देस-परदेस : नेपाल की बग़ावत से निकले सवाल

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 16-09-2025
India and abroad: Questions arising from Nepal's rebellion
India and abroad: Questions arising from Nepal's rebellion

 

gप्रमोद जोशी

हाल में हुए आंदोलन के बाद नेपाल की सूरत बदल गई है. हालाँकि सेनाध्यक्ष अशोक राज सिगडेल और राष्ट्रपति राम चंद्र पौडेल के आपसी समन्वय से राज्य नाम की संस्था के कुछ लक्षण अभी बचे हुए हैं, पर भविष्य को लेकर अनेक सवाल है.सबसे बड़ा सवाल है कि क्या किसी प्रधानमंत्री को इस तरह से पद छोड़ने के लिए मज़बूर किया जा सकता है? क्या इस तरह से अंतरिम प्रधानमंत्री की नियुक्ति की जा सकती है? क्या संसद भंग की जा सकती है?

नेपाल के 2015के संविधान में संघीय संसद के बाहर के किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनने की परिकल्पना नहीं की गई है. कार्की सांसद नहीं हैं. हालाँकि, आवश्यकता का सिद्धांत, एक कानूनी सिद्धांत है जो कहता है कि असाधारण परिस्थितियों में संविधानेतर तरीकों की आवश्यकता होती है.

इस दृष्टि से राष्ट्रपति के पास संविधान के अनुच्छेद 61 (4) की व्यापक व्याख्या के तहत कार्की को अंतरिम प्रधानमंत्री की नियुक्ति का अधिकार है. थोड़ी देर के लिए इन फैसलों को आपातकाल के फैसले मानते हुए स्वीकार कर भी लें, तब भी क्या ये फैसले समाधान की ओर ले जाएँगे?

राष्ट्रपति की दो घोषणाएँ महत्वपूर्ण हैं. एक, संसद का भंग होना और दूसरे अगले संसदीय चुनाव की तारीख की घोषणा, जो 5मार्च को होंगे. देश के प्रमुख राजनीतिक दलों ने संसद भंग करने के फ़ैसले की कड़ी आलोचना करते हुए इसे ‘असंवैधानिक’, ‘मनमाना’ और लोकतंत्र के लिए एक गंभीर झटका बताया है.

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सच क्या है, झूठ क्या?

देश अब भी अराजकता की गिरफ्त में है. कांतिपुर जैसे बड़े मीडिया घराने के दफ्तर के जलकर खाक हो जाने के बाद समझ में नहीं आ रहा है कि सोशल मीडिया की जानकारियों में सच क्या है और क्या झूठ. पूरा देश अफवाहों और सुनी-सुनाई बातों से भरा पड़ा है.

जेन-ज़ी के जिन प्रदर्शनकारियों ने भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया, उनके पास कोई आधिकारिक प्रवक्ता या कोई आधिकारिक नेतृत्व संरचना भी नहीं है. एक तरह से अराजकता का माहौल है.

दूसरी तरफ ऐसे आंदोलन लोकतंत्र से जुड़े बुनियादी सवाल उठाते हैं. केवल सफलतापूर्वक चुनाव हो जाना और सत्ता का एक हाथ से दूसरे हाथ में चले जाना लोकतंत्र नहीं है. लोकतंत्र जनता की बड़े स्तर पर भागीदारी का नाम है, जो निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है.

नेपाल से पहले पिछले साल बांग्लादेश में और 2022में हुए आंदोलनों के बाद सत्ता-परिवर्तन इस बात की ओर संकेत कर रहे हैं कि मुख्यधारा की राजनीति को भी अपने गिरेबान में झाँकने की ज़रूरत है. क्यों बनी उनकी ऐसी छवि?

ऐसे आंदोलन केवल दक्षिण एशिया में ही नहीं हुए हैं, बल्कि पिछले एक दशक में अमेरिका समेत यूरोप के कई देशों में हुए हैं. अलबत्ता वहाँ की लोकतांत्रिक संस्थाएँ अपेक्षाकृत सबल हैं.

भाई-भतीजावाद !

राजनीतिक वंशवाद या राजवंशवाद तमाम विकासशील देशों की समस्या है. 8सितंबर को नेपाल में हुए शुरुआती विरोध प्रदर्शनों से हफ़्तों पहले, देश के युवा ‘नेपोबेबी’ ट्रेंड के इर्द-गिर्द एक ऑनलाइन अभियान में शामिल थे.

नेपाल की अशांति इंडोनेशिया में कुछ हफ़्ते पहले हुई हिंसा की झलक थी, जब सांसदों ने अपने वेतन में भारी वृद्धि (राष्ट्रीय न्यूनतम आय से 20गुना) की घोषणा की थी. इंडोनेशिया के घटनाक्रम का भी नेपाल पर प्रभाव है, जहाँ पूर्व राष्ट्रपति जोको विडोडो और उनके सबसे बड़े बेटे जिब्रान राकाबुमिंग राका के ख़िलाफ़ गुस्से से भड़के जन-विरोध प्रदर्शन महीनों से चल रहा था.

विडोडो, कभी इंडोनेशिया के पुराने और शासक परिवारों, युधोयोनो और सुकर्णो, से अपनी तुलना करते थे. उन्हें अपने बेटे जिब्रान को उपराष्ट्रपति पद पर बिठाने की कोशिशें करने के लिए कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा.

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‘नेपोबेबी’ अभियान

नेपाल में, ‘नेपोबेबी’ अभियान में नेपाल के राजनीतिक और व्यावसायिक अभिजात वर्ग के बच्चों को निशाना बनाया. निशाने पर आए लोगों में शेर बहादुर देउबा और आरज़ू देउबा के बेटे जयवीर सिंह देउबा थे–जो क्रमशः नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष और 9सितंबर को सरकार गिरने तक विदेशमंत्री थे.

शृंखला खतिवडा, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत समाजवादी) के राजनेता बिरोध खतिवडा की बेटी और कांतिपुर मीडिया समूह के प्रबंध निदेशक संभव सिरोहिया की पत्नी. सौगत थापा, बिंदु कुमार थापा के बेटे, जो एक व्यवसायी और गंडकी प्रांत के सामाजिक विकास, युवा और खेल मंत्री हैं वगैरह.

सोशल मीडिया पर उनकी अमीरी का प्रदर्शन भी होता रहा और उनके जीवन की तुलना आम नेपालियों के जीवन से की जा रही थी. इससे जीवन में निराशा और हताशा जन्म ले रही थी.

जेनरेशन-ज़ी

नेपाल की जेनरेशन-ज़ी नेपाली राजशाही के उन्मूलन के बाद के वर्षों में जन्मी या परिपक्व हुई है, जो अब लगभग दो दशक पहले की बात है. उनसे लोकतंत्र और एक नए संविधान के तहत ‘नए नेपाल’ का वादा किया गया था, जहाँ वे बेहतर जीवन जी सकेंगे.

ऐसा हुआ नहीं, बल्कि उनका चरमराती अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोज़गारी और बढ़ते पलायन से दबाव सामना हुआ. एक तरफ यह सपनों का टूटना था, वहीं दूसरी तरफ राजनीतिक-वर्ग की बंदरबाँट के कारण व्यवस्था में स्थिरता पैदा नहीं हो पाई.

संयोग है कि जिस दौर में यह सब हो रहा था, उसी दौर में सोशल-मीडिया का विस्तार भी हो रहा था, जिसका नियंत्रण करने के लिए देश की संसद ने नियम नहीं बनाए थे. ऐसे में सोशल मीडिया पर प्रतिबंध से जुड़े आदेश आने लगे.

नेपाल सरकार वर्षों से मेटा, एल्फाबेट और एक्स कॉर्प जैसी तकनीकी कंपनियों से नेपाल में अपना कारोबार जारी रखने के लिए पंजीकरण कराने की माँग कर रही थी. इन सभी कंपनियों ने विभिन्न कारणों से इनकार कर दिया, खासकर इसलिए, क्योंकि नेपाल की संसद ने ऐसा कोई कानून पारित नहीं किया था.

जब मामला देश के सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचा, तो उसने भी सोशल मीडिया कंपनियों को पंजीकरण कराने का आदेश दिया. सरकार ने इन कंपनियों के लिए सात दिनों की समय सीमा तय की. समय सीमा समाप्त होने पर, सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया. विरोध का यह ट्रिगर पॉइंट था.

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स्कूल-यूनिफॉर्म में बच्चे

अभी तक जो नाराज़गी ऑनलाइन थी, वह सड़क पर उतर आई. लोगों ने इसका निष्कर्ष यही निकाला कि सरकार राजनेताओं के बच्चों की आलोचना को रोकने के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी को दबा रही है.नौजवानों का रोष भी हिंसक नहीं था. सोमवार, 8सितंबर, की शुरुआत प्रदर्शनकारियों के इकट्ठा होने के साथ गायन, नृत्य और नारों के साथ जीवंत हुई. तमाम किशोर, अपनी कक्षाओं से भागकर स्कूल और कॉलेज की यूनिफॉर्म में निकल आए.

मध्य काठमांडू में, जहाँ सबसे बड़ा विरोध प्रदर्शन हुआ, सुरक्षा बल पहले तो खामोश रहे, यहाँ तक कि प्रदर्शनकारियों ने जब संसद की ओर जाते हुए बैरिकेड को तोड़ा, तब भी वे खामोश रहे.इसके बाद स्थिति बदली. इस दौरान कुछ उपद्रवी तत्व भी भीड़ में शामिल हो गए थे. प्रदर्शनकारियों ने जब संसद भवन में प्रवेश करने का प्रयास किया, तब सशस्त्र पुलिस बल ने जवाबी कार्रवाई की. आंदोलन पूरे देश में हो रहा था. देखते ही देखते जगह-जगह से गोली चलने की खबरें आने लगीं.

अब तक जो नहीं हुआ था, वह अब हो गया. करीब-करीब हरेक परिवार बच्चों की मौत या उनके हताहत होने की खबरों से सदमे में आ गया. अगला दिन लोगों की हिंसा का था. भीड़ ने नेताओं के घरों पर धावा बोल दिया और उन्हें जला दिया.

इस आंदोलन के दौरान कुल 72लोगों की मौत की खबर है. मरने वालों में पुलिसकर्मी भी शामिल हैं. नेपाली इतिहास में किसी भी सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन में मरने वालों की यह सबसे बड़ी संख्या है. और नेपाल एक अनिश्चित भविष्य की ओर देख रहा है.

क्या यह क्रांति है?

नेपाल से सामने आ रहे नाटकीय दृश्य पिछले तीन वर्षों में श्रीलंका और बांग्लादेश में हुए इसी प्रकार के विद्रोहों की याद दिलाते हैं. तीनों देशों में, विरोध प्रदर्शनों से शुरू हुआ मामला राजनीतिक क्रांति में बदल गया, जिसके कारण लंबे अरसे से व्यवस्था पर काबिज़ कुछ परिवार या समूह मुख्यधारा से बाहर कर दिए गए. पर तीनों ही देशों में संशय बना हुआ है.

इन तीन देशों के अलावा पाकिस्तान की अनदेखी भी नहीं करनी चाहिए, जहाँ मई 2023में पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की गिरफ़्तारी के बाद, उनके समर्थक सड़कों पर उतर आए थे. पाकिस्तानी सेना के लिए सबसे चिंताजनक बात यह थी कि प्रदर्शनकारियों ने एक कोर कमांडर के घर पर धावा बोला और रावलपिंडी स्थित जनरल हैडक्वॉर्टर के गेट भी तोड़ दिए. ये सब बातें पहले अकल्पनीय थीं.

नेपाल में भविष्य की उम्मीदों और आशंकाओं पर विचार करने के पहले इसबार की बगावत और जेन-ज़ी की प्रकृति को भी समझना होगा. जेन-ज़ी क्या किसी विचार, वर्ग या दीर्घकालीन राजनीतिक-आंदोलन का प्रतिनिधित्व करती है? क्या यह किसी प्रकार की क्रांति है?

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समाधान क्या है?

इस आंदोलन के पास देश की समस्याओं का समाधान क्या है? युवा होना क्या कुशलता और ईमानदारी की गारंटी है? बेशक देश की जनता के बड़े हिस्से के मन में व्यवस्था को लेकर भारी नाराज़गी है, पर समाधान क्या है?

समाधान यदि वर्तमान संवैधानिक-व्यवस्था से नहीं निकलेगा, तब ऐसी कौन सी व्यवस्था होगी, जो समाधान देगी? सड़कों पर निकलकर और राजनेताओं की पिटाई करना क्या समाधान है? देश की सद्यः स्थापित संवैधानिक-व्यवस्था चलेगी भी या नहीं?

जनता का गुस्सा यों ही नहीं भड़कता है, उसे भड़काने वाले ट्रिगर पॉइंट और हिंसा का रास्ता दिखाने वाले कुछ लोग भी होते हैं. नेपाल में मुख्यधारा का जो मीडिया अभी तक जनता की आवाज़ को मुखर कर रहा था, उसपर भी हमले हुए हैं, संसद और न्यायपालिका पर भी.

नया राजनीतिक दल?

सवाल है, अब क्या होगा? जेनरेशन-ज़ी आंदोलन के सबसे प्रमुख समूहों में से एक है, ‘हामी नेपाल’ संगठन, जो एक एनजीओ है, जिसकी स्थापना 2015में नेपाल में आए विनाशकारी भूकंप के बाद हुई थी.

यह एकमात्र पंजीकृत संगठन भी है, जिसने विरोध प्रदर्शनों के पीछे होने का दावा किया है. आंदोलन के भीतर, कुछ और समूह भी स्वतंत्र रूप से काम कर रहे हैं. क्या अब वे एक नए राजनीतिक-संगठन के रूप में सामने आएँगे? समस्या का समाधान क्या एक नए राजनीतिक-समूह के गठन पर ही निर्भर करता है?

उम्मीदें बहुत ऊँची हैं: मज़बूत आर्थिक विकास, भ्रष्टाचार मुक्त समाज और सभी के लिए समान अवसर. इन्हें हासिल करना आसान नहीं है. नेपाल को पीछे धकेलने वाली एकमात्र चीज़ भ्रष्टाचार ही नहीं है; भौगोलिक, भू-राजनीतिक और बुनियादी ढाँचे से जुड़ी चुनौतियाँ भी हैं, साथ ही लालफीताशाही भी है जो आसानी से बदलेगी नहीं.

(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)


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