अमीना माजिद सिद्दीकी
22 अगस्त 1948 की रात का सन्नाटा आज भी हैदराबाद के इतिहास में एक चीख बनकर दर्ज है — एक पत्रकार की कलम रुक गई, लेकिन उसके शब्द आज भी गूंजते हैं. यह कहानी है शोएबउल्लाह खान की, जिनकी शहादत ने एक रियासत को झकझोर दिया और एक पत्रकार को अमर बना दिया.
शोएबउल्लाह खान का जन्म 12 अक्टूबर 1920 को तेलंगाना के वारंगल जिले के महबूबाबाद में हुआ. उनके पिता रेलवे में पुलिस अधिकारी थे, लेकिन दिल से सच्चे देशभक्त. घर में आज़ादी की बातें होती थीं, क्रांतिकारी किस्से सुनाए जाते थे. यही माहौल युवा शोएब के मन में कुछ अलग करने का जज़्बा पैदा करता गया.
जब उनके समकालीन अच्छे पदों की सरकारी नौकरी की दौड़ में लगे थे, शोएब ने पत्रकारिता को चुना — वो पेशा जो न रिवायतों से चलता है न डर से. उन्हें लिखने का शौक बचपन से था, और जल्द ही यह शौक उनके मिशन में बदल गया.
'रयात' से 'इमरोज़' तक: कलम बन गई हथियार
शोएबउल्लाह ने अपने करियर की शुरुआत 'रयात' नामक उर्दू अख़बार से की, जिसे भविष्य के प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंह राव प्रकाशित करते थे. यह अख़बार निज़ाम और अंग्रेज़ी हुकूमत दोनों की कड़ी आलोचना करता था. शोएब को यहाँ उप-संपादक बनाया गया और उन्हें पचास रुपये वेतन मिलता था — एक मामूली रकम, लेकिन उनके इरादों के सामने बेमानी.
उन दिनों निज़ाम हैदराबाद की रियासत को भारत में मिलाने से इनकार कर चुके थे. वह या तो आज़ाद रहना चाहते थे या पाकिस्तान में शामिल होना. इस मकसद को हासिल करने के लिए उन्होंने 'रज़ाकार' नामक एक अर्धसैनिक संगठन को खुला समर्थन दिया. रज़ाकारों का नेतृत्व कासिम रिजवी कर रहा था और उनका आतंक पूरे हैदराबाद में फैल रहा था.
शोएबउल्लाह ने रज़ाकारों के अपराधों का पर्दाफ़ाश करना शुरू किया. जब 'रयात' अख़बार पर प्रतिबंध लगा दिया गया, तो उन्होंने 'इमरोज़' नामक नया समाचार पत्र शुरू किया. यह अख़बार और भी मुखर और निर्भीक बन गया — अब यह सिर्फ पत्रकारिता नहीं, जन आंदोलन था.
धमकियाँ, डर और शहादत
19 अगस्त 1948 को कासिम रिजवी ने जमरूद थिएटर में एक सम्मेलन में खुलेआम धमकी दी: "जो भी हमारे खिलाफ लिखेगा, उसके हाथ काट दिए जाएंगे." यह शब्द सीधे शोएब के लिए थे. लेकिन उन्होंने न तो डर को जगह दी, न कलम को रोका. 'इमरोज़' के अगले अंक में उन्होंने इस भाषण की कड़ी आलोचना की.
फिर आई 21 अगस्त की रात. शोएब अपने बहनोई रहमत के साथ काम से लौट रहे थे. रास्ते में उन्हें घेर लिया गया. पहले पीछे से गोलियां मारी गईं. फिर तलवारों से उनके दोनों हाथ काट दिए गए — वो हाथ जिनसे वे देश, इंसानियत और सच्चाई की बात लिखते थे. रहमत भी बुरी तरह घायल हुए.
सरदार पटेल की प्रतिज्ञा और हैदराबाद की मुक्ति
शोएब की शहादत ने पूरे देश को हिला दिया. यह महज़ एक हत्या नहीं थी, यह विचारों की हत्या थी. लेकिन यह घटना वो अंतिम चिंगारी बनी, जिसने पूरे देश को एकजुट कर दिया.
13 सितंबर 1948 को सरदार वल्लभभाई पटेल ने सेना भेजकर हैदराबाद को रज़ाकारों के आतंक से मुक्त कराने का निर्णय लिया. 17 सितंबर को तिरंगा हैदराबाद में फहराया गया — लेकिन अफ़सोस, शोएबउल्लाह उस ऐतिहासिक दिन को नहीं देख सके.
विरासत जो अमर है
शोएबउल्लाह खान को अक्सर इतिहास की मुख्यधारा से भुला दिया गया, लेकिन उनके बलिदान की गूंज आज भी पत्रकारिता की दुनिया को राह दिखाती है. उन्होंने दिखाया कि एक सच्चा पत्रकार न केवल सूचनाओं का वाहक होता है, बल्कि समाज का प्रहरी और बदलाव का वाहक भी होता है.
उनकी कहानी सिर्फ अतीत की नहीं है, बल्कि एक प्रेरणा है उन सभी के लिए जो कलम को हथियार मानते हैं.
एक सवाल हम सब से...
क्या हम आज के दौर में भी शोएब जैसे साहसी पत्रकारों को याद रखते हैं? क्या आज भी पत्रकारिता उतनी ही ईमानदार और निर्भीक है, जितनी शोएब ने दिखाई?