कुदरत का कहर और स्थानीय मदद

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 25-08-2025
Nature's fury and local help
Nature's fury and local help

 

fहरजिंदर

अगस्त की 14 तारीख को जब पूरा देश स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारियां कर रहा था. देश के पर्वतीय इलाकों में कुछ अलग ही हालात थे. तकरीबन सभी जगह बहुत तेज बारिश हो रही थी और कुछ जगहों से बादल फटने जैसे हादसों की खबरें भी आ रहीं थीं.

ठीक इसी दिन कश्मीर के किश्तवाड़ में भी एक बादल फटा. यह बादल एक ऐसे इलाके में फटा था जहां मछेल माता मंदिर जाने का रास्ता था. हर साल अगस्त महीने में लोग मछेल माता मंदिर की यात्रा पर बड़ी संख्या में जाते हैं. यह दुरूह रास्ता लोगों को पैदल ही पार करना होता है.

इसी रास्ते में जल धाराओं और नदियों के आस-पास यात्रियों के लिए लंगर और विश्राम का आयोजन भी होता है. और यह भी हम जानते हैं कि बादल जब फटता है तो इन्हीं जगहों के आस-पास सबसे ज्यादा तबाही होती है.

उस दिन किश्तवाड़ के चशोती में जब बादल फटा तो उसका बहाव आस-पास की कईं चीजें, बड़े-बड़े पेड़, मकान वगैरह को लेकर आगे बढ़ा तो उसके चपेट में यात्रा का एक ऐसा पड़ाव भी आ गया.

वहां जो मकान थे उनमें भी ज्यादातर या तो इसी बहाव में बह गए या खंडहर हो गए. यात्रियों की संख्या काफी थी, इसलिए वही इसके सबसे पहले शिकार बने.ऐसे में वहां फंस गए लोगों को बचाना और समय रहते घायलों का इलाज करना सबसे बड़ी चुनौती होती है.

e

इस काम में सबसे पहले जो लोग आए वे थे स्थानीय गांव वाले. हालांकि स्थानीय बसावट को भी इसकी वजह से काफी नुकसान हुआ था. फिर भी वे मदद के लिए आगे आए. उन्होंने फंसे हुए लोगों का निकाला. उनके लिए भोजन का इंतजाम किया. घायलों की वे जितनी मदद कर सकते थे उन्होंने की.

जब तक ये सब चल रहा था चिनाब नदी के घाटी क्षेत्र में काम करने वाले एक एनजीओ अबाबील के कार्यकर्ता डोडा और किश्तवाड़ से निकल चुके थे. उन्होंने घायलों को प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध कराई. जो ज्यादा घायल थे उन्हें एंबुलेंस से पास के अस्पतालों में पहंुचाया.

इस बीच एक और स्थानीय एनजीओ तारिक मेमोरियल ट्रस्ट भी सक्रिय हो चुका था.इसके बाद जब 17वीं राष्ट्रीय राईफल और स्थानीय पुलिस के लोग पंहुचे बहुत सा प्राथमिक काम हो चुका था. कुछ समय बाद ही सेना, एसडीआएफ और एनडीआरफ के जवान भी पहंुच गए.

उनके लिए वहां एक ज्यादा बड़ी चुनौती तैयार थी. मलबे की नीचे फंस गए लोगों का निकालना. अबाबील एनजीओ इसमें भी उनकी मदद कर रहा था. हालांकि यह सब ज्यादातर शव ही थे. अनुमान है कि इस हादसे में 70 लोगों की जान गई.

सुरक्षा बलों ने यह सब काम कैसे किया इसके बारे में तो अखबारों में काफी कुछ छपा है. टीवी मीडिया में भी इसका काफी कवरेज हुआ है. लेकिन इस काम में लगने वाले स्थानीय लोगों और अबाबील जैसे स्वयं सेवी संगठनों की अक्सर चर्चा नहीं होती, जबकि कईं बार ऐसे लोग और संगठन ज्यादा बड़ी भूमिका निभाते हैं.

कश्मीर में 2014 में एक बड़ी बाढ़ आई थी. सबसे ज्यादा नुकसान चिनाब घाटी क्षेत्र में हुआ था. उसके बाद एक ऐसा स्वयं सेवी संगठन बनाने की बात बहुत से लोगों के मन में आई जो स्थानीय संसाधनों से ही लोगों की मदद कर सके.

s

2015 में एक स्थानीय वकील हसन बाबर नेहरू ने इस सोच को अबाबील एनजीओ के रूप में जमीन पर उतारा. शुरुआत डोडा से हुई . जल्द ही किश्तवाड़ और कईं दूसरी जगहों पर इसकी शाखाएं बन गईं.

बाद में इस संगठन ने कोविड लाॅकडाउन के दौरान भी काफी काम किया. चशौती हादसे ने एक बाद फिर बता दिया कि स्थानीय स्तर की ऐसी कोशिशें कितनी जरूरी हैं. 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

सभी तस्वीरें एआई से बनी हुई हैं.

ALSO READ जटिल समस्या और कुछ सरल प्रतीक