ममता शर्मा
जब सूरज की पहली किरण घर की दीवार पर पड़ती है, तब हमारे गांव की नींद नहीं खुलती, बल्कि डर के मारे आंखें खुल जाती हैं — कि आज फिर वही उबड़-खाबड़, धूल और कीचड़ भरा रास्ता पार करना है.यह रास्ता सिर्फ दूरी तय करने का ज़रिया नहीं, बल्कि हर दिन का एक कठिन इम्तिहान है — हिम्मत, उम्मीद और सहनशीलता का.
राजस्थान के बीकानेर ज़िले के लूणकरणसर क्षेत्र का राजपुरिया गांव, आज भी पक्की सड़क की बुनियादी सुविधा से वंचित है.इस गांव की ज़मीन भले ही उपजाऊ हो, लेकिन यहाँ की लड़कियों के सपनों को आज भी कच्चे रास्तों की धूल ने ढँक रखा है.स्कूल, अस्पताल, बाज़ार, बस स्टैंड — हर जगह पहुंचने के लिए जो रास्ता है, वह सिर्फ मिट्टी, गड्ढे और कीचड़ से भरा एक थकाऊ सफ़र है, जो हर मौसम में मुश्किलों से भरा रहता है.
गांव की बुज़ुर्ग मीणा देवी, जिनकी उम्र 72वर्ष है, गठिया से पीड़ित हैं.वह बताती हैं कि उन्हें एक बार शहर के अस्पताल जाना पड़ा, जो गांव से 8किमी दूर है.वहां पहुंचने में उन्हें तीन घंटे लग गए.दर्द और थकावट से उनका शरीर टूट गया.वे कहती हैं, “अब मैं कहीं नहीं जाती, जो होगा यहीं होगा.”
वहीं 61वर्षीय किसान तोलाराम कहते हैं, “कभी-कभी लगता है कि हम दुनिया से कटे हुए हैं.हमने तो अपनी ज़िंदगी किसी तरह गुजार दी, लेकिन नई पीढ़ी का क्या?”राजपुरिया की किशोरियों के लिए स्कूल तक का रास्ता एक दिनचर्या नहीं, बल्कि संघर्ष है.बारिश में फिसलन और कीचड़ के कारण कई बार चोटें लगती हैं और आत्मविश्वास टूट जाता है.
17 वर्षीय प्रियंका बताती हैं, “एक बार मेरी सहेली कीचड़ में गिर गई। उसे चोट आई, कपड़े और कॉपी सब खराब हो गए। उसने स्कूल जाना छोड़ दिया.”वहीं भारती, जो 11वीं में पढ़ती है, कहती हैं, “जब हम देर शाम स्कूल से लौटते हैं, तो घरवाले डरते हैं.रास्ता सुनसान होता है, इसलिए पाबंदियां लग जाती हैं.”
22 वर्षीय सरिता का दर्द और भी गहरा है.वह कहती है, “जब कॉलेज में लड़कियां अपने गांव की अच्छी सड़कों की बातें करती हैं, तो मैं चुप रह जाती हूं.मेरे सपनों और मेरी मंज़िल के बीच जो दूरी है, वो सिर्फ किलोमीटर की नहीं है, बल्कि सोच की है.”
सामाजिक कार्यकर्ता सुखराम बताते हैं कि राजस्थान के कई गांवों में, खासकर लूणकरणसर जैसे क्षेत्रों में, स्कूल तक पहुंचने के लिए बच्चों को रोज़ाना 5-10किमी पैदल चलना पड़ता है.सुरक्षा की चिंता के चलते माता-पिता खासकर बेटियों को स्कूल भेजने में झिझकते हैं.“जब रास्ता ही सुरक्षित नहीं है, तो बेटियों के सपनों को कौन पंख देगा?” वे सवाल करते हैं.
अब राजपुरिया की बेटियाँ चुप नहीं बैठ रहीं.वे चाहती हैं कि गांव में सिर्फ स्कूल ही न हों, बल्कि वहां तक एक पक्की और सुरक्षित सड़क भी हो.वे समझ चुकी हैं कि सड़क न होने की समस्या सिर्फ ईंट और बजरी की नहीं, बल्कि उस सोच की है, जिसने लड़कियों की आज़ादी और बराबरी को कभी प्राथमिकता में रखा ही नहीं.
वे कहती हैं कि “हमें केवल शिक्षा का अधिकार नहीं चाहिए, बल्कि इज्जत से स्कूल तक जाने का रास्ता भी चाहिए.” उनका यह आग्रह सिर्फ विकास की मांग नहीं है, यह बराबरी की मांग है — एक ऐसी सोच की, जो उन्हें नागरिक मानकर जीने का हक़ दे.
राजपुरिया की लड़कियों का यह संघर्ष एक छोटी सी सड़क से शुरू होता है, लेकिन बात बहुत बड़ी है.यह केवल गांव में पक्की सड़क बनवाने की लड़ाई नहीं, बल्कि लड़कियों की शिक्षा, सुरक्षा और स्वाभिमान की लड़ाई है.
क्योंकि जब तक पक्की सड़क नहीं होगी, तब तक सपनों तक पहुंचना मुश्किल होगा.और जब तक सोच पक्की नहीं होगी, तब तक समाज बदलना मुश्किल होगा.