कृष्ण प्रेम में लीन मुस्लिम कवि: धर्म की सीमाओं से परे

Story by  ओनिका माहेश्वरी | Published by  onikamaheshwari | Date 30-08-2024
Krishna Janmashtami 2024 : From Rahim to Raskhan, these Muslim poets also loved Krishna, praised him like this
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ओनिका माहेश्वरी/ नई दिल्ली

जहां प्रेम है वहां कृष्ण हैं. यूं तो कृष्ण भगवान अपनी 16 कलाओं के लिए जाने जाते हैं. लेकिन मनुष्यों में वे प्रेम रूप से निवास करते हैं. जिनके भक्त कुछ मुस्लिम भी बने और वे भी कृष्ण भक्ति में लीन हो गए.
 
 
भगवान कृष्‍ण के जन्‍मोत्‍सव यानी कृष्‍ण जन्‍माष्‍टमी की खुशियां देशभर में छाई हैं. इस मौके पर आज हम बात करेंगे उन मुस्लिम कृष्ण प्रेमियों के बारे में जिन्‍हें सारी दुनिया कृष्‍ण भक्‍त के नाम से जानती है.
 
 
सैयद इब्राहिम उर्फ रसखान
 
भगवान कृष्‍ण के परम भक्‍तों में से एक हैं रसखान. उनका असली नाम सैयद इब्राहिम था, मगर कृष्‍ण के प्रति उनके लगाव और उनकी रचनाओं ने उन्‍हें रसखान नाम दिया. रसखान यानी रस की खान. कहा जाता है कि रसखान ने भागवत का अनुवाद फारसी में किया था. मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गांव के ग्वारन, रसखान की ही देन है.
 
रसखान ने ब्रज भाषा में अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की लीलाओं का इतना सुबोध और सरस वर्णन किया है कि बड़े-बड़े धर्माचार्य भी उनके पदों को दोहराते हुए भावविभोर हो उठते हैं. भक्तकवि रसखान ने जहाँ अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण के अनुपम सौन्दर्य का वर्णन किया है, वहीं उनकी ललित लीलाओं की विभिन्न झाकियाँ प्रस्तुत कर भक्तजनों को अनूठे प्रेम रस में डुबो देने में वे पूर्ण सक्षम रहे हैं. उनके लिखे कवित्त और सवैये ‘सुजान रसखान’ ग्रंथ में संग्रहीत हैं. ‘प्रेमवाटिका’ ग्रंथ उनके दोहों का संकलन है.
 
अमीर खुसरो
 
ग्यारहवीं शताब्दी के बाद इस्लाम भारत में तेजी से फैला. भारत में इस्लाम कृष्ण के प्रभाव से अछूता नहीं रह पाया. इसी वक्‍त चर्चा में आए अमीर खुसरो. एक बार निजामुद्दीन औलिया के सपने में कृष्‍ण आए. औलिया ने अमीर खुसरो से कृष्ण की स्तुति में कुछ लिखने को कहा तो खुसरो ने मशहूर रंग ‘छाप तिलक सब छीनी रे से मोसे नैना मिलायके’ कृष्ण को समर्पित कर दिया.
 
अमीर खुसरों ने भी भगवान कृष्ण की महिमा का गुणगान कुछ ऐसा किया, जो आज तक लोगों की जुबां पर कायम है.
 
अमीर खुसरो की इस रचना ने रचा इतिहास
 
‘छाप तिलक सब छीन ली रे मोसे नैना मिलाइ के’
 
‘…ऐ री सखी मैं जो गई थी पनिया भरन को, छीन झपट मोरी मटकी पटकी मोसे नैना मिलाईके…’
 
आलम शेख
 
आलम शेख़ रीति काल के कवि थे. उन्होंने ‘आलम केलि’, स्याम स्नेही’ और माधवानल-काम-कंदला’ नाम के ग्रंथ लिखे. ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि आलम हिंदू थे जो मुसलमान बन गए थे. उन्‍होंने कृष्‍ण की बाल लीलाओं को अपनी रचनाओं में उतारा था. उनकी प्रमुख रचना ‘पालने खेलत नंद-ललन छलन बलि, गोद लै लै ललना करति मोद गान’ है.
 
नशीर मामूद
 
यह भी बंगाल से ही आते हैं. इनका जो पद मिला है वह गौचारण लीला का वर्णन करता है. पद भाव रस से पूर्ण है. श्रीकृष्‍ण और बलराम मुरली बजाते हुए गायों के साथ खेल रहे हैं। सुदामा आदि सखागण उनके साथ हैं. इनकी रचना इस प्रकार है… धेनु संग गांठ रंगे, खेलत राम सुंदर श्‍याम.
 
उमर अली
 
यह बंगाल के प्राचीन श्रीकृष्‍ण भक्‍त कवियों में से एक हैं. इनकी रचनाओं में भगवान कृष्‍ण में समाए हुए राधाजी के प्रति प्रेम भाव को दर्शाया गया है. इन्‍होंने बंगाल में वैष्‍णव पदावली की रचना की है.
 
नवाब वाजिद अली शाह
 
यूं तो फैजाबाद का प्रेम भगवान राम के प्रति जगजाहिर है.  मगर वहां से निकले और लखनऊ आकर बसे नवाबों के आखिरी वारिस वाजिद अली शाह कृष्‍ण के दीवाने थे. 1843 में वाजिद अली शाह ने राधा-कृष्ण पर एक नाटक करवाया था. लखनऊ के इतिहास की जानकार रोजी लेवेलिन जोंस ‘द लास्ट किंग ऑफ़ इंडिया’ में लिखती हैं कि ये पहले मुसलमान राजा (नवाब) हुए जिन्होंने राधा-कृष्ण के नाटक का निर्देशन किया था. लेवेलिन बताती हैं कि वाजिद अली शाह कृष्ण के जीवन से बेहद प्रभावित थे. वाजिद के कई नामों में से एक ‘कन्हैया’ भी था.
 
नजीर अकबराबादी को कहा जाता था दूसरा रसखान
 
नजीर अकबराबादी का कृष्ण प्रेम मिसाल के तौर पर दर्ज दिखता है. राधा के साथ मीरा के कृष्ण प्रेम की जिस तरह तुलना की जाती है, वैसे ही नज़ीर के कृष्ण काव्य की तुलना रसखान से किए जाने की गुंजाइशें निकाली जाती हैं. उनकी एक प्रसिद्ध कृष्ण प्रेम है. 
 
तू सबका ख़ुदा, सब तुझ पे फ़िदा, अल्ला हो ग़नी, अल्ला हो ग़नी
है कृष्ण कन्हैया, नंद लला, अल्ला हो ग़नी, अल्ला हो ग़नी
तालिब है तेरी रहमत का, बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा
तू बहरे करम है नंदलला, ऐ सल्ले अला, अल्ला हो ग़नी, अल्ला हो ग़नी
 
सालबेग की मजार
 
जगन्‍नाथुपरी की यात्रा के दौरान रथ एक मुस्लिम संत की मजार पर रुककर ही आगे बढ़ता है. यह मुस्लिम संत थे सालबेग. सालबेग इस्लाम धर्म को मानते थे. उनकी माता हिंदू और पिता मुस्लिम थे. सालबेग मुगल सेना में भर्ती हो गए. एक बार उसके माथे पर चोट लगने के कारण बड़ा घाव हो गया. कई हकीमों और वैद्यों से इलाज के बाद भी उसका जख्म ठीक नहीं हो रहा था. तब उनकी माता ने उसे भगवान जगन्नाथजी की भक्ति करने की सलाह दी. वह दिनोंरात ईश्‍वर की भक्ति में रमा रहता. फिर उसके सपने में स्‍वयं जगन्‍नाथजी ने आकर उसे भभूत दी. सपने में उस भभूत को माथे पर लगाते ही उसका सपना टूट जाता है. फिर वह देखता है कि उसका घाव वाकई में सही हो जाता है. फिर उसकी मृत्‍यु के बाद वहां उस स्‍थान पर उसकी मजार बनी है और हर साल यात्रा के वक्‍त जग्‍गनाथजी का रथ यहां रुकता है.
 
 
रहीम की कृष्ण भक्ति
 
भगवान कृष्ण की भक्ति में डूबने वाले कवियों में रहीम का नाम कर कोई जानता है. रहीम का पूरा नाम अब्दुल रहीम खानखाना था. कृष्णा प्रेमी कबीर ने अपने मस्तक पर कृष्ण की भांति ही मोर पंख भी धारण किया. भगवान कृष्ण के मन को मोहने वाले रूप का गुणगान करते हुए रहीम खानखाना कहते हैं कि :
 
जिहि रहीम मन आपनो , कीन्हों चारु चकोर। निसि-वासर लाग्यो रहे ‘कृष्ण’ चन्द्र की ओर ।।
 
कान्हा की भक्ति में डूबकर रहीम कहते हैं:
 
मोहन छबि नैनन बसी, पर-छबि कहां समाय। रहिमन भरी सराय लखि आप पथिक फिरि जाय।।
 
भक्ति और सूफ़ीवाद का रिश्ता
 
श्रीकृष्ण की भक्ति के बारे में बात करने से पहले आपको इतिहास में सूफीवाद की शुरुआत की जानकारी पहले बता देते हैं. दरअसल 14वीं सदी के आसपास सूफीवाद की शुरुआत मानी जाती है. सूफावाद को प्रेम और आत्मा की आवाज कहा जाता है. सूफी कवियों ने कृष्ण भक्ति की शुरुआत यहीं से की. सूफ़ी कवि वास्तव में प्रेमी कवि थे और इनकी कविताओं में रहस्यवाद मुख्य था. आध्यात्मिक प्रेम को इन कवियों ने अलग रूप में पहचान दी.  
 
14वीं शताब्दी के आसपास तो मुस्लिम कवियों में श्रीकृष्ण की भक्ति पूरे चरम पर थी. उन्होंने कृष्ण का ऐसा वर्णन किया जिसे शायद हिंदी भाषी कवि भी ना कर पाएं.
 
दुनिया में प्यार और समर्पण का अगर सबसे बड़ा कई नाम है तो भगवान श्रीकृष्ण उनमें सबसे ऊपर हैं. जिस गंगा जमुनी सभ्यता की मिसाल दी जाती है उसे श्रीकृष्ण की भक्ति ने नए आयाम दिए हैं. ये श्रीकृष्ण की भक्ति ही थी जिसने कभी धर्म और जात का बंधन नहीं देखा. हिंदी से लेकर उर्दू शायरों ने श्रीकृष्ण का इतिहास में जो वर्णन किया है उसे भक्त आज भी गुनगुनाते हैं. 
 
बहुत से मुस्लिम ऐसे कृष्ण भक्त भी बने जिन्होंने इस्लामी आस्था में जन्म लेकर भी भौतिक पदनामों को पार करके खुद को कृष्ण का एक अलग हिस्सा माना और उनकी भक्ति सेवा में लगे रहे. इसमें वे महान आत्माएँ भी शामिल हैं जो अपने दैनिक व्यवहार में भक्त नहीं बने, लेकिन कृष्ण की शिक्षाओं के लिए उनकी गहरी प्रशंसा थी. उन सभी में एक समान धागा कृष्ण के प्रति उनका प्रेम है.