पारिवारिक रिश्ते और सामाजिक संबंध

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 28-08-2025
Family relationships and social connections
Family relationships and social connections

 

dफरहाना मन्नान

दिन के अंत में जब हम थके-हारे घर लौटते हैं, तो परिवार के साथ बिताया कुछ शांत पल हमारी सारी थकान और दिन भर की उथल-पुथल मिटा देता है. एक सिरहाने की तरह कुछ भरोसेमंद शब्द हमें अगले दिन की उलझनों से लड़ने की ताक़त देते हैं. हममें से ज़्यादातर लोग इस अनुभव को जानते हैं, लेकिन क्या हम सच में इसे पूरी तरह समझते और उसका मूल्य आंकते हैं?

आज जब हम परिवार और समाज दोनों के रिश्तों की बात करते हैं, तो सवाल उठता है कि हम इंसान होने के नाते इन रिश्तों के साथ कहां खड़े हैं? क्या हम सच में उतने ही जुड़े हुए हैं जितना मानते हैं?

आधुनिक समाज में तकनीक, शहरीकरण और वैश्वीकरण ने हमारे सामाजिक बंधनों की प्रकृति को बदल दिया है. कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमने रिश्तों की गहराई को खो दिया है, और बदले में सतही संपर्क पा लिए हैं.

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1997 के एक अध्ययन में सामने आया था कि मजबूत सामाजिक संबंध हिंसा और अपराध को घटा सकते हैं, जबकि बढ़ता शहरीकरण लोगों को एक-दूसरे से दूर कर देता है.

ग्लोबल सोशल ट्रेंड्स की 2025 की एक रिपोर्ट बताती है कि 2015 से अब तक सोशल मीडिया पर बातचीत बढ़ी है, लेकिन असली, आमने-सामने बातचीत में 15% की गिरावट आई है. यानी रिश्तों की संख्या भले बढ़ रही हो, उनकी गहराई और भावनात्मक जुड़ाव कम हो गया है.

क्या हम इस बदलाव को महसूस कर रहे हैं? और अगर हां, तो क्या हम इसे बेहतर दिशा में मोड़ने के लिए कुछ कर रहे हैं? बचपन से ही जो सामाजिक बंधन हम बनाते हैं—माता-पिता, शिक्षक, दोस्त—वो हमारे नैतिक विकास की नींव रखते हैं.

2002 के एक अध्ययन के मुताबिक, जिन बच्चों का अपने माता-पिता के साथ सहानुभूतिपूर्ण संबंध होता है, वे बड़े होकर ज़्यादा ईमानदार और जिम्मेदार नागरिक बनते हैं। स्कूल में शिक्षक का व्यवहार भी बच्चों की नैतिकता पर गहरा प्रभाव डालता है.

दोस्ती की भूमिका भी उतनी ही अहम है,एक अच्छा दोस्त न सिर्फ सामाजिक संवाद में सुधार लाता है बल्कि भावनात्मक सहारा भी बनता है.आज डिजिटल युग में हमारे रिश्ते स्क्रीन तक सिमट गए हैं.

हम बात तो बहुत करते हैं, लेकिन क्या उन बातों में भावनाओं की गर्माहट बची है? क्या हम अब भी भरोसेमंद और गहरे दोस्त बना पा रहे हैं? क्या हमें अब भी वह भावनात्मक संबल मिलता है जो हमें किसी मुश्किल वक्त में संभाल सके?

मजबूत सामाजिक बंधन न सिर्फ भावनात्मक सहारा देते हैं, बल्कि समाज में अपराध, अकेलापन और अवसाद को भी कम करने में मदद करते हैं. समाज के भीतर जब भरोसा और सहयोग होता है, तो लोग एक-दूसरे के लिए खड़े होते हैं, न कि एक-दूसरे से डरते हैं.

यहां अबुल कासिम फ़ज़लुल हक़ का एक बयान याद आता है,अपने बेटे की मौत के बाद उन्होंने कहा, "मुझे न्याय नहीं चाहिए, सद्बुद्धि चाहिए." यह एक गहरे विश्वासघात की भावना थी, जो राज्य या व्यवस्था से नहीं, बल्कि सामाजिक बंधनों की कमी से उपजी थी.

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अब सवाल है कि क्या पुरानी चीज़ों को थामे रहना ही रास्ता है? या हमें अतीत की अच्छी सीख, वर्तमान की ज़रूरतें और भविष्य की स्थिरता,इन तीनों के बीच संतुलन बनाना होगा?

आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में एकल परिवारों की संख्या बढ़ रही है, और उसके साथ ही पीढ़ियों के बीच दूरी भी. बच्चों को दादा-दादी से वो संस्कार, कहानियाँ और अनुभव नहीं मिल पा रहे, जो संस्कृति की निरंतरता बनाए रखते हैं.

एकल परिवारों में माता-पिता के पास समय कम है, और बच्चे डिजिटल दुनिया में अकेले घूमते रहते हैं.समस्या यह है कि हम अक्सर समाधान खोजते हुए नई समस्याएँ खड़ी कर देते हैं. तकनीक समाधान देती है, लेकिन क्या वह भावनात्मक जुड़ाव और सहानुभूति भी देती है? शायद नहीं.

डिजिटल रिश्तों और आमने-सामने संवाद के बीच का अंतर अब स्पष्ट होता जा रहा है. हमें एक को त्यागकर दूसरे को अपनाने की ज़रूरत नहीं, बल्कि संतुलन बनाने की ज़रूरत है.

रिश्ते बनते हैं—हर दिन, हर बातचीत से, हर मुलाकात से. लेकिन आज के समाज में इन रिश्तों की स्थिरता और शांति सिर्फ़ एक तरफ़ की ज़िम्मेदारी नहीं हो सकती. राज्य की भूमिका ज़रूरी है, लेकिन समाज और हम सभी की भागीदारी भी उतनी ही अहम है.

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शांतिपूर्ण समाज की नींव मजबूत रिश्तों पर ही टिकी होती है और यह तभी संभव है जब हम भावनाओं, संवाद और सह-अस्तित्व को प्राथमिकता दें. तकनीक को सहारा बनाएं, विकल्प नहीं। हमें अतीत से सीखते हुए वर्तमान को संवेदनशील बनाना होगा, ताकि भविष्य ज़्यादा मानवीय, टिकाऊ और जुड़ा हुआ हो.क्योंकि आखिर में, इंसानी रिश्तों का कोई विकल्प नहीं है.

( फरहाना मन्नान,संस्थापक और सीईओ, चाइल्डहुड; शिक्षा विशेषज्ञ और शोधकर्ता)