प्रमोद जोशी
भारत-अमेरिका रिश्तों में कड़वाहट को लेकर काफी लोगों की राय है कि इसी वजह से भारत के चीन के साथ रिश्ते बेहतर होंगे. यह अर्धसत्य है. दोनों देशों से रिश्तों में सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि हमारी सामर्थ्य और हैसियत क्या है. कमज़ोर व्यक्ति हमेशा धक्के खाता है.
चीन के साथ हमारे सहज व्यापारिक-संबंध चल रहे थे, जिनमें गलवान प्रकरण के बावजूद कोई बड़ा बदलाव नहीं आया. इसके व्यावहारिक कारण हैं, जो आसानी से खत्म नहीं हो जाएँगे.
यह बात का एक पहलू है. कहा जा रहा है कि अमेरिका से धोखा खाने के बाद भारतीय-नीति निर्माताओं को यह बात भी समझ में आ रही है कि हमें अमेरिका पर सीमित भरोसा ही करना होगा.
यह बात भी पहली बार नहीं कही जा रही है. ऐतिहासिक कारणों से हम हमेशा से इस बात को मानते रहे हैं. बावजूद इसके हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक-साझेदार अमेरिका ही है, जो अब भी बना रहेगा.
स्वतंत्र विदेश-नीति?
सभी देशों के साथ संबंध बनाए रखने या कहें हमारी स्वतंत्र विदेश-नीति की परीक्षा की भी यही घड़ी है. दूरदृष्टा राष्ट्रीय-नेतृत्व की पहचान इस बात में है कि वह केवल साल-दो साल के बारे में नहीं, दशकों बाद की सोचे.
स्वतंत्र विदेश-नीति के लिए स्वतंत्र रहने की ताकत भी चाहिए. किसी एक देश की कीमत पर हमारे रिश्ते न तो बिगड़ेंगे और न सुधरेंगे. जरूरत यह समझने की है कि दुनिया की राजनीति किस दिशा में जा रही है.
भारत-अमेरिका रिश्ते फौरी तौर पर किस दिशा में जाएँगे, यह स्पष्ट नहीं है. पर यह भी मानकर नहीं चलना चाहिए कि अमेरिका के चीन और रूस के साथ रिश्ते खराब ही रहेंगे.
रिश्तों का फौरी तौर पर बनना-बिगड़ना सामान्य प्रक्रिया है. कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं है. महत्वपूर्ण है हमारे आर्थिक विकास की दिशा. फिलहाल यह नहीं मान लेना चाहिए कि चीन के साथ रिश्तों में सुधार की प्रक्रिया, ट्रंप के टैरिफ-प्रकरण से अचानक शुरू हुई है.
चीन से सुधार
चीन से संबंधों में सुधार की प्रक्रिया कम से कम एक साल पहले शुरू हो गई थी, जब अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ भी नहीं था. शायद दोनों देश अपने अनुभवों को देखते हुए समझौते की मेज पर आए थे.
हाल में भारत-पाकिस्तान के बीच हुई लड़ाई में चीन की भूमिका को लेकर सवाल उठाए गए हैं, पर दोनों देशों ने इसे ज्यादा तूल नहीं दिया. फौजी नज़रिए से भी भारत नहीं चाहता कि उसे चीन और पाकिस्तान के साथ दो-मोर्चों पर लड़ाई लड़नी पड़े.
व्यापार शुल्कों को लेकर अमेरिका के साथ तनाव के बीच चीन ने भारत के साथ खड़े रहने का 'आश्वासन' दिया है. भारत में चीन के राजदूत शू फेइहोंग ने हाल में कहा कि वॉशिंगटन द्वारा दिल्ली पर उच्च टैरिफ लगाए जाने का चीन ‘कड़ा विरोध’ करता है.
इससे पहले चीनी विदेश मंत्री की आवाज में भी यही स्वर सुनाई दिया था. ये बातें तात्कालिक राजनीति की देन हैं. इनका दीर्घकालीन अर्थ नहीं है.
टकराव रहेगा
ऐसा नहीं है कि दोनों देशों के सीमा-विवाद एक झटके में सुधर जाएँगे. अभी अरुणाचल के क्षेत्र के विवाद खत्म नहीं हुए हैं. अरुणाचल में गश्त के अधिकार को लेकर टकराव शुरू हो सकता है.
पहलगाम हमलों के बाद और ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान को चीन के राजनयिक समर्थन का मुद्दा वाँग की यात्रा के दौरान भले ही नहीं उठा, लेकिन इससे द्विपक्षीय संबंधों पर अशुभ प्रभाव पड़ा है.
हाल में चीन के फ़ुदान विवि के विशेषज्ञ लिन मिनवाँग ने न्यूयॉर्क टाइम्स से कहा, चीन से भारत संबंधों को सुधारना चाहता है तो चीन इसका स्वागत करेगा लेकिन भारत को कोई छूट नहीं मिलेगी. चीन अपने हितों से समझौता नहीं करेगा और न पाकिस्तान को समर्थन देना बंद करेगा.
गलवान की कड़वाहट
पिछले साल 21अक्तूबर को दोनों देशों ने एलएसी पर टकराव के दो बिंदुओं, देपसांग मैदानों और डेमचोक में गश्त व्यवस्था पर एक समझौता किया था. उसे देखते हुए लगा था वहाँ अप्रेल 2020से पहले की स्थिति या तो बहाल हो गई है, या जल्द हो जाएगी. लद्दाख क्षेत्र में सेना की तैनाती का बोझ दोनों देशों पर कम होगा.
उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच रूस के कज़ान शहर में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के हाशिए पर मुलाकात हुई. इन दोनों बातों के अलावा विदेशमंत्री एस जयशंकर ने बताया कि दोनों देशों ने रिश्तों को सुधारने की दिशा में कुछ नए कदम उठाने का फैसला किया है.
मोटे तौर पर लगता है कि संबंध-सुधार दोनों देशों की व्यावहारिक चिंताओं की देन है. सीमा पर तनाव कम करना और आर्थिक-रिश्तों को बढ़ाना दोनों की जरूरत है. भारत, चीन के साथ अपने व्यापार-घाटे को कम करना चाहता है.
वैश्विक बदलाव
चार साल पहले वैश्विक-राजनीति में चीन का जो दबदबा था, वह आज नहीं है. गलवान प्रकरण उस वक्त हुआ, जब दुनिया महामारी की चपेट में थी. उस परिघटना ने और अमेरिका के साथ बढ़ते कारोबारी दबाव ने चीन की स्थिति को कमज़ोर किया है.
दूसरी तरफ धीरे-धीरे ही सही भारत की स्थिति बेहतर हो रही है. यह बेहतरी केवल जीडीपी की संवृद्धि से तय नहीं होती, बल्कि वैज्ञानिक और तकनीकी विकास तथा उन खास क्षेत्रों में महारत हासिल करने से जुड़ी होती है, जिनका आने वाले समय में महत्व बढ़ेगा.
अमेरिका और चीन के बीच आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस और क्वांटम कंप्यूटिंग के क्षेत्र में तेज प्रतियोगिता चल रही है. भारत भी इन दोनों क्षेत्रों के अलावा सेमी कंडक्टर तकनीक में तेजी से कदम बढ़ा रहा है.
पूँजी की जरूरत
इन सभी क्षेत्रों में अनुसंधान के लिए पूँजी की जरूरत होती है. पूँजी का कोई देश नहीं होता, वह अपनी जगह खोजती है. स्वदेशी पूँजी के अलावा विदेशी पूँजी-निवेश भी सहायक होता है.
भारतीय अर्थव्यवस्था और कानूनी-व्यवस्था कमांड-सिस्टम से पूरी तरह बाहर नहीं आई है. हमें खेती में भी तेजी से बदलाव की जरूरत है. आर्थिक संवृद्धि को तेज करने के लिए भी हमें चीनी वस्तुओं और भारत में चीनी-निवेश की ज़रूरत है. चीन भी पश्चिमी देशों के साथ बिगड़ते संबंधों के बीच भारत को मूल्यवान व्यापार भागीदार के रूप में देखता है.
चीन के साथ तमाम विवादों के बावजूद पिछले एक दशक में आर्थिक-सहयोग बढ़ा है, पर भारत का अविश्वास आसानी से दूर नहीं होगा. कज़ान की मुलाकात के बाद ब्राजील के रियो डी जेनेरो में जी-20शिखर सम्मेलन के दौरान विदेशमंत्री एस जयशंकर और उनके चीनी समकक्ष वाँग यी ने संबंधों में अगले कदम पर चर्चा की.
नए समझौते
अब चीन के विदेशमंत्री वाँग यी की भारत-यात्रा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 31अगस्त की चीन-यात्रा महत्वपूर्ण परिवर्तन का संकेत कर रही है. जून 2018के बाद से यह उनकी पहली चीन यात्रा होगी.
दोनों देशों ने अब कई व्यापारिक मार्गों–-लिपुलेख, शिपकिला और नाथुला दर्रों–-को फिर से खोलने पर सहमति जताई. सीमा प्रबंधन में सुधार के लिए ‘अर्ली हार्वेस्ट’ कदमों (अर्थात ऐसे छोटे समझौते जिन्हें किसी ज्यादा जटिल समझौतों से पहले जल्दी लागू किया जा सके) पर विचार करने के लिए विशेषज्ञ समूह का भी गठन किया जाएगा. भारत पहले इसका विरोध करता रहा था.
अतीत में, भारत ऐसी स्थिति से बचना चाहता था, जहाँ चीन को आंशिक लाभ तो मिल जाए, लेकिन उसकी क्षेत्रीय अखंडता से जुड़ी चिंताएँ अनसुलझी रहें.
दोनों देशों का हित
पिछले सोमवार को चीनी विदेशमंत्री वाँग यी ने दिल्ली में कहा, पिछले कुछ वर्षों में हमें जो झटके लगे, वे हमारे दोनों देशों के लोगों के हित में नहीं थे. हमें यह देखकर खुशी हो रही है कि अब सीमाओं पर स्थिरता बहाल हो गई है.
भारत और चीन तीन स्थानों पर सीमा व्यापार फिर से शुरू करने, सीधी उड़ानें फिर से शुरू करने, तीर्थयात्रियों के लिए कैलाश मानसरोवर यात्रा स्लॉट का विस्तार करने और वीजा में ढील देने पर सहमत हुए हैं.
चीन द्वारा उर्वरकों, रेअर अर्थ उत्पादों और बोरिंग मशीनरी पर निर्यात प्रतिबंध हटाने पर जहां सकारात्मक चर्चा हुई. अभी यह साफ नहीं है कि चीन की इस माँग पर कोई प्रगति हुई है या नहीं कि भारतीय कंपनियों में चीन के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की जाँच को भारत हटा ले.
वाँग का प्रधानमंत्री मोदी ने भी स्वागत किया. शंघाई सहयोग संगठन की बैठक के लिए मोदी अब तियानजिन की यात्रा करेंगे, जहाँ शी चिनफिंग से उनकी मुलाकात होगी.
ब्रिक्स की भूमिका
भारत और चीन ब्रिक्स के सदस्य हैं, जो हमें वैश्विक धरातल पर जोड़ते हैं. डॉनल्ड ट्रंप ने हाल में ब्रिक्स समूह पर भी हमला बोला है. उन्हें डर है कि ब्रिक्स एक नई विश्व-व्यवस्था बनाने जा रहा है, जिसमें अमेरिकी डॉलर की भूमिका कमज़ोर हो जाएगी.
बहरहाल उनके हमले से ब्रिक्स समूह के सदस्यों के बीच संबंधों को बढ़ावा ही मिलेगा. भारत और चीन, ब्राज़ील, रूस और दक्षिण अफ्रीका के साथ, इस समूह के संस्थापक सदस्य हैं.
भारत और चीन क्रमशः 2026और 2027के ब्रिक्स शिखर सम्मेलनों की मेज़बानी करेंगे. बीजिंग के जारी आधिकारिक बयान में भारत और चीन से ‘प्रमुख शक्तियों के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी प्रदर्शित करने’ का आग्रह किया गया है.
वैश्विक-राजनीति
अमेरिका लंबे समय से ‘शक्ति संतुलन’ बनाए रखने की पुरानी ब्रिटिश रणनीति पर चल रहा है, जिसका एकमात्र उद्देश्य है: अपना वैश्विक प्रभुत्व बनाए रखना. इसी उद्देश्य से, उसने गठबंधन बनाकर, किसी भी उभरती हुई शक्ति को, जो उसके नियंत्रण से बाहर हो गई हो, कुचल दिया.
द्वितीय विश्वयुद्ध में, अमेरिका ने सोवियत संघ और चीनी कुओमिंतांग राष्ट्रवादियों के साथ गठबंधन किया. युद्ध के अंतिम वर्षों में, पूर्वी यूरोप में सोवियत प्रभुत्व का फायदा उठाया और यूरोपीय देशों को ब्रेटन वुड्स समझौते (जुलाई 1944) पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया.
लड़ाई से यूरोप तबाह हो चुका था, उसे आर्थिक मदद की जरूरत थी. युद्ध समाप्त होते ही, अमेरिका ने रूस से नाता तोड़ लिया. वहीं चीन में 1949में कुओमिंतांग को हटाकर कम्युनिस्ट सरकार आ गई. दोनों मित्र अब शत्रु हो गए और अमेरिका के पूर्व शत्रु, जापान और जर्मनी उसके खेमे में आ गए.
अमेरिकी राह
कम्युनिस्ट चीन की स्थापना (1949) के बाद, अमेरिका ने रूस-चीन उदय से चिंतित होकर अपने प्रभुत्व के रास्ते खोजे. उसने चीन को रूस का प्रतिस्पर्धी बनाने का प्रयास किया और 1972में पाकिस्तान के माध्यम से चीन के साथ नाता जोड़ा.
इससे चीन को आर्थिक-प्रगति करने का मौका मिला, पर उसकी अपनी महत्वाकांक्षाएँ भी बढ़ीं, जिसके अंतर्विरोध अब सामने हैं. डॉनल्ड ट्रंप इस समय जो भी कर रहे हैं, वह अमेरिका पर आसन्न पराभव का संकेत भी है.
चीन की आर्थिक ताकत, तकनीकी क्षमताओं और भू-राजनीतिक प्रभाव को अमेरिका काबू में रखना चाहता है. ट्रंप अब चीन से रिश्ते सुधारने की कोशिश करेंगे. ऐसा हुआ, तो वह भी भारत की अनदेखी करेगा. ऐसा होगा या नहीं यह अब देखना है.
अमेरिका के नज़रिए से देखें, तो चीन के मुकाबले भारत, वैकल्पिक आर्थिक-महाशक्ति नहीं बन पाया है. हम संधिकाल में हैं. हमें चीन और अमेरिका, दोनों के बरक्स मजबूत बनना है. इसलिए आर्थिक-प्रगति के कम से कम अगले दस साल हमारे लिए महत्वपूर्ण होंगे.
(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)