सिर्फ नाम ही नहीं काम में भी हैं सिकंदर, जानिए कौन हैं गया के वृक्षमित्र

Story by  जितेंद्र पुष्प | Published by  [email protected] • 1 Years ago
गया के 'सिकंदर'
गया के 'सिकंदर'

 

जितेंद्र पुष्प/ गया

गोरा बदन, छरहरी काया, मजबूत मशल के मालिक सिकंदर ने अपने काम की शुरुआत वहां से की है जहां लोगों की जिंदगी का अंत होता है. नब्बेके दशक में इस युवक ने गया श्मशान घाट के पास फल्गु नदी में फेके गये अर्थी के बांस को लाकर बम्हयोनी पहाड़ी की तलहटी की घेराबंदी की. उन्होंने उस घेरे में छोटे-छोटे पौधे लगाए. बहंगी से पानी लाकर उन पौधों को सींचा, जो आज पेड़ के रूप में दिख रहे हैं. अब तो इन पौधों में फल भी लगने लगे हैं.

गया की गर्मी सर्वविदित है. पूरे बिहार राज्य में सर्वाधिक गर्मी गया में पड़ती है. गया शहर पहाड़ियों से घिरा है और इसी वजह से यहां भयानक गर्मी के साथ-साथ पानी की घोर किल्लत भी होती है.

गरमी के उरूज पर जाते ही गया शहर का तापमान 45डिग्री से अधिक हो जाता है. ऐसे में बाकी लोग तो गर्मी से बचने के लिए अपने घरों में दुबके होते हैं. लेकिन सिकन्दर चिलचिलाती घूप में पौधों को सींचने में लगे होते हैं. इनकी चिंता यह होती है कि पानी के बिना पौधे सूख न जाए.

सिकंदर ने अपनी पूरी जवानी ब्रम्हयोनी पहाड़ी की तलहटी के कंक्रीटों और उस कंक्रीटो को खोद कर लगाये गये छोटे-छोटे पौधों संग गुजारी है.

दिलीप उर्फ सिकंदर कहते हैं मेरे पांच नहीं पांच हजार बच्चे हैं. क्योंकि उन्होंने इन पौधों को बच्चों की तरह ही सेवा की है.

सिकंदर कहते हैं, “ब्रह्मयोनि पहाड़ी की तलहटी में मेरा बचपन बीता है. तब पहाड़ पर हरियाली थी. कुछ स्वार्थी तत्वों ने पहाड़ के पौधों को व्यक्तिगत स्वार्थ में काटकर समाप्त कर दिया, यह मुझसे नहीं देखा गया.”

वह आगे कहते हैं कि अगर पेड़ नहीं होगें तो जीवन नहीं होगा. वह बताते हैं, “मैनें पेड़ लगाना शुरू किया. पथरीली भूमि को मैने काटकर चार फुट गड्ढा किया. दो फुट में रुक्मिनी तालाब के मिट्टी को डाला, उसके बाद पेड़ लगाया. एक फुट गड्ढा खाली छोड़ देता था ताकि पहाड़ के ढलान का पानी उसमें जमा हो सके.”

सिकंदर बताते हैं कि पथरीली भूमि में पेड़ लगाने की तकनीक उन्होंने खुद से सीखी है. चूंकि पहाड़ के ढलान पर पौधा लगाना दुरूह काम है. इसका मुख्य कारण यह है कि पहाड़ का ढलान सीधी है. बरसात के दिनों में बारिश का पानी कहीं रुकता नहीं, सीधे नीचे चला आता है. इससे भी ज्यादा मेहनत का काम है पौधों को सींचना. गर्मी के दिनों में इतने सारे पौधों को बचाने के लिए डालडा वाले प्लास्टिक के गैलेन में रुक्मिणी तालाब या चापाकल से पानी लाकर सींचते हैं.

ऐसा नहीं कि सिकंदर द्वारा पेड़ लगाने का काम रुक गया है. हां, इतना जरूर है कि अब बड़े पौधों को पटाने की जरूरत कम हो गई है.

सबसे बड़ी बात यह है कि सिकंदर ने जिस स्थान पर वृक्षारोपण कर हरियाली लायी है वह स्थान पितृवाटिका के नाम से जाना जाता है. संवास सदन समिति गया की पहल पर वन एवं पर्यावरण विभाग बिहार के सचिव के.ए.एच. सुब्रह्मण्यम ने 12सितंबर 1992को पितृवाटिका की शुरुआत की थी. 251रूपये प्रति पेड़ बतौर देखभाल के लिए पिंडदानियों से जमा कराकर अपने पूर्वजों की याद में वृक्ष लगवाया था. देश के विभिन्न प्रदेशों के 175लोगों ने निर्धारित राशि जमा की थी.

संवास सदन समिति और वन विभाग के साथ हुए सशर्त समझौता के अनुसार समिति नें पौधों की देखभाल के लिए वन विभाग को 2,44,263रूपये सौंपे थे. परंतु वन विभाग की लापरवाही के कारण दो वर्षों में ही पितृवाटिका वृक्ष विहीन हो गया.

सिकंदर ने पितृवाटिका को श्मशान घाट के बांस से घेराबंदी कर फलदार और इमारती लकड़ियों का पौधा लगाया. फिर क्या वृक्षविहीन पितृवाटिका में पुनः हरियाली लौट आयी. सिकंदर ने प्रत्येक पौधे के पास देश के महापुरूषों के नाम की तख्ती लगायी. फलस्वरूप यह स्थान अब चमन बन गया है. वे चाहते हैं कि प्रकृति की गोद में स्थित यह स्थान पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो.

वह बताते हैं, “इन कार्यों में सरकारी या गैर सरकारी स्तर पर किसी ने अब तक मदद नहीं की है.”

इस बात का मलाल सिकंदर को है. सिकंदर की पत्नी प्रमिला देवी की पति से नाराजगी का कारण भी यही है. प्रमीला रुंधे स्वर में कहती है, “इनके इसी तरह के काम से नाराज होकर परिवार के लोगों ने अलग कर दिया. इनकी चिंता बच्चो के लिए कम पेड़ों के लिए ज्यादा है. ये (पति) चिंतित इसलिए रहते हैं कि पानी के बिना पेड़ सूख जाएंगे, पेड़ को गाय-बकरियां चर जाएगी. अपने बच्चें की चिंता इनकी नहीं के बराबर है.”

सिकंदर उस शख्स का नाम है जिसके अन्दर समुदाय बोध है. वह सिर्फ अपने लिए ही नही औरों के लिए भी जीता है. यूं तो सिकंदर पांच बच्चों के पिता हैं पर उनकी चिंता पांच की कम, पांच हजार की ज्यादा है.

पेशे से इलेक्ट्रिशियन सिकंदर जो कुछ कमाते हैं, उस कमाई की आधी राशि पौधे खरीदने, उसमें दवा, खाद, गोबर व अन्य आवश्यक जरूरतों को पूरा करने में खर्च कर देते हैं.

गौर करने की बात यह है कि महादलित परिवार के दशरथ मांझी ने इसी गया जिला के गेहलौर घाटी में छेनी और हथौड़ी से पहाड़ को काटकर रास्ता बना दिया था, जो आज पर्वत पुरुष के रूप में प्रचलित हो गये हैं. ठीक उस प्रकार विपरीत परिस्थितियों में पेड़-पौधों से प्रेम करने बाले सिकंदर को लोग प्रकृति पुरूष के रूप में चर्चा करने लगे हैं.