डॉ. अनिल कुमार निगम
जलवायु परिवर्तन अब केवल विज्ञानियों और पर्यावरणविदों के बीच चर्चा का विषय नहीं रहा,यह सीधे-सीधे मानव अस्तित्व से जुड़ा हुआ संकट बन चुका है.भारत के हिमालयी क्षेत्र-उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश-जलवायु परिवर्तन की सबसे भीषण मार झेल रहे हैं.बदलता तापमान, पिघलते ग्लेशियर, असामान्य वर्षा, बादल फटना और भूस्खलन इन पर्वतीय इलाकों के भविष्य पर गहरे प्रश्नचिह्न खड़े कर रहे हैं.
यह कहना निर्रथक है कि हिमालय केवल प्राकृतिक सौंदर्य का प्रतीक नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की जीवनरेखा है.
हिमालय से निकलने वाली गंगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां उत्तर भारत की कृषि, पेयजल और ऊर्जा की आवश्यकताएं पूरी करती हैं.
यही कारण है कि हिमालय को ‘एशिया का वाटर टॉवर’ कहा जाता है.यदि हिमालयी पारिस्थितिकी असंतुलित हुई, तो इसका असर न केवल भारत बल्कि पूरे दक्षिण एशिया पर पड़ना तय है.
बदलता मौसम और बढ़ती आपदाएं
पिछले एक दशक में हिमालयी क्षेत्र में बादल फटने और भूस्खलन की घटनाओं में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई है.यहां पर विभिन्न राज्यों की कुछ प्रमुख आपदाओं की चर्चा करना उचित रहेगा.
जम्मू और कश्मीर
• 17अगस्त 2025को कठुआ जिले में बादल फटना और उससे उत्पन्न फ्लैश फ़्लड तथा भूस्खलन की घटनाओं ने कुल 7लोगों की जान ली
• 14अगस्त 2025में किश्तवाड़ के चशोती गाँव में बादल फटने की घटना में लगभग 60लोग मारे गए और दर्जनों लापता हुए
• जुलाई 2021में किश्तवाड़ के हुंजर गांव में बादल फटने से 25से अधिक लोगों की मौत हुई
• 2022में अमरनाथ गुफा के पास बाढ़ में 16श्रद्धालु मारे गए
उत्तराखंड
• 5अगस्त 2025को धराली (उत्तरकाशी) में विनाशकारी बादल फटना, पांच की मौत और 100लापता
• 2023में चमोली जिले के पैनका क्षेत्र में भारी नुकसान हुआ और करोड़ों रुपये की संपत्ति नष्ट हो गई
• 2020–22के बीच पिथौरागढ़, चमोली, देहरादून और टिहरी जिलों में बादल फटने से सैकड़ों घर, खेत और पुल तबाह हुए
• 2013की केदारनाथ आपदा में 6,054लोग मरे थे और वह आज भी सभी की स्मृति में ताज़ा है। उसके बाद से हर वर्ष राज्य बादल फटने और भूस्खलन से जूझ रहा है
हिमाचल प्रदेश
• जुलाई- अगस्त 2025में बादल फटने और भूस्खलन की कई घटनाएं घटीं जिसमें जानमाल का भारी नुकसान हुआ
• 2024–25में किन्नौर और कुल्लू जिलों में लगातार भूस्खलनों से जान-माल की बड़ी हानि हुई
• 2021में लाहौल-स्पीति और कुल्लू में बादल फटने से भयानक बाढ़ आई, सैकड़ों पर्यटक फँस गए
इसमें कोई संदेह नहीं है कि जलवायु परिवर्तन और मानवीय दबावों के कारण हिमालयी क्षेत्र पहले से कहीं अधिक असुरक्षित हो गया है.वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि गंगोत्री और चोराबारी (केदारनाथ) ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ रहे हैं.
गंगोत्री ग्लेशियर 1990के बाद से हर साल औसतन 34मीटर पीछे खिसक रहा है.चोराबारी ग्लेशियर लगभग 7मीटर प्रतिवर्ष सिकुड़ रहा है.आईपीसीसी (IPCC) की रिपोर्ट के अनुसार, यदि वैश्विक तापमान में 1.5°सेल्सियस की वृद्धि हुई तो हिमालयी ग्लेशियरों का 35–65%हिस्सा नष्ट हो सकता है.
इसका सीधा असर नदियों के प्रवाह पर पड़ेगा.आने वाले दशकों में जल संकट गहराता जाएगा.हिमालयी क्षेत्रों में बादल फटने और भूस्खलन के कई कारण हैं.ग्लोबल वार्मिंग के चलते मानसून का पैटर्न बदल गया है.
ऊंचे पहाड़ और गहरी घाटियां बादल फटने को अनुकूल बनाती हैं.विकास के नाम पर वनों की अंधाधुंध कटाई जारी है.जंगलों के नष्ट होने से मिट्टी बाँधने की क्षमता घट गई है.यह सर्वविदित है कि हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट, सड़क निर्माण, सुरंगों और बांधों ने पहाड़ों की मजबूती को कम कर दिया है.
नदी किनारे और ढलानों पर शहरों का अनियोजित विकास चल रहा है.इसके चलते खतरा और अधिक बढ़ गया है.भूस्खलन के पीछे भी लगभग यही कारण काम करते हैं.भारी वर्षा, भूगर्भीय अस्थिरता, अवैज्ञानिक खनन और जल-निकासी की समस्याएं पहाड़ों को कमजोर बना रही हैं.
इसका सीधा प्रभाव यह पड़ रहा है कि पिछले दस वर्षों में हजारों लोगों की मौतें हो चुकी हैं.उससे भी ज्यादा संख्या में लोगों का विस्थापन हो चुका है.इसके चलते सार्वजनिक संपत्ति का भारी मात्रा में नुकसान हुआ है. गांव, पुल, सड़कें और बिजली परियोजनाएं बह गईं.ऐसा होने से अमरनाथ यात्रा, चारधाम यात्रा जैसी धार्मिक यात्राओं में बार-बार व्यवधान पैदा हुए .
इसका लोगों के जनजीवन पर सीधा सामाजिक और आर्थिक असर पड़ा है.यहां के लोग कृषि, बागवानी और पशुपालन पर निर्भर हैं.जब खेत, बगीचे और पशुधन बर्बाद होते हैंतो सीधा असर उनकी आजीविका पर पड़ता है.महिलाएं अब पानी लाने के लिए कई किलोमीटर दूर तक जाती हैं क्योंकि पानी के पारंपरिक स्रोत सूख रहे हैं.कमजोर वर्ग जैसे गुफर समुदाय, जो चरागाहों पर निर्भर हैं, सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं.
हालांकि सरकार ने National Mission for Sustainable Himalayan Ecosystem जैसी योजनाएं शुरू की हैं, लेकिन उनका प्रभाव अभी नगण्य है.अवैज्ञानिक सड़क चौड़ीकरण, सुरंग और बाँध परियोजनाएं हिमालय की संरचना को और कमजोर कर रही हैं.
प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली, उपग्रह निगरानी और स्थानीय भागीदारी अभी भी कमजोर है.आपदा प्रबंधन को केवल राहत वितरण तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि इसके लिए दीर्घकालिक योजना जरूरी है.
इस विकराल होती समस्या का हमें समाधान खोजना ही होगा.आज सरकारों को चिंतन करना होगा कि विकास के नाम पर वनों की अंधाधुंध कटाई कितना उचित है.
वनों का न केवल संरक्षण आवश्यक है बल्कि पहाडों पर होने वाले निर्माण पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है.पहाड़ों पर कोई भी परियोजना लगाने या निर्माण कार्य करने के पहले पर्यावरण पर पड़ने वाले असर का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाए और वहां की अनुकूलता को ध्यान में रखकर ही कोई विकास कार्य किया जाए.
हालांकि मैं यह तो नहीं कहूंगा कि हिमालय खत्म हो जाएगा लेकिन अगर हमने समय रहते जलवायु परिवर्तन और मानवीय दबावों को नियंत्रित नहीं किया गया, तो पहाडों पर बसे कई राज्यों के शहर और गांव भारत के मानचित्र से गायब हो सकते हैं.
हिमालय की बर्फ, पारिस्थितिकी और जीवनदायिनी नदियां गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो सकती हैं.वास्तविकता तो यह है कि यह संकट सिर्फ पहाड़ों और उनके कुछ शहरों एवं गांवों पर नहीं मंडरा रहा बल्कि यह संकट संपूर्ण मानव जीवन पर पैदा हो गया है.
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार है। )