प्रेमचंद की परंपरा की अफ़साना निगार रज़िया सज्जाद ज़हीर

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 02-02-2023
प्रेमचंद की परंपरा की अफ़साना निगार रज़िया सज्जाद ज़हीर
प्रेमचंद की परंपरा की अफ़साना निगार रज़िया सज्जाद ज़हीर

 

ज़ाहिद ख़ान
 
रज़िया दिलशाद उर्फ रज़िया सज्जाद ज़हीर अच्छी अफ़साना निगार और आला दर्जे की तर्जुमा निगार थीं. उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त तक लिखा और बहुत ख़ूब लिखा. 15 फरवरी, 1918 को राजस्थान के अजमेर में जन्मी रज़िया सज्जाद ज़हीर जब महज़ नौ साल की थीं, तब उनकी पहली कहानी लाहौर से निकलने वाली बच्चों की एक मशहूर मैगज़ीन ‘फूल’ में छपी. यह कहानी ख़ूब पसंद की गई और इसी के साथ वह पाबंदी से लिखने लगीं. 

शादी के बाद कुछ अरसे तक पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के चलते उनके लेखन में एक ठहराव आया, लेकिन यह ज़्यादा वक़्त तक नहीं रहा. साल 1952 तक आते-आते रज़िया सज्जाद ज़हीर की कहानियां रेडियो पर पढ़ी जाने लगीं और उनके लिखे ड्रामे खेले जाने लगे.
 
रेडियो के लिए उन्होंने फीचर और वार्ताएं भी लिखीं. ‘ज़र्द गुलाब’ और ‘अल्लाह दे, बंदा ले’ रज़िया सज्जाद ज़हीर के वे कहानी संग्रह हैं, जिनमें उनकी प्रमुख कहानियां संकलित हैं. वहीं ‘ये शरीफ़ लोग’, ‘अल्लाह मेघ दे’ ‘सुमन’, ‘सरेशाम’ और ‘कांटे’ उनके उपन्यास हैं. उपन्यास ‘अल्लाह मेघ दे’ लख़नऊ में आए सैलाब पर केन्द्रित है. जिसमें उन्होंने बंटवारे का भी मार्मिक मंज़र बयां किया है. 
 
बंटवारे की असीम वेदना और उसके गहरे ज़ख़्म, उनकी जज़्बाती कहानी ‘नमक’ में भी दिखाई देते हैं. जिसमें बंटवारे में हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में बंट जाने के बाद भी अपनी सरज़मीं से कहानी के अहम किरदारों का दिल नहीं छूटता. अपनी सरज़मीं से उनकी अब भी मुहब्बत है. जहां वे पैदा हुए, पले-बढ़े वही उनका वतन है. रज़िया सज्जाद ज़हीर ने गद्य की अन्य विधाओं में भी अपने हाथ आजमाए. उन्होंने कुछ रिपोर्ताज़ और सफ़रनामा लिखा. बच्चों के लिए एक उपन्यास ‘नेहरू का भतीजा’ की सौगात दी. नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए उन्होंने उर्दू कहानियों का एक संकलन संपादित किया, जो काफ़ी पसंद किया गया. यही नहीं कुछ नाटकों के अनुवाद के साथ साथ, नाटक भी लिखे. 
 
साल 1953 में उन्होंने और डॉ. रशीद जहां ने मिलकर प्रेमचंद की मशहूर कहानी ‘ईदगाह’ का नाट्य रूपान्तरण किया. हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार अमृत लाल नागर ने इस नाटक का निर्देशन किया. इस नाटक पर उन्हें और नागर दोनों को मुक़दमा झेलना पड़ा. यह बात अलग है कि बाद में यह दोनों इस मुक़दमे से बाइज़्ज़त बरी हुए. रज़िया सज्जाद ज़हीर ने अफ़सानों के अलावा कई अहमतरीन किताबों का अंग्रेजी और हिन्दी से उर्दू ज़बान में अनुवाद किया. यही वजह है कि सोवियत संघ सरकार ने उन्हें तजुर्मान (अनुवादक) की हैसियत से अपने प्रतिष्ठित अवार्ड ‘सोवियत लैण्ड नेहरू अवार्ड’ से नवाज़ा. 
 
रज़िया सज्जाद ज़हीर ने इंसान के विकास पर रूसी भाषा की एक साइंस की किताब का ‘इंसान का उरूज’ नाम से शानदार अनुवाद किया, तो कई दूसरी विदेशी भाषाओं के बेहतरीन उपन्यास उनकी वजह से ही भारतीय पाठकों तक पहुंचे. मसलन मैक्सिम गोर्की का क्लासिक उपन्यास-‘मां’ (साल 1938), ‘माइ चाइल्डहुड’, ‘माइ अप्रेंटिसशिप’, ‘माइ यूनिवर्सिटीज’, बर्तोल्त ब्रेख़्त-‘लाइफ़ ऑफ गैलिलियो गलिली’ (साल 1939), रसूल गम्जतोव-‘माई दागिस्तान’ (साल 1970), चंगेज ऐत्मतोव-‘अमीला’ (साल 1974), चंगेज ऐत्मतोव-‘फेयरवेल गुल्सरी’ (साल 1975), ब्रूनो अपित्ज के ‘नेकेड अमंग वूल्वस’, सिंज की किताब ‘राइडर्स टु द सी’ वगैरह-वगैरह. 
 
रज़िया सज्जाद ज़हीर का अनुवाद का यह काम यहीं तक महदूद नहीं रहा, बल्कि अपने यहां के बड़े लेखकों की भी कई अच्छी किताबों के अनुवाद का जिम्मा उन्होंने खुद उठाया. मसलन डॉ. मुल्कराज आनंद के उपन्यास ‘कुली’, भगवती चरण वर्मा के ‘भूले बिसरे चित्र’ और अमृत लाल नागर के उपन्यास ‘बूंद और समुद्र’ का उन्होंने उर्दू में अनुवाद किया. 
 
अंग्रेजी भाषा की प्रसिद्ध रचनाकार सूजी थारो द्वारा संपादित किताब ‘वूमेन राइटिंग इन इंडिया, वॉल्यूम दो : द ट्वेन्टी सेंचुरी’ में रशीद जहां की कहानी ‘वह’, इस्मत चुग़ताई की ‘लिहाफ़’ के साथ-साथ रज़िया सज्जाद ज़हीर की कहानी ‘नीच’ को भी शामिल किया गया है. 
यही नहीं ‘बीसवीं सदी में ख़्वातीन का उर्दू अदब’ नामक उर्दू की एक किताब में भी उनकी कहानी ‘ज़र्द गुलाब’ शामिल है.
 
एनसीईआरटी की बारहवीं क्लास के लिए तैयार हिन्दी की किताब में उनकी चर्चित कहानी ‘नमक’ पढ़ाई जाती है. रज़िया सज्जाद ज़हीर, कहानीकार के तौर पर भले ही रशीद जहां या इस्मत चुग़ताई की तरह मक़बूल नहीं हुईं, लेकिन उनकी कहानियां पाठकों को सोचने को विवश करती हैं. पाठकों को उनसे एक नज़रिया मिलता है. उनकी कहानियों में सामाजिक चेतना और वर्ग चेतना इस तरह से गुंथी हुई है कि उसे अलग नहीं किया जा सकता. 
 
तरक़्क़ीपसंद नक़्क़ाद डॉ. क़मर रईस, रज़िया सज्जाद ज़हीर को प्रेमचंद की रिवायत का अफ़साना निगार मानते थे. वहीं लेखक, पत्रकार, फ़िल्मकार ख़्वाजा अहमद अब्बास ने उनकी कहानियों पर टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘‘वह ख़ुद तो औरत थीं, लेकिन उन्होंने मर्दाना समाज के चेहरे से नक़ाब उठाया और कई यादगार मर्द पात्र दिए.’’ अब्बास की यह बात सही भी है. कहानी ‘अल्लाह दे बंदा ले’ का नायक ‘फ़ख़रू’ हो या फिर ‘सुतून’ कहानी का बूढ़ा नायक ‘अमीर ख़ान’ ये किरदार अपनी बेमिसाल इंसानियत और बेदाग ईमानदारी से लंबे समय तक पाठकों के ज़ेहन में ज़िंदा रहेंगे. वे उन्हें भुलाए नहीं भूल पाएंगे. 
 
डॉ. शारिब रूदोलवी का मानना है कि ‘‘रज़िया सज्जाद ज़हीर, पहले अपनी कहानियों को ख़ुद जीती हैं, तब कागज पर उतारती थीं.’’ ‘बड़ा सौदागर कौन ?’, ‘वह शोले’, ‘बीजों की पपड़ी’, ‘बादशाह’, ‘तली ताल से चैना माल तक’, ‘रईस भाई’, ‘सच और सिर्फ सच, सच के सिवा कुछ नहीं’, ‘निगोड़ी चले आवे है’, ‘अब पहचानो’, ‘लावारिस’, ‘सूरजमल’, ‘राखी वाले पंडित जी’, ‘टीपू’, ‘अमर जोत’, ‘मोज्जा’, ‘रावण जला नहीं’, ‘दूसरा नाम’, ‘परछाइयां और जीवन’ आदि उनकी कहानियां यदि ग़ौर से पढ़ें, तो शारिब रूदोलवी की इस बात में दम भी नज़र आता है. 
 
कहानी ‘वह शोले’ और ‘बीजों की पपड़ी’ का कथानक और इन कहानियों की नायिकाओं की सोच, जिस तरह से इन कहानियों में प्रतिबिंबित हुई है, वह ऐसे ही नहीं आ गई है, बल्कि इसके पीछे अफ़साना निगार का तजुर्बा है, जो कहानी में ढल गया है. साधारण से दिखने वाली कहानी ‘बीजों की पपड़ी’ में एक बड़ा संदेश छिपा हुआ है. पूरी दुनिया और इंसानियत को बचाने का संदेश ! रज़िया सज्जाद ज़हीर ने बंटवारा और बंटवारे के बाद का भयानक मंज़र देखा था, वे उस भयानक हालात से गुज़री थीं, जिसमें इंसान एक-दूसरे के ख़ून का प्यासा हो गया था. ज़ाहिर है कि यह सब बातें उनकी कहानियों में आनी ही थी. उन्होंने बड़ी ही संज़ीदगी से अपनी कहानियों में इन हालात का ज़िक्र किया है. 
 
रज़िया सज्जाद ज़हीर की प्रगतिशील विचारधारा में गहरी आस्था थी. अदब में कला से ज्यादा वे कथ्य पर ज़ोर देती थीं. उनका ये स्पष्ट मानना था कि यदि किसी कहानी में समाजी, सियासी चेतना नहीं है, तो वो कहानी कोई काम की नहीं है. रज़िया सज्जाद ज़हीर की कहानियों के केन्द्र में हमेशा आम आदमी रहा. उसके सुख-दुःख, उम्मीदें-नाउम्मीदें रहीं. कहानियों में उन्होंने कभी तरक़्क़ीपसंद नज़रिए का दामन नहीं छोड़ा. 18 दिसम्बर, 1980 को रजिया सज्जाद ज़हीर ने इस दुनिया से अपनी आख़िरी विदाई ली.