अदनान क़मर
केंद्र सरकार द्वारा आगामी राष्ट्रीय जनगणना में जातिगत विवरण शामिल करने का निर्णय भारत की सामाजिक डेटा संग्रह प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत देता है. यह 1931 के बाद पहली बार होगा जब जातियों की व्यापक गिनती की जाएगी. यह कदम विशेष रूप से पसमांदा मुसलमानों — जिनमें पिछड़े, दलित और आदिवासी मुस्लिम समुदाय शामिल हैं — के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो लंबे समय से सामाजिक-आर्थिक हाशिए पर हैं और जिनका प्रतिनिधित्व हमेशा से कम रहा है.
तेलंगाना की जातिगत सर्वे रिपोर्ट, जिसमें यह सामने आया कि राज्य की लगभग 80% मुस्लिम आबादी पसमांदा वर्ग से आती है, इस समावेशी डेटा की आवश्यकता को और भी स्पष्ट करती है. सभी समुदायों में विस्तृत जातिगत जानकारी एकत्रित करके राष्ट्रीय जनगणना अधिक लक्षित सकारात्मक कार्रवाई और सामाजिक न्याय के एक समावेशी दृष्टिकोण की नींव रख सकती है, जिससे हाशिए पर खड़े वर्गों के साथ होने वाले भेदभाव को संबोधित किया जा सके.
पसमांदा मुसलमानों का संघर्ष अक्सर मुस्लिम पहचान के एकसमान (homogeneous) चित्रण की वजह से उपेक्षित हो जाता है. भारत में मुस्लिम समुदाय को अक्सर एक एकल, एकरूप समूह के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिससे समुदाय के भीतर मौजूद जातिगत असमानताएँ और सामाजिक पदानुक्रम (hierarchies) अदृश्य हो जाते हैं.
नतीजतन, मुस्लिमों के हाशिए पर होने को लेकर बनाई गई नीतियाँ और विमर्श पसमांदा मुसलमानों द्वारा झेली जाने वाली विशेष बहिष्करण और गरीबी की समस्याओं को समझने में विफल रहते हैं.उनकी विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक चुनौतियाँ और माँगें दरकिनार कर दी जाती हैं, जिससे उनकी सार्वजनिक चर्चाओं और राज्य की कल्याणकारी योजनाओं में मौजूदगी और कमज़ोर हो जाती है.
राष्ट्रीय जाति जनगणना का उद्देश्य मुस्लिम समुदाय के भीतर जातिगत भिन्नताओं को मान्यता देना है, जिससे पसमांदा मुसलमानों के विशिष्ट संघर्षों को आखिरकार वह स्वीकृति मिल सके जिसकी उन्हें लंबे समय से प्रतीक्षा थी.
2006 की सच्चर समिति की रिपोर्ट में मुस्लिमों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को उजागर किया गया था, जिसमें यह सामने आया कि कई पसमांदा उप-समूह शिक्षा, रोज़गार और स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच के मामले में अनुसूचित जातियों से भी बदतर स्थिति में हैं.
मुस्लिम समुदाय के भीतर विस्तृत जातिगत डेटा इकट्ठा करके यह जनगणना ऐसी नीतियों की नींव रख सकती है जो पसमांदा समुदाय के बहुस्तरीय वंचनाओं को प्रभावी रूप से संबोधित कर सकें.
ऐतिहासिक रूप से, पसमांदा मुसलमानों को औपनिवेशिक दस्तावेजों में स्पष्ट रूप से पहचाना गया था, जहाँ ब्रिटिश प्रशासन ने हिंदुओं की तरह ही मुस्लिमों के भीतर की जातिगत विभाजन को भी बारीकी से दर्ज किया था.
1901 और 1931 की जनगणनाओं में मुस्लिम जातियों को अशराफ, अजलाफ और अर्शल श्रेणियों में बाँटा गया था, जिससे यह स्पष्ट था कि मुस्लिम समाज में भी ऊँच-नीच और अस्पृश्यता मौजूद है.
लेकिन स्वतंत्रता के बाद भारत ने मुस्लिम समुदाय को एक एकरूप अल्पसंख्यक के रूप में देखना शुरू कर दिया, जिससे समुदाय के भीतर की जातिगत परतें नीति-निर्माण और सार्वजनिक विमर्श से बाहर हो गईं.
1950 में दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति आरक्षण से वंचित कर दिया गया. यह बदलाव न केवल पसमांदाओं को कल्याणकारी योजनाओं और आरक्षण से दूर ले गया, बल्कि इससे मुस्लिम समुदाय के सवर्ण और प्रभावशाली वर्गों को प्रतिनिधित्व और लाभों पर एकाधिकार करने का अवसर भी मिल गया.
जातिगत जनगणना को पूर्ण पारदर्शिता और ईमानदारी के साथ किया जाना चाहिए ताकि यह प्रणालीगत असमानताओं को प्रभावी रूप से उजागर कर सके. यदि सामाजिक कलंक या राजनीतिक दबाव के कारण जातिगत आंकड़ों को कम करके बताया गया या छिपाया गया, तो इस पूरी कवायद का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा.
marginalized समुदायों, विशेषकर पसमांदा मुसलमानों की असली सामाजिक-आर्थिक स्थिति को जानने के लिए सटीक और सच्चा डेटा अत्यंत आवश्यक है. मुस्लिम समुदाय के भीतर जातिगत आंकड़ों को अलग करके दर्ज करने से यह जनगणना ऐसी नीतियों के लिए एक सशक्त आधार प्रदान कर सकती है जो पसमांदा समुदाय को केवल एक धार्मिक पहचान के हिस्से के रूप में नहीं, बल्कि एक विशिष्ट सामाजिक समूह के रूप में मान्यता दें, जिसकी अपनी न्यायोचित माँगें और अधिकार हैं.
(अदनान क़मर वकील, वक्ता, चुनाव विश्लेषक और ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़, तेलंगाना के अध्यक्ष हैं)