नैंसी पेलोसी की ताइवान-यात्रा से पैदा हुआ टकराव

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] • 1 Years ago
नैंसी पेलोसी की ताइवान-यात्रा से पैदा हुआ टकराव
नैंसी पेलोसी की ताइवान-यात्रा से पैदा हुआ टकराव

 

permodप्रमोद जोशी

मेरिकी प्रतिनिधि सदन की स्पीकर नैंसी पेलोसी ताइवान का दौरा करके वापस चली गई हैं, पर अपने पीछे तमाम सवाल छोड़ गई हैं, जिनसे दुनिया में पैर पसारते नए शीतयुद्ध का आग़ाज़ हो रहा है. यह दौरा केवल इतनी बात के लिए याद नहीं किया जाएगा कि पिछले 25 साल में पहली बार अमेरिका का कोई इतना बड़ा नेता ताइवान पहुँचा, बल्कि इतिहास के पन्नों पर इसे इसलिए दर्ज किया जाएगा क्योंकि अब चीन और उसके प्रतिस्पर्धियों के बीच टकराव का एक नया मोर्चा खुलने जा रहा है.

नैंसी पेलोसी के ताइपेह पहुंचने के कुछ ही देर बाद चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा, ‘जो लोग आग से खेल रहे हैं, वे भस्म हो जाएंगे.’ इसे हम अपनी 'संप्रभुता का गंभीर उल्लंघन' और 'वन चायना पॉलिसी' को चुनौती के रूप में देखते हैं. चीन की यह बयानबाज़ी पेलोसी के आगमन के पहले ही शुरू हो गई थी.  हालांकि नैंसी पेलोसी 24 घंटे से भी कम समय तक वहाँ रहीं, पर इस छोटी सी प्रतीक-यात्रा ने दुनिया का माहौल बिगाड़ दिया है.

इस नए घटनाक्रम के साथ भारत की विदेश-नीति से जुड़ा एक नया धर्म-संकट भी पैदा होने वाला है. भारत ‘एक-चीन यानी वन चायना पॉलिसी’ को मानता है. हमने ताइवान को देश के रूप में मान्यता नहीं दी है, पर धीरे-धीरे उसके साथ राजनयिक रिश्ते बना रहे हैं. चीन के प्रतिस्पर्धी देशों में भारत का नाम भी शामिल है. बावजूद इसके कि हम अमेरिकी खेमे में खुलेआम नहीं हैं. बहरहाल भारतीय नीति को लेकर अलग से विचार करने की जरूरत है.

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अब क्या होगा ?

सवाल उठ रहे हैं कि इसके बाद क्या ? चीन अब ताइवान के प्रति ज्यादा आक्रामक होगा. इस दौरान उसके विमानों ने ताइवान की खाड़ी के ऊपर उड़ानें भरी हैं और प्रिसीशन बमबारी का अभ्यास भी किया है. भविष्य में यदि वह सैनिक कार्रवाई करेगा, तो क्या अमेरिका उसकी मदद में आएगा ?

विदेश-नीतियाँ आमतौर पर थोड़े से वक्त के लिए नहीं होतीं. यानी कि एकबार कदम बढ़ा देने के बाद उन्हें वापस खींचने की संभावनाएं कम होती हैं. जापान के दक्षिण से होकर ताइवान, फिलीपींस से होते हुए दक्षिण चीन सागर तक द्वीपों की जो श्रृंखला जाती है उसके देश अमेरिका के सहयोगी हैं. पचास के दशक में अमेरिका ने जो ‘आइलैंड-चेन रणनीति’ बनाई थी, उसका यह हिस्सा है.

अमेरिकी विदेश-नीति, खासतौर से हिंद-प्रशांत नीति में इन द्वीपों का विशेष महत्व है. ताइवान का केवल सामरिक महत्व नहीं है, बल्कि आर्थिक-दृष्टि से भी यह देश बेहद महत्वपूर्ण है. सेमी-कंडक्टर के क्षेत्र में दुनिया का आधे से ज्यादा कारोबार ताइवान में केंद्रित है. दुनिया का इलेक्ट्रॉनिक्स-उद्योग जिस चिप के सहारे चलता है, वह सेमी-कंडक्टर है. इस कारोबार में चीन अभी पिछड़ा हुआ है.

ताइवान का महत्व

जैसे-जैसे चीन की आर्थिक और सामरिक-शक्ति बढ़ रही है, वैसे-वैसे इस इलाके में तनाव बढ़ रहा है. सामरिक-दृष्टि से भी ताइवान बेहद महत्वपूर्ण है. चीन के नियंत्रण में इसके जाने का मतलब है, अमेरिका-प्रभाव का कम होना.

प्रशांत क्षेत्र के ग्वाम और हवाई में मौजूद अमेरिकी सैनिक-अड्डे असुरक्षित हो जाएंगे। जनवरी 2019 में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने कहा था कि ताइवान यदि शांतिपूर्ण तरीके से चीन में वापस आने को तैयार नहीं हुआ, तो हम सैनिक-कार्रवाई भी कर सकते हैं. विशेषज्ञ मानते हैं कि शी चिनफिंग अपने कार्यकाल में ही ताइवान पर कब्जा चाहते हैं, ताकि देश के एकीकरण के लिए उन्हें हमेशा याद रखा जाए.

ताइवान का आधिकारिक नाम है रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (आरओसी)। यह नाम सन 1912 से यह मेनलैंड चीन के लिए इस्तेमाल होता रहा है. यह 1950 तक सर्वमान्य था. पर आज मेनलैंड चीन का नाम पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) है, जो 1949 के बाद रखा गया. पहले यह फॉरमूसा नाम से प्रसिद्ध था और 17 वीं सदी से पहले चीन से अलग था। 17 वीं सदी में डच और स्पेनिश उपनिवेशों की स्थापना के बाद यहाँ चीन से हान लोगों का बड़े स्तर पर आगमन हुआ.

सन 168 3में चीन के अंतिम चिंग राजवंश ने इस द्वीप पर कब्जा कर लिया. उन्होंने चीन-जापान युद्ध के बाद 1895 में इसे जापान से जोड़ दिया. उधर चीन में 1912में चीनी गणराज्य की स्थापना हो गई, पर ताइवान, जापान के अधीन रहा.

सन 1945 में जापान के समर्पण के बाद यह चीनी गणराज्य के हाथों में चला गया. उन दिनों चीन में राष्ट्रवादी पार्टी कुओमिंतांग और कम्युनिस्टों के बीच युद्ध चल रहा था। सन 1949में माओ-जे-दुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने च्यांग काई शेक के नेतृत्व वाली कुओमिंतांग पार्टी की सरकार को परास्त कर दिया.

माओ के पास नौसेना नहीं थी, इसलिए वे समुद्र पार करके ताइवान पर कब्जा नहीं कर सके. ताइवान तथा कुछ द्वीप कुओमिंतांग के कब्जे में ही रहे.

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वह बचा कैसे रहा ?

काफी समय तक दुनिया ने साम्यवादी चीन को मान्यता नहीं दी. पश्चिमी देशों ने ताइवान को ही चीन माना. संयुक्त राष्ट्र के जन्मदाता देशों में वह शामिल था। सन 1971तक साम्यवादी चीन के स्थान पर वह संरा का सदस्य था. साठ के दशक में इस देश ने बड़ी तेजी से आर्थिक और तकनीकी विकास किया.

अस्सी और नब्बे के दशक में कुओमिंतांग के अधीन एक दलीय सैनिक तानाशाही की जगह यहाँ बहुदलीय प्रणाली ने ले ली. यह देश इलाके के सबसे समृद्ध और शिक्षित देशों में गिना जाता है. सन 1971के बाद से यह संयुक्त राष्ट्र का सदस्य नहीं है. देश की आंतरिक राजनीति में भी चीन में शामिल हों या नहीं हों, इस आधार पर राजनीतिक दल बने हैं.

ताइवान के ज्यादातर लोग चीन के साथ एकीकरण के विरोधी हैं, फिर भी कुछ समर्थक भी हैं. विरोध के पीछे कई तरह के कारण हैं. कुछ को लगता है कि ताइवान का लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा, मानवाधिकार नहीं बचेंगे, ताइवानी राष्ट्रवाद समाप्त हो जाएगा, उनके जापान के प्रति हमदर्दी वाली भावनाओं का दमन कर दिया जाएगा.

वे चाहते हैं कि या तो यथास्थिति बनी रहे या फिर देश खुद को स्वतंत्र घोषित कर दे. आरओसी (ताइवान) के संविधान में कहा गया है कि मेनलैंड चीन भी उसका हिस्सा है, पर व्यावहारिक रूप से उसका अस्तित्व ताइवान तक सीमित है.

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बदलती स्थितियाँ

कुछ पश्चिमी देशों ने च्यांग काई शेक द्वारा स्थापित ताइवान के 'रिपब्लिक ऑफ चायना' को चीन की एकमात्र वैध सरकार के रूप में मान्यता दी थी. लेकिन 1971में संयुक्त राष्ट्र संघ ने ताइवान की मान्यता रद्द करके कम्युनिस्ट चीन को चीन के रूप में मान्यता दे दी.

इसके बाद ज्यादातर देशों ने उसके साथ राजनयिक रिश्ते तोड़ लिए. आज संरा के 193 सदस्यों में से केवल 13 देशों और वैटिकन के साथ ही उसके राजनयिक संबंध हैं. इसकी एक वजह यह भी है कि काफी देश चीन के साथ रिश्ते बिगाड़ना नहीं चाहते. बावजूद इसके अमेरिका के साथ रिश्ते बने हुए हैं. अमेरिकी की नीति में भी द्वंद्व देखा जा सकता है.

1971 में केवल संरा ने ही ताइवान की जगह कम्युनिस्ट चीन को असली नहीं माना, अमेरिका ने भी चीन के साथ रिश्ते जोड़े. पाकिस्तान के मार्फत अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन और उनके विदेशमंत्री हेनरी किसिंजर ने चीन के साथ संपर्क साधा. उन्हें लगता था कि सोवियत संघ का सामना करने के लिए चीन को अपने साथ रखना चाहिए.

सन 1979 में अमेरिका ने चीन के साथ राजनयिक संबंध स्थापित कर लिए, जिसके बाद ताइवान को अमेरिकी मान्यता खत्म हो गई. बावजूद इस बदलाव के अमेरिकी कंपनियों के रिश्ते ताइवान के साथ बने रहे.

अमेरिकी संसद ने 1982 में ‘सिक्स एश्योरेंसेज़’ शीर्षक से एक प्रस्ताव पास करके ताइवान को भरोसा दिलाया कि हम आपके हितों की रक्षा करते रहेंगे. आर्थिक-दृष्टि से ताइवान यूरोप के मानकों से भी बेहतर देश है.

उसकी आर्थिक-क्षमताओं को देखते हुए और कम्युनिस्ट चीन के बिगड़ते रुख को देखते हुए अमेरिका की नीतियों में एक और बड़ा बदलाव 16 मार्च, 2018 को आया, जब अमेरिकी संसद ने ‘यूएस-ताइवान रिलेशंस एक्ट (टीआरए)’ पास किया, जिसके तहत अमेरिकी सरकार को ताइवान की जनता और वहाँ की सरकार के साथ रिश्ते बनाए रखने की अनुमति दे दी.

इसके बाद 13 सितंबर, 2019 को दोनों देशों ने वाणिज्य-दूत के रिश्ते कायम किए और 9 जनवरी, 2021 को सरकारों के बीच रिश्तों पर लगी रोक को भी हटा दिया। नैंसी पेलोसी का यात्रा एक तरह से उस झिझक को पूरी तरह खत्म करने की कोशिश है, जो 1979 में कम्युनिस्ट चीन को मान्यता देने के बाद से चल रही थी. 

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अमेरिका में बहस

इन सब बातों के बावजूद पेलोसी की इस यात्रा के निहितार्थ को लेकर अमेरिका में ही बहस है. पहला सवाल है कि ऐसे मौके पर जब रूस के यूक्रेन अभियान के कारण दुनिया में परेशानी की लहर है, चीन को छेड़ने की जरूरत क्या थी ? अमेरिकी प्रशासन के भीतर से जो खबरें छनकर बाहर आ रही हैं, उनसे लगता है कि सेना इस समय छेड़खानी करने के पक्ष में नहीं थी. लड़ाई छिड़ गई, तो क्या होगा ?

दूसरी तरफ यह कहा जा रहा है कि चीन आने वाले समय में हमारा सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी होगा. उसकी मुश्कें अभी से कस कर रखी जाएं. ताइवान में पश्चिमी देशों जैसा लोकतंत्र है. वहाँ की 2.4 करोड़ की आबादी चीन जैसी तानाशाही की विरोधी है.

इसके अलावा ताइवान के साथ अमेरिका के सामरिक हित भी जुड़े हैं. उसपर हमला हुआ, तो हमें सामने आना ही होगा. नैंसी पेलोसी के पहले 1997 में एक और स्पीकर न्यूट जिंजरिच ने भी ताइवान की यात्रा की थी. इसमें नई बात क्या है ?

एक और नजरिया है कि इन दिनों चीन में अपनी व्यवस्था को लेकर अंदरूनी बहस चल रही है. एक तरफ शी चिनफिंग पार्टी को फिर से वापस कट्टर कम्युनिज्म की ओर ले जाना चाहते हैं, वहीं खुलेपन की प्रवृत्तियाँ भी अंगड़ाई ले रही हैं.

इस साल शी चिनफिंग के कार्यकाल को तीसरी बार बढ़ाया जा रहा है, जिसके राजनीतिक निहितार्थ हैं. ऐसे में चोट करना सही है. बहरहाल अमेरिका ने जोखिम मोल ले ही लिया है, तो देखें कि अब होता क्या है.

( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )