महमूद हसन, आईएएस
उत्तराखंड के शांत, सुरम्य और पर्यटकों में लोकप्रिय धराली गाँव में हाल ही में आई जलवायु आपदा ने न केवल स्थानीय समुदाय को तहस-नहस किया बल्कि पूरे देश में चिंता की लहर दौड़ा दी.सोशल मीडिया पर प्रसारित हुए भयावह दृश्य दिखाते हैं कि कैसे एक साधारण सी जलधारा देखते ही देखते रौद्र जलप्रलय में तब्दील हो गई और कुछ ही पलों में पूरे गाँव को 40 से 60 फीट तक कीचड़ और मलबे में दबा दिया.मुखबा नामक निकटवर्ती गाँव के ऊपरी हिस्सों से जब लोगों ने बाढ़ को आते देखा, तो वे सीटी बजाकर लोगों को अलर्ट करने लगे और जान बचाने के लिए इधर-उधर भागते रहे.
इस भीषण त्रासदी की शुरुआत खीरगंगा धारा के ऊपरी क्षेत्र में बनी एक झील के फटने से हुई, जो एक श्रृंखलाबद्ध प्रक्रिया बन गई.भूवैज्ञानिकों के प्रारंभिक विश्लेषण और इसरो के वैज्ञानिकों के परामर्श से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार, यह घटना भूस्खलन से उत्पन्न झील के अचानक टूटने से शुरू हुई, जिसने ऊपर की कई अन्य झीलों को भी प्रभावित किया.
यह पूरी प्रक्रिया हिमालयी क्षेत्रों में बर्फ के तीव्र गति से पिघलने और ग्लेशियरों के मुहाने पर झीलों के निर्माण का परिणाम है.इन झीलों के अचानक फटने की घटनाएँ, जिन्हें ‘ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड’ (GLOF) कहा जाता है, अब हिमालयी क्षेत्रों में आम होती जा रही हैं.जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापवृद्धि इन घटनाओं की आवृत्ति और गंभीरता को लगातार बढ़ा रहे हैं.
धराली गाँव, समुद्र तल से लगभग 2700 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और खीरगंगा नदी के पुराने, अब सूखे जलमार्ग पर बसा हुआ है.यही कारण है कि जलप्रवाह ने सीधे गाँव को अपनी चपेट में ले लिया.
इस त्रासदी में सेना का एक शिविर बह गया और कई लोग मारे गए, जबकि बड़ी संख्या में लोग अब भी लापता हैं.पिछले दो दशकों में राज्य में तेजी से हुए अनियंत्रित निर्माण कार्यों ने जलवायु संबंधी घटनाओं के प्रभाव को और अधिक भयावह बना दिया है.
धराली केवल एक गाँव नहीं है, बल्कि यह उस बड़े पारिस्थितिकीय तंत्र का हिस्सा है, जो भागीरथी पारिस्थितिक-संवेदनशील क्षेत्र में स्थित है.इसी क्षेत्र में प्रस्तावित राष्ट्रीय राजमार्ग-34 के निर्माण के कारण 6000 से अधिक हिमालयी देवदार के पेड़ों को काटने की योजना है, जिससे भूस्खलन का खतरा और अधिक बढ़ सकता है.
विशेषज्ञों का मानना है कि पेड़ों की कटाई ढलानों को अस्थिर बना देती है, जिससे न केवल जलप्रलय बल्कि ज़मीन खिसकने जैसी घटनाएँ भी बढ़ती हैं.गंगोत्री जैसे धार्मिक तीर्थस्थलों पर तीर्थयात्रियों की भीड़ लगातार बढ़ रही है और उनके लिए धारा के किनारे बनाए जा रहे होटल, दुकानें और भवन पर्यावरण पर गंभीर दबाव डाल रहे हैं.
परंपरागत रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में मकान स्थिर और सुरक्षित ढलानों पर बनाए जाते थे, परंतु आधुनिक दौर में व्यवसायिक हितों के चलते यह संतुलन बिगड़ गया है.
उत्तराखंड राज्य वैसे भी पहले से प्राकृतिक आपदाओं की मार झेलता रहा है.1991 में उत्तरकाशी भूकंप, 1998 में मालपा भूस्खलन, 1999 में चमोली भूकंप, और 2013 में केदारनाथ की भयावह बाढ़, जिसे 'हिमालयी सुनामी' कहा गया, सब इस बात का प्रमाण हैं कि राज्य का भूगोल अत्यधिक संवेदनशील है.
लेकिन अफसोस की बात यह है कि इन घटनाओं से कोई दीर्घकालिक सबक नहीं लिया गया.2013 की त्रासदी के बाद भी विकास परियोजनाओं को बिना पर्यावरणीय मूल्यांकन के तेज़ी से आगे बढ़ाया गया.
2013 की आपदा के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को उत्तराखंड में हो रहे निर्माण कार्यों जैसे वनों की कटाई, सुरंगों और जलाशयों के निर्माण, विस्फोट आदि पर एक अध्ययन रिपोर्ट तैयार करने के निर्देश दिए थे.
इस हेतु देहरादून स्थित पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के निदेशक रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति गठित की गई.समिति ने स्पष्ट रूप से कहा कि इन सभी परियोजनाओं के संचयी प्रभाव हिमालयी पारिस्थितिकी के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं, और पर्यावरणीय मंज़ूरी की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर बदलाव की आवश्यकता है.
उत्तराखंड भूकंपीय क्षेत्र संख्या 5 में आता है, जो भारत के सबसे संवेदनशील भूकंप क्षेत्रों में से एक है.इसके बावजूद राज्य में रेलवे लाइन, मेगा चारधाम सड़क परियोजना और अन्य बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं को प्राथमिकता दी जा रही है.
सड़क परियोजना पर 12,000 करोड़ और रेल परियोजना पर 43,000 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए जा रहे हैं.इन परियोजनाओं के तहत भारी मात्रा में विस्फोट और खुदाई की जा रही है, जिसके कारण सिल्क्यारा सुरंग जैसी घटनाएँ हो रही हैं.
इस प्रकार की निर्माण गतिविधियाँ न केवल स्थानीय भूगोल को नुकसान पहुँचा रही हैं, बल्कि भविष्य में और अधिक आपदाओं का मार्ग प्रशस्त कर रही हैं.
राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने भी ऐसे पारिस्थितिकीय-संवेदनशील क्षेत्रों में मेगा परियोजनाओं को लेकर गंभीर आपत्तियाँ जताई हैं.हालांकि, राज्य सरकार ने 2013 की आपदा के बाद नदी किनारे निर्माण कार्यों पर प्रतिबंध लगाने की बात कही थी, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि जलविद्युत और सड़क परियोजनाओं में नियमों का बार-बार उल्लंघन किया गया है.
अब हालात यह हैं कि उत्तराखंड की नदियों और सहायक नदियों पर 53 से अधिक बाँध प्रस्तावित हैं.इनसे उत्पन्न बिजली उत्तर प्रदेश, हरियाणा जैसे राज्यों को आपूर्ति की जाती है, जबकि निर्माण और पर्यावरणीय जोखिमों का पूरा भार उत्तराखंड उठाता है.इन परियोजनाओं के लिए कई बार कोई ठोस पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) भी नहीं किया गया.
उत्तराखंड की यह त्रासदी केवल एक राज्य की नहीं, बल्कि समूचे देश के लिए चेतावनी है.विशेषकर पूर्वोत्तर भारत के लिए, जहाँ अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और असम जैसे राज्य भी भारी-भरकम जलविद्युत परियोजनाओं की ओर बढ़ रहे हैं.
मणिपुर में तिपाईमुख (1500 मेगावाट) और लोकतक (90 मेगावाट) परियोजनाएँ पहले ही जनविरोध का कारण बन चुकी हैं.अरुणाचल में कामेंग, लोअर सुबनसिरी और दिबांग जैसी विशाल परियोजनाओं से न केवल स्थानीय जैवविविधता को खतरा है, बल्कि ये परियोजनाएँ असम तक पर असर डाल सकती हैं.दिबांग परियोजना के लिए 3.24 लाख पेड़ों की कटाई प्रस्तावित है, जो स्पष्ट रूप से विनाश का संकेत है.
धराली की आपदा इस बात का संकेत है कि प्रकृति की उपेक्षा कितनी महँगी पड़ सकती है.यदि आज भी हमने अपनी नीतियों में बदलाव नहीं किया, तो आने वाले वर्षों में ऐसी घटनाएँ और आम हो जाएँगी.हमें भूटान जैसे देशों से सीखना होगा, जहाँ 71% से अधिक वन क्षेत्र संरक्षित हैंऔर सभी विकास परियोजनाएँ पर्यावरण के अनुकूल तरीके से चलाई जाती हैं.
2019 में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की रिपोर्ट पहले ही चेतावनी दे चुकी है कि ग्लेशियर लगातार पीछे हट रहे हैं, जिससे झीलों के फटने, भूस्खलन और बाढ़ की घटनाओं में भारी वृद्धि हो सकती है.
ग्लेशियरों के मुहाने पर बनने वाली झीलें जब दबाव में टूटती हैं, तो वे न केवल जलप्रलय लाती हैं, बल्कि जान-माल की अपूरणीय क्षति का कारण भी बनती हैं.
इन सब तथ्यों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आर्थिक विकास तब तक स्थायी नहीं हो सकता जब तक वह सतत विकास के सिद्धांतों पर आधारित न हो.उत्तराखंड हो, अरुणाचल या असम—हर राज्य के लिए पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन बनाना आज की सबसे बड़ी चुनौती है.
हमें यह स्वीकार करना होगा कि विकास आवश्यक है, लेकिन वह पर्यावरणीय विनाश की कीमत पर नहीं हो सकता.धराली जैसी आपदाएँ हमारे नीति-निर्माताओं को यह चेतावनी देती हैं कि अब भी समय है—दिशा बदलिए, सोच बदलिए, और विकास को टिकाऊ बनाइए.
✉ संपर्क: महमूद हसन, आईएएस
सचिव, प्रशासनिक सुधार एवं प्रशिक्षण विभाग, असम सरकार
ईमेल: [email protected]