दहेज जैसी सामाजिक बुराई ने भारतीय समाज की जड़ों को भीतर तक खोखला कर दिया है. यह बीमारी इतनी गहराई तक फैली है कि इसका मापदंड अब तक तय नहीं हो पाया. समाज में समानता, न्याय और बंधुत्व की लड़ाई लड़ने वाले लोगों ने इस दिशा में काफी प्रयास किए, लेकिन बदलाव केवल ऊपरी सतह तक ही सीमित रह गया, जमीनी स्तर पर अभी भी यह प्रथा लोगों की सोच और व्यवस्था का हिस्सा बनी हुई है.
दहेज: एक पीड़ादायक परंपरा
दहेज प्रथा ने एक पिता के कंधों पर इतना बोझ डाल दिया है कि वह अपनी पूरी उम्र की कमाई केवल अपनी बेटी की शादी में झोंक देता है, फिर भी समाज की ‘मांग’ कभी पूरी नहीं होती. यह कहानी लगभग हर भारतीय परिवार की है, जहां शादी नामक संस्था एक सामाजिक सौदे में बदल गई है.
दहेज के कारण आत्महत्या के मामलों की सूची भी लंबी है. अहमदाबाद की आयशा, जिसने 23 वर्ष की उम्र में आत्महत्या कर ली, उसका वीडियो आज भी दिल दहला देता है. यही नहीं, एचआर प्रोफेशनल अनुराधा, जिसने गुड़गांव में शादी के बाद 10 लाख नकद और गाड़ी दहेज में देने के बावजूद उत्पीड़न झेलते हुए आत्महत्या कर ली – ये घटनाएं हमें झकझोर देती हैं.
कानून और आंकड़े
भारत में दहेज निषेध अधिनियम 1961 और बाद में संशोधित अधिनियम 2018 जैसे कानून लागू किए गए हैं, लेकिन इनका असर सीमित रहा है. टाइम्स ऑफ इंडिया की जनवरी 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, 2024 में ही दहेज उत्पीड़न की 4,383 शिकायतें दर्ज की गईं, जिनमें से 292 दहेज हत्याएं थीं. यह आंकड़ा केवल पंजीकृत मामलों का है – असल संख्या कहीं अधिक हो सकती है.
उत्तर-पूर्व भारत: एक सशक्त उदाहरण
इस घिनौनी प्रथा से अलग, भारत का उत्तर-पूर्वी क्षेत्र एक ऐसी मिसाल पेश करता है जहां दहेज का नाम तक नहीं लिया जाता. यहां के समाज में महिलाओं का सामाजिक और आर्थिक योगदान न केवल स्वीकार्य है, बल्कि उसका उत्सव मनाया जाता है.
मेघालय: मातृसत्तात्मक संस्कृति की मिसाल
मेघालय की फ्रेंसिला एम., जो गारो जनजाति से हैं, बताती हैं कि यहां लड़का शादी के बाद लड़की के घर आता है. विवाह के समय बुनियादी सामान जैसे अलमारी, फ्रिज, बाइक आदि उपहार स्वरूप दूल्हा लेकर आता है. कुछ परिवार वधू पक्ष को आर्थिक सहायता भी देते हैं ताकि नवविवाहित जोड़ा एक नए जीवन की शुरुआत कर सके.
त्रिपुरा, नागालैंड और असम: विविधता में एकता
त्रिपुरा की अलीसा बताती हैं कि उनके समाज में लड़की के परिवार द्वारा केवल दो प्लेटें, दो गिलास और एक शीशा दिया जाता है, जबकि दूल्हा रिंगाई (पारंपरिक पोशाक), आभूषण और मंगलसूत्र लेकर आता है. नागालैंड में ‘ब्राइड प्राइस’ की परंपरा है जहां दूल्हा पक्ष लड़की के परिवार को सम्मानपूर्वक कुछ भेंट देता है। मिथुन नामक पशु पहले इस आदान-प्रदान का प्रतीक हुआ करता था.
असम की युवा उद्यमी सिखा रानी दास बताती हैं कि वहां दहेज की कोई परंपरा नहीं है, और महिलाओं को पुरुषों के बराबर दर्जा प्राप्त है. घर के नेमप्लेट पर पहले महिला का नाम लिखा जाता है। यहां के पुरुष घरेलू कामों में बराबर भाग लेते हैं, चाहे उनका पेशा कुछ भी हो.
डॉ. नईम राजा: सादगी से विवाह की प्रेरणा
गुवाहाटी के प्रसिद्ध पेडियाट्रिक सर्जन डॉ. नईम राजा बताते हैं कि असम में मुस्लिम समुदाय में ‘मेहर’ का चलन है, न कि दहेज का। उन्होंने स्वयं अपनी पत्नी को 7 लाख रुपये मेहर में दिए, जो दोनों परिवारों की सहमति से तय हुआ.
NCW और ग्राउंड डेटा: सत्य का आईना
राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) और नॉर्थ ईस्ट नेटवर्क के आंकड़ों के अनुसार, उत्तर-पूर्व में दहेज से जुड़ी घटनाएं नाममात्र हैं. असम में पिछले 10 वर्षों में 10,423 महिला उत्पीड़न के मामले दर्ज हुए, लेकिन दहेज का एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ.
सबक लेने का समय
उत्तर-पूर्व भारत की संस्कृति और दृष्टिकोण पूरे देश के लिए उदाहरण है. वहां महिलाएं सामाजिक जीवन के केंद्र में हैं और पुरुषों की सोच में बराबरी का भाव है. दहेज प्रथा से जूझ रहे राज्यों को उत्तर-पूर्व से प्रेरणा लेकर अपने सामाजिक ढांचे में बदलाव लाने की जरूरत है.
दहेज न केवल सामाजिक अपराध है, बल्कि यह महिलाओं के अस्तित्व, आत्मसम्मान और अधिकारों के खिलाफ एक साजिश है.
अंत में कुछ पंक्तियाँ:
बिच सभा में लेन-देन, लगता है व्यापार सा,
अब शादी का मंडप भी, लगता है बाज़ार सा।
अब वक्त आ गया है कि हम दहेज के खिलाफ केवल बातें न करें, बल्कि उत्तर-पूर्व की तरह इसे पूरी तरह नकारें और भारत को वास्तव में दहेज-मुक्त और सशक्त राष्ट्र बनाएं.
डॉ. रेशमा रहमान (सहायक प्रोफेसर व शोधकर्ता), यूएसटीएम