देशभक्त हिंदू और देशभक्त मुसलमान के बीच कोई अंतर नहींः नेताजी सुभाषचंद्र बोस

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 24-01-2023
नेताजी सुभाषचंद्र बोस
नेताजी सुभाषचंद्र बोस

 

साकिब सलीम

‘‘सामान्य तौर पर मुसलमानों के प्रति मेरा मानसिक रवैया काफी हद तक मेरे शुरुआती संपर्कों से प्रभावित था. जिस क्वॉर्टर में हम रहते थे, वह ज्यादातर मुस्लिम थे और हमारे पड़ोसी ज्यादातर मुस्लिम थे.’’ यह बात नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपनी अधूरी आत्मकथा ‘एन इंडियन पिलग्रिम’ में लिखी है.

बोस ने कभी नहीं माना कि भारत के नागरिक के रूप में हिंदू और मुसलमान अलग-अलग हैं. वह सर्वधर्म समभाव की संस्कृति में विश्वास करते थे और हमेशा कहते थे कि हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य ब्रिटिश नीतियों का परिणाम था.

 

इसी आत्मकथा में उन्होंने लिखा, ‘‘हिंदू और मुस्लिम के बीच का अंतर, जिसके बारे में हम आजकल बहुत कुछ सुनते हैं, वह काफी हद तक एक कृत्रिम रचना है. आयरलैंड में एक प्रकार का कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट विवाद है, जिसमें हमारे वर्तमान शासकों का हाथ रहा है. जब मैं कहता हूं कि अंग्रेजों के आगमन से पहले भारत में राजनैतिक व्यवस्था का वर्णन करते समय मुस्लिम शासन की बात करना एक मिथ्या बात है, तो इतिहास मेरी बात के साक्ष्य देगा. चाहे हम दिल्ली के मुगल बादशाहों की बात करें, या बंगाल के मुस्लिम नवाबों की, हम देखते हैं कि दोनों ही मामलों में प्रशासन हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा एक साथ चलाया जाता था.”

बोस के विचार उन्हें किसी किताब से नहीं मिले थे, बल्कि उनको अनुभवों के माध्यम से हासिल हुए थे. वह उस इलाके में रहते थे, जहां उनके आसपास मुसलमान आबादी थी. उन मुसलमानों के लिए उनके पिता भी पिता-तुल्य थे. बोस इसे याद करते हुए लिखते हैं, ‘‘उदाहरण के लिए, हमने मोहर्रम जैसे उनके त्योहारों में हिस्सा लिया और उनके अखाड़े का लुत्फ उठाया. हमारे नौकरों में मुसलमान भी थे, जो दूसरों की तरह हमारे प्रति समर्पित थे. स्कूल में मेरे मुस्लिम शिक्षक और मुस्लिम सहपाठी थे, जिनके साथ मेरे संबंध और अन्य छात्रों के भी संबंध पूरी तरह से सौहार्दपूर्ण थे. वास्तव में, मुझे याद नहीं आता कि मैंने मुसलमानों को किसी भी तरह से अपने से अलग देखा हो, सिवाय इसके कि वे मस्जिद में नमाज पढ़ने जाते हैं.’’

 

यह कोई हैरत की बात नहीं है कि बोस कभी किसी सांप्रदायिक भावना में नहीं फंसे. हालांकि वे स्वयं एक गहरे धार्मिक व्यक्ति थे. उनका मानना था कि देशभक्त या देशद्रोही होने का धार्मिक आस्था से कोई लेना-देना नहीं है.

अपने कई भाषणों और लेखों में, उन्होंने बताया था कि नवाब सिराजुद्दौला एक मुस्लिम थे, जिनका वफादार सेनापति हिंदू था, जबकि मुस्लिम मंत्री प्लासी की लड़ाई में अंग्रेजी पक्ष में चला गया था. इसी तरह, बहादुर शाह जफर और टीपू सुल्तान को वह कई बार याद करते दिखते हैं.

 

सचाई है कि उन्होंने आइएनए के झंडे पर जो बाघ लगाया वह टीपू सुल्तान के झंडे का था और उन्होंने दिल्ली चलो का आह्वान बर्मा (अब म्यांमार) में बहादुर शाह जफर की कब्र पर किया था. 26 सितंबर, 1943 को बोस ने बहादुर शाह की समाधि पर एक समारोह में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की थी. इस अवसर पर उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए, “एक पवित्र स्मारक पर, भारत की स्वतंत्रता के अंतिम सेनानी के पार्थिव अवशेषों के सामने, जो आम लोगों के बीच सम्राट था और उसी समय सम्राटों के बीच एक आदमी” संकल्प लिया कि, “हम भारतीय धार्मिक विश्वासों की परवाह किए बिना, बहादुर शाह की स्मृति को संजोएं. इसलिए नहीं कि वह ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने देशवासियों को बाहर से दुश्मन से लड़ने का आह्वान किया था, बल्कि इसलिए कि वह ऐसे व्यक्ति थे, जिसके ध्वज के नीचे सभी प्रांतों के अलग-अलग दावा भारतीय धार्मिक विश्वास के भारतीयों ने संघर्ष किया.”

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जब पूरे देश को अंग्रेजों ने लोकतांत्रिक समानता के नाम पर भरमाया जा रहा था और कांग्रेस ने भी मुस्लिम लीग को मुसलमानों की वैध आवाज के रूप में स्वीकार किया, तो बोस के विचार अलग थे. शिमला सम्मेलन की पूर्व संध्या पर, एक रेडियो प्रसारण में, उन्होंने भारतीय नेतृत्व को चेतावनी दी थी कि कार्यकारी परिषद (एक्जीक्यूटिव काउंसिल) में मुसलमानों के समान कोटे का विरोध करके वे खुद को अंग्रेजों द्वारा बिछाए गए जाल में फंसा रहे हैं.

बोस ने कहा, ‘‘हमारी आपत्ति मुसलमानों को कार्यकारी परिषद में बहुमत प्राप्त करने पर नहीं होनी चाहिए. विचारणीय प्रश्न यह है कि कार्यकारी परिषद में किस प्रकार के मुसलमान आएंगे. मौलाना अबुल कलाम आजाद, आसफ अली और रफी अहमद किदवई जैसे मुसलमान हों, तो भारत का भाग्य सुरक्षित रहेगा. और मैं व्यक्तिगत रूप से मानता हूं कि ऐसे देशभक्तों को पूरी आजादी देना ही सही है. एक देशभक्त हिंदू और एक देशभक्त मुसलमान के बीच कोई अंतर नहीं है.’’

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सुभाष चंद्र बोस समझते थे कि विचार मुसलमानों को प्रतिनिधित्व देने के लिए नहीं, बल्कि मुस्लिम लीग के उनके समर्थकों की संख्या बढ़ाने और भारत में हिंदू मुस्लिम विभाजन को और बढ़ाने के लिए था. भारत के बारे में बोस के विचार से मुस्लिम, हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी, ईसाई आदि समान नागरिक थे.