मुस्तफा कमाल
बांग्लादेश की राजनीति में चुनाव हमेशा से ही एक संवेदनशील और चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया रही है। देश के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आज़ादी के बाद की दशकों तक, चुनाव न केवल राजनीतिक दलों की लोकप्रियता का पैमाना रहे हैं, बल्कि सामाजिक स्थिरता और लोकतांत्रिक परिपक्वता की कसौटी भी बने हैं. इन चुनावों में सबसे अहम भूमिका निभाने वाले कारकों में से एक है— सेना। बांग्लादेश की सेना सिर्फ एक सुरक्षा बल नहीं रही, बल्कि इसने बार-बार राजनीतिक और सामाजिक बदलावों में निर्णायक भूमिका निभाई है.
आज जब फरवरी 2026 में होने वाले 13वें राष्ट्रीय चुनाव की तैयारियाँ तेज़ हो रही हैं, तो यह सवाल एक बार फिर उठ रहा है कि इस प्रक्रिया में सेना की भूमिका क्या होगी और उसकी प्रासंगिकता किस हद तक बनी रहेगी.
गृह मामलों के सलाहकार लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) मोहम्मद जहाँगीर आलम चौधरी ने पहले ही घोषणा कर दी है कि इस बार चुनावों में पुलिस और अंसार के साथ-साथ सेना के 80,000 से अधिक जवानों की तैनाती होगी.
इन बलों में रैपिड एक्शन बटालियन (RAB), बॉर्डर गार्ड्स बांग्लादेश (BGB), नौसेना और वायुसेना के जवान भी शामिल रहेंगे. यह साफ़ संकेत है कि सरकार चुनावों को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के लिए सैन्य बलों को केंद्र में रखकर एक मज़बूत सुरक्षा ढाँचा खड़ा करना चाहती है.
सेना पर भरोसा क्यों?
बांग्लादेश में चुनावी हिंसा, बूथ लूट, मतपेटी चोरी और प्रशासनिक पक्षपात लंबे समय से चिंता के विषय रहे हैं. पुलिस और सिविल प्रशासन की निष्पक्षता पर अक्सर सवाल उठते रहे हैं. लेकिन सेना एक ऐसी संस्था है, जिस पर आम जनता अपेक्षाकृत अधिक भरोसा करती है. इसका कारण है सेना की अनुशासित छवि, आपदा प्रबंधन में उनकी सक्रिय भूमिका और देश की संप्रभुता की रक्षा में उनका गौरवशाली इतिहास.
1991 का चुनाव इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. तत्कालीन कार्यवाहक सरकार के मुख्य न्यायाधीश शहाबुद्दीन अहमद ने सेना को कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी दी थी. सेना ने पुलिस, अंसार और अन्य सुरक्षा बलों को समन्वित कर ऐसा वातावरण बनाया कि चुनाव निष्पक्ष और शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हो सके. यही कारण है कि आज भी 1991 का चुनाव बांग्लादेश के इतिहास में सबसे पारदर्शी और सहभागी चुनावों में गिना जाता है.
अतीत से वर्तमान तक का सफर
1973 से लेकर 1988 तक बांग्लादेश में चुनावी प्रक्रिया अक्सर विवादों से घिरी रही. मतपेटियों की चोरी, उम्मीदवारों की धांधली से जीत और प्रशासनिक पक्षपात ने लोगों के लोकतांत्रिक विश्वास को चोट पहुँचाई.
1973 के पहले चुनाव में तो मतपेटियाँ ढाका लाकर मनचाहे परिणाम घोषित किए जाने की चर्चाएँ तक हुईं. इसी तरह राष्ट्रपति ज़ियाउर रहमान और जनरल इरशाद के कार्यकाल में चुनावों को जनता ने "मॉडल शो" करार दिया, जहाँ "हाँ-ना वोट" और मनमाने सीट वितरण जैसे प्रयोग किए गए.
लेकिन 1991 में जब जनता ने तानाशाह इरशाद को उखाड़ फेंका और कार्यवाहक सरकार बनी, तब सेना की भूमिका निर्णायक साबित हुई. इस चुनाव ने बांग्लादेश के लोकतांत्रिक इतिहास में एक नई उम्मीद जगाई. इसके बाद भी न्यायमूर्ति हबीबुर रहमान, लतीफुर रहमान और फखरुद्दीन की कार्यवाहक सरकारों में सेना की भूमिका चुनावों को विश्वसनीय बनाने में अहम रही.
हालाँकि, समय के साथ यह रुझान कमजोर पड़ता गया. 2014 में 154 उम्मीदवार बिना मतदान के ही विजेता घोषित कर दिए गए.2018 में "रात के मतदान" ने लोकतंत्र की साख को और गिरा दिया.
2024 में तो "डमी मॉडल वोटिंग" की घटनाओं ने चुनावी प्रक्रिया को मज़ाक बना दिया. इन घटनाओं ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया कि बिना सेना की सक्रिय भागीदारी और निष्पक्ष रवैये के, स्वतंत्र और विश्वसनीय चुनाव कराना बेहद कठिन है.
मौजूदा परिप्रेक्ष्य
फरवरी 2026 में प्रस्तावित चुनावों से पहले अंतरिम सरकार और सेना की भूमिका पर देश और विदेश, दोनों जगहों पर निगाहें टिकी हुई हैं. अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार प्रोफ़ेसर डॉ. मुहम्मद यूनुस ने साफ़ कहा है कि उनकी प्राथमिकता निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराना है. उन्होंने आश्वस्त किया कि इस बार किसी प्रकार की धांधली या असमानता की गुंजाइश नहीं छोड़ी जाएगी.
वहीं, सेना प्रमुख जनरल वकार-उज़-ज़मान ने यह बयान देकर नई उम्मीद जगाई है कि सेना का सत्ता हथियाने का कोई इरादा नहीं है. उनका कहना है कि सेना का कर्तव्य स्वतंत्रता और सुरक्षा की रक्षा करना है, न कि राजनीति में दखल देना. उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि जितनी जल्दी हो सके, चुनावों के माध्यम से एक राजनीतिक सरकार को सत्ता सौंपनी होगी. इस बयान ने सेना की छवि को जनता के और करीब ला दिया है.
जनता की नज़र में सेना
आज जब जनता पुलिस और अन्य प्रशासनिक संस्थाओं पर पूरी तरह भरोसा नहीं कर पा रही है, तब सेना को एकमात्र ऐसी संस्था के रूप में देखा जा रहा है, जो व्यवस्था बनाए रखने में सक्षम है.
सेना न केवल चुनावी हिंसा को रोक सकती है, बल्कि अवैध हथियारों की बरामदगी, सड़क-राजमार्गों को अवरोधों से मुक्त रखने, औद्योगिक इकाइयों और सरकारी प्रतिष्ठानों की सुरक्षा करने और साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाली चालों को नाकाम करने की क्षमता भी रखती है.
हाल के वर्षों में सेना ने ड्रग माफियाओं, अपराधियों और तोड़फोड़ करने वाले तत्वों के खिलाफ भी सख़्त कदम उठाए हैं. इस वजह से जनता का भरोसा सेना पर और गहरा हुआ है. यही कारण है कि लोग इस बार के चुनाव को "सेना की देखरेख में चुनाव" के रूप में देखने की उम्मीद कर रहे हैं.
अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
दुनिया भर में सेना की भूमिका बदलती रही है. अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में सेना पूरी तरह नागरिक नियंत्रण में काम करती है और उसकी राजनीतिक तटस्थता को सख़्ती से सुनिश्चित किया जाता है.
दूसरी ओर पाकिस्तान, तुर्की और मिस्र जैसे देशों में सेना का राजनीतिक हस्तक्षेप एक वास्तविकता बना हुआ है. बांग्लादेश इन दोनों चरम स्थितियों के बीच एक "मध्य मार्ग" पर चलता हुआ प्रतीत होता है.
यहाँ सेना संकट के समय स्थिरता और सुरक्षा का प्रतीक बन जाती है, लेकिन साथ ही उसने बार-बार यह भी संकेत दिया है कि राजनीतिक सत्ता का नेतृत्व केवल निर्वाचित सरकार के हाथों में होना चाहिए.
बांग्लादेश के इतिहास में सेना की भूमिका बहुआयामी रही है. मुक्ति संग्राम से लेकर 1991 के ऐतिहासिक चुनाव तक और हाल के जन आंदोलनों तक, सेना ने कभी निर्णायक तो कभी सहायक शक्ति के रूप में काम किया है. आज जब देश एक बार फिर चुनावी दहलीज़ पर खड़ा है, तो सेना से जनता की अपेक्षाएँ भी चरम पर हैं.
अगर सेना अपनी निष्पक्ष और अनुशासित भूमिका निभाती है और अंतरिम सरकार के सहयोग से चुनावों को शांतिपूर्ण व पारदर्शी बनाती है, तो यह न केवल बांग्लादेश के लोकतंत्र को स्थिरता देगा, बल्कि जनता के विश्वास को भी मज़बूत करेगा.
इस बार चुनाव महज़ एक राजनीतिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह बांग्लादेश के भविष्य की दिशा तय करने वाला क्षण है. यदि सेना अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाते हुए लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सफल बनाती है, तो यह देश को एक नए, स्वतंत्र और स्थिर लोकतांत्रिक युग की ओर ले जा सकता है. लेकिन अगर धांधली, हिंसा और अव्यवस्था को रोकने में विफलता होती है, तो जनता का भरोसा एक बार फिर टूट जाएगा.
यानी, बांग्लादेश के चुनावों में सेना की प्रासंगिकता केवल सुरक्षा का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की आत्मा और भविष्य का सवाल भी है. जनता की यही उम्मीद है कि सेना एक बार फिर उस भरोसे पर खरा उतरेगी और बांग्लादेश को लोकतांत्रिक स्थिरता की नई राह पर आगे बढ़ाएगी.
(मुस्तफा कमाल: पत्रकार-स्तंभकार, समाचार उप प्रमुख, बांग्लाविजन)