देस-परदेस : सऊदी-पाक समझौते ने बदला प.एशिया का परिदृश्य

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 23-09-2025
Country and abroad: Saudi-Pakistan agreement changed the scenario of West Asia
Country and abroad: Saudi-Pakistan agreement changed the scenario of West Asia

 

hप्रमोद जोशी

सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हाल में हुए आपसी सुरक्षा के समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद इसके निहितार्थ को लेकर कई तरह की अटकलें हैं. खासतौर से हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं भारतीय-सुरक्षा से जुड़े सवाल.

समझौता होने का समय उतना ही महत्वपूर्ण है, जितनी कि उसकी विषयवस्तु है. इसकी घोषणा इसराइल के क़तर पर हुए हमले के बमुश्किल एक हफ़्ते बाद हुई है. इससे खाड़ी देशों की असुरक्षा व्यक्त हो रही है, वहीं पश्चिम एशिया में पाकिस्तान की बढ़ती भूमिका दिखाई पड़ रही है.

समझौते के साथ एक गीत भी जारी किया गया है. अरबी में लिखे इस गीत में कहा गया है, ‘पाकिस्तान और सऊदी अरब, आस्था में भाई-भाई. दिलों का गठबंधन और मैदान में एक तलवार.’

मोटे तौर पर सऊदी अरब अपनी सुरक्षा मज़बूत करना चाहता है और पैसों की तंगी से जूझ रहे पाकिस्तान को अपनी सैन्य शक्ति के कारण सुरक्षा-प्रदाता के रूप में पेश करने और अपने आर्थिक-आधार को पुष्ट करने का मौका मिल रहा है.

d

पेचीदगियाँ

इन दोनों देशों के अमेरिका, इसराइल और चीन के अलावा ईरान और तुर्की के साथ रिश्तों की पेचीदगियाँ भी हैं. पाकिस्तान के पैर अब पश्चिम एशिया की राजनीति में फँसेंगे. खासतौर से उसके ईरान के साथ रिश्तों पर नज़र रखनी होगी.

ईरान के साथ सऊदी अरब की क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता या यमन के संघर्ष में उसे घसीटा जा सकता है. वहीं सऊदी अरब दक्षिण एशियाई विवादों उलझ सकता है, खासकर तब, जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़े.

कतर की राजधानी पर इसराइल के हमले का संयुक्त रूप से जवाब देने के लिए दोहा में मुस्लिम देशों के लगभग 60अधिकारियों की बैठक हुई थी, जिसमें इस्लामिक देशों का एक संयुक्त सैनिक-बल बनाने की दिशा में भी पहल शुरू हुई है. उसके कुछ ही दिनों बाद, इस समझौते की घोषणा हुई है.

इसराइल की बढ़ती आक्रामकता और अमेरिकी सुरक्षा-छतरी के कमजोर होने के बाद यह पहला बड़ा रक्षा समझौता है, जिस पर किसी अरब देश ने किसी परमाणु-शस्त्रधारी देश से रक्षा-समझौता किया है.

अमेरिका की भूमिका

सवाल यह भी है कि यह समझौता अमेरिकी सहमति से हुआ है या नहीं? हाल में राष्ट्रपति ट्रंप ने जब पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष आसिम मुनीर को लंच पर बुलाया, तब स्पष्ट था कि अमेरिका इस इलाके में पाकिस्तान की भूमिका देख रहा है.

देखना होगा कि क्या पाकिस्तान एक तरफ चीन से और दूसरी तरफ अमेरिका से रिश्ते गाँठ रहा है? सबकी निगाहें अफगानिस्तान पर भी हैं, जहाँ अमेरिका चाहता है कि अफगानिस्तान का तालिबानी शासन बगराम हवाई अड्डा उसे दे दे.

अफगानिस्तान और पाकिस्तान में लंबे अनुभव वाले पूर्व अमेरिकी डिप्लोमेट ज़लमय खलीलज़ाद ने इस समझौते पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि यह ‘खतरनाक समय’ में हुआ है.

मूलतः यह इसराइल-विरोधी समझौता है. साथ ही सऊदी अरब को इसराइल के अलावा ईरान, यमन के हूती मिलीशिया और दूसरे खतरों से भी सुरक्षा उपलब्ध कराता है.

dएटमी छतरी!

अनुमान लगाया जा रहा है कि पाकिस्तान का एटम बम अब उसके मित्र देशों के लिए छतरी का काम करेगा. संभावना है कि ऐसे ही समझौते कुछ और देशों के साथ होंगे. 

समझौते का पूरा पाठ सार्वजनिक नहीं है, लेकिन रियाद ने कहा है कि यह ‘एक व्यापक रक्षात्मक समझौता है जिसमें सभी सैन्य साधन शामिल हैं.’ उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान एकमात्र मुस्लिम देश है जिसके पास परमाणु हथियार हैं.

पाकिस्तान के रक्षामंत्री ख्वाजा आसिफ ने पिछले शुक्रवार को इस बात की पुष्टि की कि समझौते के तहत उनके देश का परमाणु कार्यक्रम रियाद को ‘उपलब्ध कराया जाएगा’. परमाणु अप्रसार संधि से जुड़े देश के रूप में, सऊदी अरब को अपने अंतरराष्ट्रीय दायित्वों पर इस तरह के कदम के प्रभाव पर भी विचार करना होगा.

अमेरिका से मोहभंग

क़तर में, पश्चिम एशिया का सबसे बड़ा अमेरिकी एयरबेस अल-उदैद एयरबेस है. इतने मज़बूत सुरक्षा वाले सहयोगी हुए इसराइली हमले के बाद लगता है कि रियाद ने मान लिया कि अब वह सिर्फ़ अमेरिकी सुरक्षा गारंटी के भरोसे नहीं रह सकता. 

गज़ा में इसराइल की कार्रवाइयों और ईरान समर्थित हूतियों द्वारा अपनी सैन्य शक्ति का प्रदर्शन और अमेरिका की क्रमशः कम होती दिलचस्पी इसके पीछे नज़र आती है.

2021और 2022में यमन के हूती विद्रोहियों ने सऊदी अरब के कई ठिकानों पर हमले किए थे. सऊदी अरब का क़रीबी सहयोगी होते हुए भी अमेरिका इन हमलों को रोक नहीं पाया. हूती विद्रोहियों के ख़िलाफ़ सऊदी अरब के नेतृत्व में चल रहे अभियान से अमेरिका पीछे हट गया.

2019में, जब ईरान के सहयोगियों ने सऊदी तेल प्रतिष्ठानों पर हमले किए,  तब भी अमेरिका ने आँखें मूंद लीं. अमेरिका अब पश्चिम एशिया के संघर्षों में नहीं उलझना चाहता क्योंकि उसका ध्यान पूर्वी एशिया की ओर बढ़ रहा है.

गज़ा की लड़ाई का विस्तार इस इलाके में हो गया है, जिससे खाड़ी-देशों की असुरक्षा गहरी हो गई है. 7अक्तूबर, 2023को इसराइल में हमास के हमले और गज़ा में इसराइल की विनाशकारी प्रतिक्रिया ने अमेरिकी मध्यस्थता से हुए अब्राहम समझौते को भी पटरी से उतार दिया है.

इसी दौरान ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाया, जिससे सऊदी अरब के लिए चिंता बढ़ी. ऐसे में सऊदी अरब के लिए यह संकेत देना ज़रूरी हो गया था कि उसके पास अमेरिका के अलावा और विकल्प हैं.

d

भारतीय चिंता

समझौते को लेकर भारत में आशंकाएँ हैं. इसमें कही गई एक बात ने भारत में पर्यवेक्षकों का ध्यान खींचा है, कि ‘दोनों में से किसी भी देश पर हुआ आक्रमण को दोनों के खिलाफ आक्रमण माना जाएगा.’

इससे कुछ लोग इसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसी परिस्थिति से जोड़ रहे हैं. समझौते के फौरन बाद पाकिस्तान के रक्षामंत्री ख़्वाजा आसिफ़ ने दावा किया कि भारत के साथ युद्ध होने की स्थिति में सऊदी अरब पाकिस्तान का साथ देगा.

पाकिस्तान के एक चैनल पत्रकार ने ख़्वाजा आसिफ़ से सवाल किया था, ‘क्या भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध होने पर सऊदी अरब शामिल होगा?’ इसके जवाब में उन्होंने कहा, ‘हाँ, मैं कह सकता हूं कि अगर पाकिस्तान या सऊदी अरब के ख़िलाफ़ हमला होता है तो इसे दोनों देशों पर हमला माना जाएगा और दोनों मिलकर इसका मुक़ाबला करेंगे.’

ख्वाजा आसिफ कुछ भी कहें, सवाल है कि सऊदी अरब का क्या कहना है? समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद, एक सऊदी अधिकारी ने रॉयटर्स को बताया कि भारत के साथ सऊदी अरब के संबंध ‘पहले से कहीं अधिक मजबूत’ हैं और ये आगे भी बढ़ते रहेंगे.

सऊदी मीडिया में इस समझौते को संयमित तरीके से पेश किया जा रहा है. वहाँ न तो भारत का ज़िक्र किया जा रहा है और न ही कोई दावा किया जा रहा है. जो भी दावे हैं, वे पाकिस्तान में हैं और आशंकाएँ, ज़रूर भारत में हैं.

भारतीय विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत को सऊदी अरब के साथ इस सवाल को उठाना चाहिए. देखना यह भी होगा कि समझौते के पीछे सऊदी अरब की क्या दृष्टि है. उसकी दिलचस्पी भारत-पाकिस्तान युद्ध में है अथवा अपने इलाके में?

भारत-अरब रिश्ते

सऊदी अरब और यूएई ने भारत में अरबों डॉलर का निवेश किया है और भविष्य में भारी निवेश की संभावनाएँ हैं. इसलिए स्पष्ट है कि ये देश भारत की सुरक्षा-प्राथमिकताओं को भी समझते हैं.

सऊदी अरब का भारत दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, जबकि वह भारत का पाँचवाँ सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है. 22अप्रैल को पहलगाम हमले के दौरान प्रधानमंत्री मोदी सऊदी अरब में थे और सऊदी-अरब ने इस घटना की तुरंत निंदा की थी. बाद में, सऊदी अरब के विदेश राज्य मंत्री आदिल अल-जुबैर ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान अचानक पाकिस्तान का दौरा किया.

सऊदी अरब ने जम्मू -कश्मीर से अनुच्छेद 370को हटाए जाने की ज़्यादा कड़ी आलोचना कभी नहीं की. फरवरी 2019में पुलवामा आतंकी हमले की निंदा की थी, लेकिन बालाकोट हमलों की निंदा नहीं की थी.

d

अरब-भूमिका

यूएई ने भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों को ठीक कराने की कई बार कोशिशें कीं और पाकिस्तान सरकार ‘यू-टर्न’ करती रही. सबसे ताज़ा प्रकरण 2022-23का है. पहले खबर आई कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने यूएई के चैनल अल अरबिया के साथ एक साक्षात्कार में कहा कि हम कश्मीर समेत सभी मुद्दों पर पीएम नरेंद्र मोदी के साथ गंभीर बातचीत करना चाहते हैं.

उन्होंने यह भी कहा कि भारत के साथ तीन-तीन युद्ध लड़कर पाकिस्तान ने सबक सीख लिया है. इससे गरीबी, बेरोजगारी और परेशानी के सिवा हमें कुछ नहीं मिला. अब हम शांति चाहते हैं.

और यू-टर्न

उसके फौरन बाद मंगलवार 17 जनवरी 2023 को पाकिस्तान के सरकारी टीवी चैनल पर प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से जारी बयान में कहा गया कि पीएम के बयान को गलत संदर्भ में लिया गया है. बातचीत तभी हो सकती है, जब भारत अगस्त 2019के फैसले को वापस ले.

दोनों देशों ने फरवरी 2021 में नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी रोकने के लिए सन 2003के समझौते को पुख्ता तरीके से लागू करने की जो घोषणा की थी, उसके पीछे भी यूएई की भूमिका थी. यह बात उन्हीं दिनों अमीरात के वॉशिंगटन स्थित राजदूत युसुफ अल ओतैबा ने कही थी.

अब भारत के विदेश मंत्रालय के आधिकारिक प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने एक बयान में कहा, ‘सरकार को इस बात की जानकारी थी कि यह घटनाक्रम, जो दोनों देशों के बीच एक दीर्घकालिक समझौते को औपचारिक रूप देता है, विचाराधीन है.

ज़ाहिर है कि सऊदी अरब ने भारत को इस मामले में ‘लूप’ में रखा है. बहरहाल भारत इस घटनाक्रम के राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ-साथ क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिरता पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन जरूर करेगा.

पाक-अरब रिश्ते

दूसरी तरफ हमें सऊदी-पाकिस्तान रिश्तों की पृष्ठभूमि को भी समझना होगा. 1960 के दशक के अंत में, यमन में मिस्र के युद्ध को लेकर चिंताओं के बीच, पाकिस्तानी सैनिक सऊदी अरब गए थे.

1979 में मक्का की ग्रैंड मस्जिद पर कब्ज़ा हुआ था, तब पाकिस्तान के विशेष बलों ने सऊदी सैनिकों की मदद की थी, इसके साथ ही सैन्य सहयोग और गहरा हो गया.

रियाद के अनुरोध पर, पाकिस्तान ने पवित्र स्थलों की रक्षा के लिए सऊदी अरब में लगभग 11,000 सैनिकों को  तैनात किया था. इस समय सऊदी अरब में 1,500 से 2,000 पाकिस्तानी सैनिक तकनीकी और परिचालन सहायता प्रदान कर रहे हैं.

d

ईरान फैक्टर!

हालाँकि हाल में ईरान और सऊदी अरब के रिश्ते बेहतर हुए हैं, पर उनकी प्रतिद्वंद्विता भी जगजाहिर है. ईरान ने हाल के वर्षों में अपने परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को बढ़ा दिया है.सऊदी अरब के शहज़ादे और वास्तविक शासक मोहम्मद बिन सलमान ने 2018में कहा था कि यदि ईरान परमाणु हथियार हासिल कर लेगा, तो ‘हम भी ऐसा ही करेंगे’.

अपनी पुस्तक ‘वॉर’ में लेखक और पत्रकार बॉब वुडवर्ड ने लिखा कि अमेरिकी सीनेटर लिंडसे ग्रैहम के साथ बैठक के दौरान सऊदी क्राउन प्रिंस ने कहा था, ‘मुझे बम बनाने के लिए यूरेनियम की जरूरत नहीं है...मैं पाकिस्तान से एक बम खरीद लूँगा.’

(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)


ALSO READ नेपाल की बग़ावत से निकले सवाल