ज़ेब अख्तर / रांची
संथाल की धरती, जहाँ गरीबी और भूख हकीकत के रूप में हर दिन लोगों को घेरती है, वहाँ मुजफ्फर हुसैन ने बदलाव की एक नई मिसाल कायम की है. पाकुड़, गुड्डा, साहिबगंज, दुमका, जामताड़ा और दीव – ये छह जिले लंबे समय से गरीबी और पलायन की छाया में जी रहे हैं. लेकिन मुजफ्फर के अथक प्रयासों ने इन कड़वी हकीकतों को चुनौती दी है.
मुजफ्फर का संघर्ष तब शुरू हुआ जब 2013 में भोजन का अधिकार अधिनियम लागू नहीं हो पाया, आज यह कानून है. लेकिन सच्चा काम यह सुनिश्चित करना है कि राशन असली ज़रूरतमंद तक पहुंचे. मुजफ्फर ने इसे अपना जीवन-मिशन बना लिया. उनके प्रयासों से अब लगभग 600 से 700 परिवारों के पास राशन कार्ड हैं और उन्हें नियमित रूप से अनाज मिल रहा है.

उनके अपने गाँव नारायणपुर में एक भूख से मरने वाला व्यक्ति उनके लिए मील का पत्थर साबित हुआ. यह घटना उनके जीवन में एक निर्णायक मोड़ बन गई. उन्होंने कसम खाई कि भूख के खिलाफ खड़ा रहेंगे. अधिकारियों पर दबाव डालकर उन्होंने सुनिश्चित किया कि ज़रूरतमंद परिवारों को हर महीने न्यूनतम 10 किलो चावल मिले.
मुजफ्फर और उनकी टीम ने घर-घर जाकर फॉर्म भरे, राशन कार्ड बनवाए और धीरे-धीरे लोगों को उनके अधिकार समझाए. आज ज़रूरतमंद लोग खुद उनके पास आते हैं. उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि पीडीएस डीलर मनमानी न कर सकें, और प्रत्येक पंचायत में 100 क्विंटल चावल का आपातकालीन स्टॉक रखा जाए.
भूख के खिलाफ लड़ाई के बाद मुजफ्फर ने पलायन के मुद्दे पर काम शुरू किया. उन्होंने स्थानीय मजदूरों के लिए रोजगार सुनिश्चित करने और बाहरी मजदूरों की जगह उन्हें प्राथमिकता देने का दबाव ठेकेदारों पर डाला. इसका असर साफ दिखाई दिया. पलायन कम हुआ और स्थानीय मजदूरों को बेहतर मजदूरी मिली.
मुजफ्फर ने भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने में कभी पीछे नहीं हटे. मनरेगा के सोशल ऑडिटर के रूप में वे भ्रष्टाचार और अनियमितताओं को उजागर करते हैं. सूचना का अधिकार कानून, स्वास्थ्य और मानवाधिकार के मुद्दों पर उनका योगदान भी उल्लेखनीय है.

शिक्षा में पारंगत, उन्होंने अरबी भाषा की पढ़ाई और जामिया मिफ्ता-उल-उलूम से एमए किया, लेकिन उन्होंने शिक्षा को आजीविका के साधन के बजाय सेवा के माध्यम के रूप में अपनाया.
मुजफ्फर हुसैन का सपना है, एक संथाल जहाँ हर घर में खाना हो, हर मजदूर को काम मिले, कोई बच्चा भूखा न सोए और पलायन की मजबूरी खत्म हो. उनका संघर्ष यह साबित करता है कि जब इच्छा शक्ति और साहस हो, तब बदलाव संभव है। संथाल की कहानी में मुजफ्फर हुसैन का नाम हमेशा उन अंधेरों में रोशनी की तरह चमकेगा.
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