गुलाम कादिर /नागपुर
पुणे की शांत बाणेर बस्ती में एक सदी से अधिक की उम्र जी रही यास्मीन शेख आज भी उसी ऊर्जा और आत्मविश्वास के साथ मराठी भाषा की सेवा में जुटी हैं, जिस जुनून से उन्होंने युवावस्था में यह सफर शुरू किया था. मराठी व्याकरण को आम लोगों की भाषा बनाना उनका मिशन रहा है. हाल ही में 100 वर्ष की हुईं यास्मीन शेख न केवल एक शिक्षिका हैं, बल्कि मराठी भाषा की एक जीवंत विरासत भी हैं, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी इस भाषा के सौंदर्य, शुद्धता और संरचना को समर्पित कर दी.
उनकी कहानी एक साधारण यहूदी परिवार की बेटी जेरुशा रुबेन से मराठी व्याकरण की संरक्षिका यास्मीन शेख बनने की है. यह एक ऐसी यात्रा है जिसमें भाषाई प्रेम, सामाजिक सीमाओं को तोड़ने का साहस, और सच्चे समर्पण की मिसाल देखने को मिलती है.
2011 की जनगणना के दौरान जब सर्वेक्षक उनके घर पहुँचे, तो उन्होंने बिना पूछे ही 'मातृभाषा' के कॉलम में 'उर्दू' दर्ज कर दिया. इस पर उन्होंने हँसते हुए टोका, "मेरी मातृभाषा मराठी है !" शेख आज भी इस घटना को मुस्कुराते हुए याद करती हैं. उनका नाम और सरनेम—‘यास्मीन शेख’—अक्सर लोगों को भ्रम में डाल देता है, लेकिन मराठी भाषा के प्रति उनका समर्पण किसी संदेह की गुंजाइश नहीं छोड़ता.
21 जून 1925 की रात नासिक में जन्मी जेरुशा रुबेन मराठी बोलने वाले यहूदी परिवार की दूसरी संतान थीं. घर में किताबें, पत्रिकाएं और संगीत का वातावरण था. उनकी माँ का निधन तब हुआ जब वे केवल 9 साल की थीं. इसके बाद किताबें ही उनकी सच्ची साथी बन गईं। पिता को कुमार गंधर्व जैसे गायकों का शौक था और संगीत के साथ-साथ साहित्य ने भी उनके मन में शब्दों के लिए विशेष लगाव जगाया।
पंढरपुर के मराठी स्कूल में शिक्षक टालेकर ने उन्हें व्याकरण का रस चखाया. एसपी कॉलेज, पुणे में पढ़ाई के दौरान एसएम मेट और केएन वाटवे जैसे विद्वानों से मार्गदर्शन मिला, जिससे भाषा विज्ञान और व्याकरण में उनकी रुचि गहराई से विकसित हुई.
1949 में उन्होंने नासिक के एक थिएटर मैनेजर अज़ीज़ अहमद इब्राहिम शेख से विवाह किया. यह अंतर्धार्मिक विवाह उस समय सामाजिक मान्यताओं को चुनौती देने वाला था. जेरुशा ने अपना नाम बदला—अब वे यास्मीन शेख बन चुकी थीं, लेकिन धर्म नहीं बदला.वे दृढ़ता से कहती हैं, “मैं केवल एक ही धर्म मानती हूँ – मानवता का धर्म.”
मुंबई के एसआईईएस कॉलेज में मराठी पढ़ाने के शुरुआती वर्षों में छात्रों को अक्सर भ्रम होता.वे पूछते, "क्या यह मराठी की क्लास है ?" . एक मुस्लिम नाम वाली शिक्षिका को मराठी व्याकरण पढ़ाते देख वे हैरान रह जाते. लेकिन एक बार पढ़ाई शुरू होती, तो वही छात्र उनके मुरीद बन जाते. वे कहती हैं,"भाषा का कोई धर्म नहीं होता. "जिस देश में आप पले-बढ़े, वही भाषा आपकी मातृभाषा बन जाती है."
1960 में जब महाराष्ट्र राज्य का गठन हुआ, तो भाषा के मानकीकरण के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाई गई. यास्मीन शेख भी इस समिति की सदस्य बनीं. समिति ने मराठी के लिए नए नियमों का एक सेट तैयार किया—1962 में 14 नियम और 1972 में 4 और जोड़कर कुल 18 नियम निर्धारित किए गए.
इन नियमों को सरल और जनसुलभ बनाने के लिए शेख ने एक पुस्तक लिखी, जिससे छात्र, लेखक और आम नागरिक भी व्याकरण को समझ सके. उनका योगदान इतना प्रभावशाली था कि आज भी कई शिक्षक और छात्र उनकी उस पुस्तक को मराठी व्याकरण का आधार मानते हैं.
यास्मीन शेख को किसी लेख में गलती दिख जाए, तो चैन नहीं आता. गलती उन्हें ‘चावल की थाली में कंकड़’ जैसी लगती है. उन्होंने 15 वर्षों तक 'अंतर्नाद' पत्रिका के लिए प्रूफरीडिंग की और देश-विदेश से व्याकरण से जुड़े सवालों के उत्तर दिए. उनकी सतर्कता आज भी कम नहीं हुई है.
रिटायरमेंट के बाद उन्होंने स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ एडमिनिस्ट्रेटिव करियर्स (SIAC), मुंबई में IAS छात्रों को मराठी व्याकरण सिखाना शुरू किया. कई छात्र, जो आज बड़े प्रशासनिक पदों पर हैं, उन्हें अपना मार्गदर्शक मानते हैं.
2007 में प्रकाशित हुआ उनका मराठी शब्दलेखन कोष, जो मराठी वर्तनी और शब्दों के प्रयोग को मानकीकृत करता है. 2015 में इसका संशोधित संस्करण आया. इसके अलावा उन्होंने फंक्शनल ग्रामर नामक पुस्तक में योगदान दिया और सरकारी दस्तावेज़ों में मराठी के सही उपयोग के लिए 'मराठी लेखन मार्गदर्शक' तैयार किया.
वह कहती हैं, “मैं नहीं कह सकती कि मराठी अमृत जितनी मीठी है, क्योंकि मैंने कभी अमृत चखा नहीं, लेकिन मेरे लिए मराठी सुंदर, समृद्ध और अर्थपूर्ण है.” आज की युवा पीढ़ी के हिंदी और अंग्रेज़ी के प्रभाव में आने पर वह चिंता ज़रूर करती हैं, लेकिन उनका समाधान भी स्पष्ट है—"हमें अपनी मातृभाषा की रक्षा करनी चाहिए."
आज 100 वर्ष की उम्र में भी वह पूर्णतः सक्रिय हैं. हाथ से लिखना उन्हें अब भी पसंद है. किताबें पढ़ना, रिसर्च करना, और व्याकरण से जुड़े प्रश्नों का उत्तर देना उनकी दिनचर्या का हिस्सा है. वे कहती हैं, "मैं वृद्ध लोगों से कहती हूँ—खुश रहो, व्यस्त रहो और सकारात्मक रहो।" उनके परिवार वाले उन्हें प्यार से "लाफिंग जेरुशा" कहते थे, और वह आज भी उसी उत्साह से भरी हुई हैं.
पिछले हफ्ते अखिल भारतीय मराठी साहित्य महामंडल ने उन्हें उनके जन्मदिन पर सम्मानित किया। अध्यक्ष मिलिंद जोशी ने कहा, “शेख ने व्याकरण को कविता की तरह पढ़ाया। समाज में भाषाई चेतना और संस्कृति की समझ का संचार करने में उनका योगदान अतुलनीय है.”
यास्मीन शेख की कहानी इस बात का प्रमाण है कि भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक विरासत होती है. उन्होंने जिस प्रकार मराठी व्याकरण को न केवल संरक्षित किया, बल्कि उसे जनमानस तक पहुँचाया—वह प्रेरणादायक है.
उनकी शतायु यात्रा हमें याद दिलाती है कि अगर मन में भाषा के लिए सच्चा प्रेम हो, तो उम्र कभी बाधा नहीं बनती. यास्मीन शेख, एक यहूदी जन्मी मराठी शिक्षिका, अपने जीवन से यह सिखा गईं कि भाषा की सेवा, किसी धर्म, जाति या नाम की मोहताज नहीं होती—केवल समर्पण और प्रेम चाहिए.
और जाते-जाते, उनके हस्ताक्षर की पंक्ति को याद रखना चाहिए:
"आपल्या मातृभाषेवर प्रेम करा!"
(अपनी मातृभाषा से प्रेम करो!)