कौन हैं तालिबान

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] • 2 Years ago
फाइल फोटोः काबुल पर कब्जे के लिए जाते तालिबान
फाइल फोटोः काबुल पर कब्जे के लिए जाते तालिबान

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी के साथ ही वहां पर संघर्ष तेज हो गया है. अफगानिस्तान एक बार फिर, खुले तौर पर गृहयुद्ध की तपिश झेल रहा है, जिसमें एक तरफ अफगानी सेना है तो दूसरी तरफ तालिबान.

कौन है ये तालिबान, जिन्होंने न सिर्फ अफगानिस्तान में तबाही मचा रखी है बल्कि भारत समेत आस-पड़ोस के देशों के लिए खतरा माने जाते हैं?

पश्तो भाषा में तालिबान का मतलब होता हैः छात्र. पख्तून कबाली अफगानिस्तान में बहुसंख्यक है और देश के दक्षिणी और पूर्वी इलाकों में इनकी आबादी ज्यादा है. पाकिस्तान के भी उत्तरी और पश्चिमी इलाकों में इनकी खासी आबादी है.

तालिबान ने बामियान में बुद्ध की प्रतिमा नष्ट कर दी थी

विध्वंसः तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के विरोध के बावजूद बामियान में बुद्ध की प्राचीन प्रतिमा गोलाबारी करके नष्ठ कर दी 


नब्बे के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ अफगानिस्तान में अपने सैनिकों के हताहत होने से परेशान हो गया था और वहां से अपनी फौज वापस बुला रहा था, उसी दौर में तालिबान उभरे थे.

इस समूह का गठन अफगानी मुजाहिदीन यानी इस्मामी गुरिल्ला छापेमारों ने किया था. ये मुजाहिदीन 1979 से 1989 के बीच अफगानिस्तान में सोवियत संघ की मौजूदगी की हथियारबंद मुखालफत कर रहे थे. माना जाता है कि सोवियत संघ की सेना के खिलाफ इस संघर्ष में अफगानी मुजाहिदीन की पीछे से मदद अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आइएसआइ) कर रही थी.

समझा जाता है कि तालिबान यानी पश्तो आंदोलन पहले मदरसों में उभरा और इसके लिए सऊदी अरब ने रकम मुहैया कराई. तालिबान आंदोलन में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था.

बहरहाल, इस आंदोलन के साथ पख्तून कबीलाई नौजवान जुड़ते चले गए. इनमें से अधिकतर लोग पाकिस्तानी मदरसों में पढ़कर आए थे.

अफगानिस्तान में सोवियत युग की समाप्ति के ठीक बाद तालिबान को समर्थन मिलने लगा क्योंकि उन्होंने वहां पर स्थिरता और कानून के शासन का वादा किया. तालिबान को लोकप्रियता इसलिए भी मिली क्योंकि 1992-1996 के चार सालों में प्रतिद्वंद्वी कबीलाई गुटों और मुजाहिदीन की संघर्ष से लोग ऊब गए थे.

तालिबान से पहले का अफगानिस्तान

अच्छे दिनः तालिबान से पहले दौर में स्त्रियों को अफगानिस्तान में काफी आजादी थी


नवंबर, 1994 में तालिबान कंधार मे प्रवेश कर गए, जो उस वक्त अफगानिस्तान का आपराधिक राजधानी थी. इसी दौरान दक्षिण-पश्चिम अफगानिस्तान में तालिबान का असर तेजी से बढ़ा. सितंबर, 1995में उहोंने ईरान की सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्ज़ा कर लिया.

सितंबर, 1996 में तालिबान ने राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया. उस वक्त अफगानिस्तान के राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी थे, जो ताजिक कबीले के थे और जिन्हें तालिबान पख्तून-विरोधी और भ्रष्ट मानता था. उसी साल तालिबान ने अफगानिस्तान को इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया और मुल्ला उमर ने बतौर अमीर-अल-मोमिन के तौर पर बागडोर संभाल ली. मुल्ला उमर सोवियत विरोधी संघर्ष में शामिल रह चुका था.

तालिबान से पहले के अफगानिस्तान में महिलाओं की शिक्षा पर पाबंदी नहीं थी

पुराने दिनः महिलाओं की शिक्षा पर तालिबान से पहले अफगानिस्तान में कोई बंदिश नहीं थी


कब्जे के बाद से तालिबान अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच फैले पख्तून बहुल क्षेत्रों में शांति और सुरक्षा के साथ-साथ शरीयत के कट्टरपंथी संस्करण को लागू करने का वादा करने लगे थे.

बहरहाल, तालिबान ने अपने कब्जे वाले इलाकों में शरीया कानून को कड़ाई से लागू कर दिया. तालिबान न्याय व्यवस्था में शरीया की व्याख्या पख्तून कबीले की इस्लाम-पूर्व कबीली नियमों से होती थी, और इस पर मदरसों के सऊदी असर वाले वहाबी रंग साफ दिखते थे. इस शासन ने सामाजिक सेवाओं को अनदेखा कर दिया, बल्कि किसी राज्य व्यवस्था में कामकाज का बुनियादी ढांचा भी नदारद था. तालिबान हर उस गतिविधि पर बंदिश आयद दर देता था, जिसे उसके मौलवी गैर-इस्लामिल करार देते थे.

तालिबान शासन में महिलाओं को सिर से पैर तक चदरी या बुरका पहनना होता था, यहां पर संगीत, सिनेमा और टेलिविजन पर रोक लगा दी गई और हर उस शख्स को जेल भेज दिया गया जिसकी दाढ़ी इसे बहुत छोटी प्रतीत होती थी. लेकिन इसी दौरान तालिबान ने सजा देने के इस्लामिक तौर तरीके लागू कर दिए और हत्या और व्यभिचार के दोषियों को सार्वजनिक तौर पर फांसी देना और चोरी के मामले में दोषियों के अंग भंग करने जैसी सजाएं शामिल थीं.

1998आते-आते, करीब 90फीसद अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा हो गया था. तालिबान पर मानवाधिकार के उल्लंघन और सांस्कृतिक दुर्व्यवहार से जुड़े कई आरोप लगने शुरू हो गए थे. हद तब हो गई जब 2001 में तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध के बावजूद मध्य अफगानिस्तान में बामियान में बुद्द की प्रतिमा को गोलाबारी के जरिए नष्ट कर दिया.

11सितंबर, 2001को न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद दुनिया भर का ध्यान तालिबान पर गया. अल कायदा के कुख्यात सरगना ओसामा बिन लादेन उन दिनों अफगानिस्तान में छिपा था और उसे शरण देने के आरोप तालिबान पर लगे.

बहरहाल, 7 अक्टूबर, 2001को अमेरिकी नेतृत्व में सैन्य गठबंधन ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया और दिसंबर के पहले सप्ताह में तालिबान का शासन खत्म हो गया. लादेन और तब तालिबान प्रमुख रहे मुल्ला मोहम्मद उमर और उसके दूसरे साथी वहां से भाग निकले और माना जाता है कि इन लोगों ने पाकिस्तान के क्वेटा शहर में पनाह ली.

आतंक के सरगना

आतंक का स्रोतः तालिबान ने कंधार विमान अपहरण में आतंकियों का साथ दिया


आइएसआइ की शह के बाद अमेरिका के नेतृत्व में सैन्य गठबंधन के सैनिकों की मौजूदगी के बाद भी तालिबान ने धीरे-धीरे खुद को मजबूत किया और उनका असर फिर से अफगानिस्तान में बढ़ने लगा. नतीजतन, वहा पर एक बार फिर अशांति का खतरा उपजा है.

सितंबर, 2012में तालिबान लड़ाकों ने काबुल में कई हमले किए और नाटो के कैंप पर भी धावा बोला. अगस्त, 2015में तालिबान ने माना कि उसने मुल्ला उमर की मौत को दो साल से अधिक वक्त तक जाहिर नहीं होने दिया. मुल्ला उमर की मौत पाकिस्तान के एक अस्पताल में हुई थी.

इसी महीने तालिबान ने मुल्ला मंसूर को अपना नया नेता चुने जाने का ऐलान किया, जो मई, 2016 में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारा गया. उसके बाद तालिबान उसके नायब रहे मौलवी हिब्तुल्लाह अख़ुंज़ादा को सौंपी गई. और मौजूदा वक्त में अखुंजादा ही तालिबान का अगुआ है.

बहरहाल, अमेरिका के नव-निर्वाचि राष्ट्रपति जो बाइडन ने अप्रैल, 2021में ऐलान कर दिया कि 11सितंबर तक सभी अमेरिकी सैनिक वापस लौटेंगे. इसके बाद से, तालिबान को फिर से बढ़त मिलनी शुरू हुई. मौजूदा वक्त में 85,000 लड़ाकों वाले तालिबाना का दावा है कि इसने अफगानिस्तान के 85 फीसद हिस्से पर नियंत्रण स्थापित कर लिया है.