर, ठोस प्रयास करें. धार्मिक पंथ या संप्रदाय से ऊपर उठकर सभी विद्वानों को इस दिशा में योगदान देना चाहिए.
यदि हम ऐसा कर सके, तो यकीन मानिए — हमारा समाज फिर से एक आदर्श और सुरक्षित वातावरण की ओर लौट सकता है, जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों गरिमा के साथ जी सकें.