अब्दुल्लाह मंसूर
10 नवंबर को दिल्ली के लाल किले के पास हुआ बम विस्फोट सिर्फ एक आतंकी हमला नहीं, यह एक बहुत बड़े खतरे की घंटी है। जब जाँच में डॉक्टरों और पढ़े-लिखे पेशेवरों का नाम आया, तो इसने उस पुरानी सोच को तोड़ दिया कि आतंकवाद सिर्फ गरीबी और अशिक्षा की देन है। यह एक परेशान करने वाला सवाल खड़ा करता है: एक डॉक्टर, जिसे लोगों की जान बचाने की ट्रेनिंग मिली है, वह जान लेने वाला आतंकवादी क्यों बन गया? यदि इनके पास पैसे, इज्जत और नौकरी है, तो फिर वे नफरत और हिंसा का रास्ता क्यों चुन रहे हैं? इसका जवाब पैसों की तंगी में नहीं, बल्कि दिमाग में भरे जा रहे ज़हर, एक झूठे 'मकसद' और पहचान के संकट में छिपा है।
पढ़े-लिखे लोगों का आतंकवाद में शामिल होना कोई नई बात नहीं है। अल-कायदा का सरगना अल-जवाहिरी भी एक डॉक्टर था। जर्मनी के 1970के दशक के 'रेड आर्मी फैक्शन' की स्थापना बुद्धिजीवियों और पत्रकारों ने की थी।
बलूच लिबरेशन फ्रंट का प्रमुख अल्लाह नज़र बलूच एक मेडिकल डॉक्टर है। यह पैटर्न हर विचारधारा में मौजूद है, जो साबित करता है कि शिक्षा कट्टरपंथ के खिलाफ कोई टीका नहीं है। ये लोग 'पागल' नहीं होते; वे दिमागी रूप से बिलकुल सामान्य होते हैं।

ज़हरीले 'मकसद' का मनोविज्ञान
उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि वे किसी 'बड़े मकसद' के लिए लड़ रहे हैं। यह 'हम बनाम वे' (Us vs. Them) की एक खतरनाक मानसिकता है, जो एक कथित अन्याय या भेदभाव के नाम पर शुरू होती है। धीरे-धीरे, उनकी अपनी पहचान (जैसे डॉक्टर या इंजीनियर) इस नफरत वाली समूह-पहचान के नीचे दब जाती है। यहीं पर दिमाग का 'उल्टा' हो जाना (नैतिक व्युत्क्रमण) शुरू होता है।
एक डॉक्टर को सिखाया जाता है कि जान बचाना सबसे बड़ा धर्म है, लेकिन कट्टरपंथी सोच उसे सिखाती है कि 'बड़े मकसद' के लिए जान लेना जायज़ है। वे खुद को अपराधी नहीं, बल्कि 'योद्धा' या 'अल्लाह का सिपाही' मानने लगते हैं। वे खुद को 'श्रेष्ठ' समझने लगते हैं, मानो "वे एक ऐसी सच्चाई जानते हैं जिसे बाकी लोग नहीं समझते।" वे अपनी शिक्षा और कौशल को हथियार बना लेते हैं, जिसे 'वैज्ञानिक जिहाद' कहा गया है। उनकी शिक्षा, जो समाज के लिए वरदान होनी चाहिए, वह अभिशाप बन जाती है।
इस तरह की घटनाओं का सबसे बड़ा ख़तरा सिर्फ़ बम विस्फोट नहीं है, बल्कि इसका समाज पर पड़ने वाला असर है। यह कट्टरपंथ अब जंगलों या पहाड़ों में नहीं, बल्कि हमारे शहरों, विश्वविद्यालयों और 'इंटरनेट' पर फैल रहा है।
जब पढ़े-लिखे मुस्लिम युवा ऐसी आतंकी गतिविधियों में पकड़े जाते हैं, तो वे पूरे समुदाय को शक के घेरे में ला खड़ा करते हैं। यह समाज में 'अविश्वास' और 'प्रोफाइलिंग' का खतरनाक माहौल बनाता है, जिसमें उस आम मुसलमान को भी शक की नज़र से देखा जाने लगता है, जिसका इन सब से कोई लेना-देना नहीं है। यह अविश्वास उस वैचारिक ज़हर को और ताक़त देता है, जो समाज को 'हम' और 'वे' में बाँटना चाहता है। लड़ाई अगर वैचारिक है, तो जवाब भी वैचारिक और सामाजिक ही होना चाहिए।
विचारधारा ही संस्कृति और मनोविज्ञान को जन्म देती है, जो अंततः हमारे कार्यों को नियंत्रित करता है। आतंकवाद का मूल भी एक ऐसी ही ज़हरीली विचारधारा में है, जो सिखाती है कि कुछ लोग "सर्वश्रेष्ठ" हैं और दुनिया भर में इस्लामी रियासत कायम करना उनका "फर्ज़" है।
यह अलगाववादी सोच आधुनिक सभ्यता को 'जहालत' (अज्ञान) तथा 'राष्ट्र-राज्य' (Nation-State) की धारणा को 'कुफ्र' (अधर्म) मानती है। यह मानती है कि गैर-मुसलमानों की हुकूमत नाजायज़ है और इसका अंतिम लक्ष्य 'जिहाद का अंतर्राष्ट्रीकरण' करना है। जब युवाओं को सिखाया जाता है कि सिर्फ वही राज करने के अधिकारी हैं, तो उनका अतिवादी बनना तय हो जाता है।
वैचारिक ज़हर का स्वदेशी जवाब
यहीं पर पसमांदा आंदोलन जैसे सामाजिक-सुधार आंदोलन भारतीय मुसलमानों के भीतर समानता और सामाजिक न्याय की वकालत करके एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह आंदोलन अपनी राष्ट्रवादी विचारधारा के साथ युवाओं को देश की मुख्यधारा से जोड़ता है, जो इस विश्वास पर आधारित है कि पसमांदा मुसलमानों की जड़ें विदेशी न होकर स्वदेशी (भारतीय) हैं।
यह दृष्टिकोण 'अशराफ' (कुलीन) दावों और 'हिंदू-मुसलमान' की अलगाववादी राजनीति को खारिज करता है। पसमांदा आंदोलन इस बात पर बल देता है कि भारतीय मुसलमानों की संस्कृति, जैसे खान-पान और रीति-रिवाज,वृहत्तर भारतीय संस्कृति का ही हिस्सा हैं।
यह वैचारिक स्पष्टता कट्टरपंथ के उस ज़हरीले प्रचार को चुनौती देती है, जो युवाओं को 'पीड़ित' बताकर भटकाता है। पसमांदा आंदोलन संघर्ष की दिशा को 'बाहरी' दुश्मन से बदलकर 'आंतरिक' भेदभाव और अशराफवादी सोच के खिलाफ मोड़ देता है। यह युवाओं को नफरत की जगह, अपने हक़ के लिए संविधान के दायरे में रहकर सकारात्मक संघर्ष करना सिखाता है।
लाल किला विस्फोट एक 'लक्षण' है; असली बीमारी 'कट्टरपंथ' है। यह लड़ाई सिर्फ सुरक्षा एजेंसियों की नहीं, बल्कि पूरे समाज की है। इसलिए, इसका समाधान केवल तकनीकी निगरानी से नहीं, बल्कि एक ठोस सामाजिक-वैचारिक रोडमैप से मिलेगा।
यह रोडमैप हमारे संस्थानों से शुरू होता है: हमें विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में "डी-रेडिकलाइज़ेशन प्रोग्राम" चलाने होंगे। इसे डिजिटल दुनिया में जारी रखना होगा, जहाँ नफरती प्रचार का मुकाबला करने के लिए एक 'सकारात्मक राष्ट्रवादी कंटेंट अभियान' की ज़रूरत है।
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई ज़मीन पर है। यहीं पर राष्ट्रवादी पसमांदा आंदोलन की भूमिका निर्णायक हो जाती है। इस वैचारिक आंदोलन को ज़मीनी ताकत देने के लिए, हमें स्थानीय स्तर पर पसमांदा समुदायों में उद्यमिता (Entrepreneurship) और शिक्षा को ठोस रूप से बढ़ावा देना होगा। जब युवाओं के पास सम्मानजनक रोज़गार और आगे बढ़ने के ठोस अवसर होंगे, तो वे नफरत और 'झूठे मकसद' वाले इस जाल में नहीं फँसेंगे।
(अब्दुल्लाह मंसूर,लेखक और पसमांदा बुद्धिजीवी हैं। वे 'पसमांदा दृष्टिकोण' से हैं।)