प्रमोद जोशी
मोटा अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत के प्रति ट्रंप की आक्रमक-नीतियों ने अमेरिका-भारत की दीर्घकालीन साझेदारी को धक्का पहुँचाया है, पर इससे यह निष्कर्ष नहीं लगाया जा सकता है कि भारत रूस और चीन के खेमे में पहुँच गया है.
हाँ, इससे इतना फर्क ज़रूर पड़ा है कि भारत और चीन के रिश्तों में सुधार हुआ है. पर भारत को इन रिश्तों से आर्थिक, तकनीकी और सामरिक-क्षेत्रों में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं होगी. इस सुधार की एक सकारात्मक भूमिका है, जिसे स्वीकार करना चाहिए.
महत्वपूर्ण बात यह है वैश्विक-व्यवस्था में बुनियादी तौर पर बड़े परिवर्तन आ रहे हैं. इन परिवर्तनों का असर संयुक्त राष्ट्र और उसकी वित्तीय संरचनाओं पर भी पड़ेगा. भारत अब किसी एक ग्रुप या गिरोह का पिछलग्गू बनकर नहीं रह पाएगा.
भारत पहले से बहुध्रुवीयता के सिद्धांत का समर्थक है, पर बहुध्रुवीय-व्यवस्था के अपने खतरे भी हैं. जब अनेक प्रकार की शक्तियाँ विश्व में सक्रिय होंगी, तब उनकी गतिविधियों पर नज़रें रखना भी आसान नहीं होगा. उसमें शक्ति-संतुलन की स्थापना सबसे बड़ी जरूरत होगी है.
बहरहाल संकेत इस बात के हैं कि अमेरिका के साथ औपचारिक बातचीत फिर से शुरू हो सकती है. उधर प्रधानमंत्री मोदी और यूरोपीय संघ के नेताओं द्वारा भारत-यूरोपीय संघ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) के ‘शीघ्र समापन’ पर चर्चा के कुछ दिनों बाद, यूरोपीय संघ के दो शीर्ष वार्ताकार, जो व्यापार और कृषि के प्रभारी हैं, इस सप्ताह समझौते के जटिल मुद्दों को सुलझाने के लिए बातचीत करने के लिए भारत आ रहे हैं.
यूरोपीय व्यापार आयुक्त मारोस सेफ्कोविच और कृषि आयुक्त क्रिस्तॉफ हेन्सन इस सप्ताह वार्ता का नेतृत्व करने के लिए दिल्ली में होंगे. इस वर्ष फरवरी में आयुक्तों के कॉलेज के भारत दौरे के बाद यह उनकी पहली यात्रा होगी.
चीन का महत्व
हाल में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की नेता-स्तरीय बैठक की मेजबानी की. 2001में अपनी स्थापना के बाद से, एससीओ कोई खास प्रभावशाली संस्था नहीं रही है.
धीर-धीरे चीन, अमेरिका के बरक्स अपनी वैश्विक उपस्थिति को बढ़ाने का प्रयास कर रहा है. इसे वैश्विक शक्ति संतुलन को नए सिरे से तय करने कोशिश की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. इसे वर्तमान अमेरिकी नेतृत्व की अनिश्चित नीतियों का परिणाम भी माना जा सकता है.
राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने एससीओ शिखर सम्मेलन की भव्यता के माध्यम से चीन के नेतृत्व वाले वैश्विक गठबंधनों की पुनर्रचना के अपने उद्देश्य को छिपाया नहीं. इस सम्मेलन में 20नेता शामिल हुए, जिनमें तुर्की भी शामिल था, जो हाल के वर्षों में चीन के करीब आने का प्रयास कर रहा है.
एससीओ और ब्रिक्स जैसी व्यवस्थाओं में आज भी भारत की दृष्टि से वैसी क्षमता और व्यापक प्रोत्साहन नहीं है जो वास्तविक बहुध्रुवीय व्यवस्था स्थापित कर सकें या मौजूदा व्यवस्था को भौतिक रूप से बाधित कर सकें.
ब्रिक्स की तरह, इसके आयोजन भी अक्सर अमेरिका के नेतृत्व वाली विश्व-व्यवस्था के विभिन्न स्तंभों को कमज़ोर करने की दिशा में प्रतीकात्मक प्रगति के आयोजन जैसे लगते हैं. बहरहाल इस साल भारत की इस खेमे में विशेष उपस्थिति ने दुनिया का ध्यान खींचा.
शिखर सम्मेलन में एक अलग बातचीत में, शी ने यहाँ तक कहा कि अब ‘ड्रैगन और हाथी के साथ नाचने का समय आ गया है.’
अमेरिका के साथ तल्खी
पीएम मोदी द्वारा शी को अपनाना तथा चीन के साथ मधुर संबंध स्थापित करना, अमेरिका के पाँच राष्ट्रपतियों के कार्यकाल के दौरान कई दशकों से चले आ रहे उन प्रयासों के विपरीत है, जिसके तहत भारत को एक दीर्घकालिक साझेदार के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया गया था, जिसके साथ मिलकर अमेरिका चीन की विशाल औद्योगिक क्षमता, तकनीकी कौशल तथा बढ़ती सैन्य क्षमताओं का मुकाबला करने के लिए काम कर सकता था.
इन बातों का प्रतीकात्मक अर्थ ही ज्यादा रहा है, इससे ज्यादा कुछ नहीं. इसके विपरीत हाल में, भारत और अमेरिका ने अमेरिका ने मज़बूत रक्षा और प्रौद्योगिकी साझेदारियाँ विकसित की हैं.
विशेष रूप से आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस और एयरोस्पेस में, जिसमें महत्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकी पर अमेरिका-भारत पहल (आई-सीईटी) और भारत-अमेरिका रक्षा त्वरण पारिस्थितिकी तंत्र (इंडस-एक्स) शामिल हैं. और इसके केंद्र में क्वॉड सुरक्षा संवाद है.
यह सब एक स्वतंत्र और खुले हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए चीन के बढ़ते खतरे का प्रतिकार करने के लिए है. इन पहलों की गति धीमी पड़ेगी, कितनी धीमी, अभी कहना मुश्किल है.
चीन का सीमित महत्व
एक बात स्पष्ट रूप से समझ ली जानी चाहिए कि भारत के लिए अमेरिका का विकल्प नहीं है चीन. क्षेत्रीय झड़पों, आर्थिक तनावों और ऐतिहासिक विश्वासघातों के अलावा भारत को पता है कि चीन का निर्यात-आधारित विकास, इस्लामाबाद के साथ मधुर संबंध और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में फौजी उपस्थिति भारत की सुरक्षा और समृद्धि के लिए अच्छी बातें नहीं है.
पहले दौर में ट्रंप के आक्रामक रुख के बाद फिलहाल दोनों पक्ष हालात का जायजा ले रहे हैं. बैकचैनल संवाद जारी है. दोनों पक्ष फिलहाल मान रहे हैं कि दोनों देश व्यापार पर पूर्ण लड़ाई के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि और इससे पिछले ढाई दशकों में बनाए गए और पोषित रणनीतिक संबंधों को नुकसान पहुँचेगा.
इसकी शुरुआत डॉनल्ड ट्रंप की टिप्पणी पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गर्मजोशी और त्वरित प्रतिक्रिया से हुई है. उम्मीदें अभी बनी हुई हैं. वस्तुतः ऐसी टिप्पणियों से, जिनमें प्रशंसा और आलोचना दोनों शामिल है, से कोई ठोस समाधान नहीं निकलेगा, लेकिन यह भारत और अमेरिका की बिसात पर एक दाँव है, जहाँ नेताओं के बीच व्यक्तिगत-समीकरण भी उतने ही मायने रखते हैं, जितना कि परिश्रमपूर्वक बनाए गए रणनीतिक संबंध.
ऐसा लगता है कि भारत और अमेरिका के बीच बातचीत अनौपचारिक स्तर पर फिर से शुरू हो गई है. इस बात पर भी आम सहमति है कि बातचीत की मेज पर वापस आना ज़रूरी है. दूसरी तरफ यह भी स्पष्ट हो रहा है कि डॉनल्ड ट्रंप की टैरिफ व्यवस्था, खुद संकट में है. यह मामला अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में है.
बेसेंट और नवारो
इसके पहले व्यापार वार्ता ‘बहुत अच्छी’ चल रही थी, पर अमेरिकी वित्तमंत्री स्कॉट बेसेंट की ज़ोर-ज़बरदस्ती और अमेरिकी राष्ट्रपति के सलाहकार पीट नवारो की कठोर टिप्पणियों ने समझौते पर ग्रहण लगा दिया और अंतिम समय में अमेरिका ने हाथ खींच लिया.
दूसरी तरफ अमेरिकी सत्ता-प्रतिष्ठान को इस बात का आभास हो गया है कि उसका ‘कठोर और अनुचित’ रुख वास्तव में वांछित परिणाम नहीं दे रहा है.
एक सूत्र ने कहा, पिछले डेढ़ महीने में दोनों देशों के रिश्ते बहुत बिगड़ गए थे और लगभग आईसीयू में पहुँच गए थे. रिश्तों को फिर से पटरी पर लाने के लिए उच्चतम स्तर पर प्रयास की ज़रूरत है.
भारत-पाकिस्तान
भारत-पाकिस्तान युद्धविराम का ‘श्रेय’ लेने के मामले में भी ट्रंप ने जल्दबाज़ी की. ट्रंप को सुर्खियाँ बटोरने की आदत है, पर संज़ीदा मामलों पर यह बात लागू नहीं होती है.
हालांकि भारत और पाकिस्तान के बीच मुद्दों की मध्यस्थता में भारत किसी तीसरे पक्ष की भागीदारी को स्वीकार नहीं करता है, लेकिन अमेरिका की भूमिका महत्वपूर्ण संदेशवाहक की रही है, जिसमें 1999का कारगिल युद्ध भी शामिल है, जब राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को कड़ी चेतावनी दी थी.
अमेरिकी राष्ट्रपति ने बात को बेहतर ढंग से रखा होगा, तो भारत युद्ध रुकवाने में अमेरिकी की भूमिका के लिए उन्हें धन्यवाद से सकता था, पर ट्रंप ने एक ही बात को बीसियों बार दोहराकर अति कर दी. इतनी ही नहीं पाकिस्तान के फौजी जनरल को अपने साथ बैठाकर एक और अति कर दी. और यह सब सोशल मीडिया में चला. अंततः यह बचकाना हरकत थी, जिसकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी.
(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)
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