इंसानियत और एकता का पाठ पढ़ाते उर्दू अफ़साने

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  onikamaheshwari | Date 20-12-2022
इंसानियत और एकता का पाठ पढ़ाते उर्दू अफ़साने
इंसानियत और एकता का पाठ पढ़ाते उर्दू अफ़साने

 

ज़ाहिद ख़ान
 
अदब किसी भी ज़बान का हो वह इंसानियत, एकता और भाईचारे का पाठ पढ़ाता है. उर्दू अदब में एक से बढ़कर एक ऐसी कहानियां लिखी गई हैं, जो हमें इंसानियत और भाईचारे का सबक़ सिखाती हैं. बंटवारे के बाद मिली आज़ादी को उस ज़माने के ज़्यादातर अ​दीब त्रासद आजादी मानते रहे और उसी की नुक्ता-ए-नज़र में उन्होंने अपने कई अफ़साने और रचनाएं लिखीं.

इन अफ़सानों में जहां वे उम्मीद का दामन नहीं छोड़ते, वहीं इंसानियत को बचा लेने की ज़िद भी उनके यहां दिखाई देती है. आईए ऐसे ही कुछ बेमिसाल अफ़सानों पर नज़र डालें। स्क्रिप्ट राइटर—डायरेक्टर और अफ़साना निगार ख़्वाजा अहमद अब्बास की कहानी ‘मेरी मौत’ एक सच्चे वाक़ए पर आधारित है. इस वाक़ए से ख़ुद अब्बास गुज़रे थे. मुल्क का बंटवारा उन्होंने अपनी ऑंखों से देखा था और उसे अपनी ज़िंदगी में भोगा भी था. वे ख़ुद इस कहानी के एक किरदार थे.
 
जब उन्होंने ये कहानी लिखी, तो उसमें थोड़ा फेर-बदल किया लेकिन जिस्म की रूह वही रही. कहानी उर्दू में थी. यह कहानी पहले पाकिस्तान में छपी और कहानी छपते ही मक़बूल हो गई। इतनी मक़बूल कि हिंदुस्तान में बिना उनकी इजाज़त के हिंदी की एक मैगज़ीन ने इसका तर्जुमा कर अपने यहां छाप दिया. कहानी छपी, तो यहां भी इसने तहलका मचा दिया.
 
अपने कंटेंट और उससे भी बढ़कर इसके दिल छूते क्लाईमेक्स ने लोगों के दिलों पर बड़ा गहरा असर किया। कहानी हालांकि साम्प्रदायिक सद्भाव पर थी, लेकिन कुछ लोगों ने इसे बिना पढ़ें, कट्टरपंथियों और सियासतदानों की बातों में आकर इसका विरोध करना शुरू कर दिया. यहां तक कि एक सरदारजी ने उन पर अदालत में मुक़दमा कर दिया.
 
जिसके चक्कर में अब्बास कुछ दिन परेशान भी रहे। एक वक़्त ऐसा भी आया, जब सुनवाई के दौरान एक दिन अब्बास का सामना इन सरदारजी से हो गया। इस मामले में फ़ैसला आने ही वाला था.
 
अब्बास ने जज से घंटे भर की मोहलत मांगी और सरदारजी के पास जाकर पूॅंछा, ‘‘आपने ये कहानी पूरी पढ़ी है ?’’ सरदारजी गुस्से में आकर बोले, ‘‘अजी हम कैसे पूरी पढ़ते, पहले दो पन्ने पढ़कर ही साडा खून खौल गया।’’ अब्बास ने यह सुना, तो उनसे इल्तिजा की वह उन्हें बस आधा घंटा दें और पूरी कहानी सुन लें. सरदारजी जैसे-तैसे यह कहानी सुनने को राज़ी हुए. पूरी कहानी सुनकर वे जार-जार रोने लगे और अदालत से मुक़दमा वापस ले लिया। ये कहानी है भी ऐसी कि पत्थर दिल भी पिघल जाएं.
 
कहानी कुछ इस तरह से है, बंटवारे का ज़ख़्म लिए शेख़ बुरहानुद्दीन और सरदारजी एक ही मुहल्ले में रहते हैं. साम्प्रदायिक दंगों ने हिंदू-मुस्लिम और मुस्लिम-सिख के बीच अविश्वास की दीवार उठा दी है.
 
पाकिस्तान में जो अत्याचार हिंदुओं और सिखों के साथ हुआ, वह हिंदुस्तान में मुसलमानों के साथ जारी है. ज़ाहिर है ऐसे माहौल में कोई क़ौम, किसी दूसरी क़ौम पर कैसे यक़ीं करे.
 
शेख बुरहानुद्दीन के मन में सरदारों के प्रति कई पूर्वाग्रह हैं. उसे इस बात का भी हमेशा खटका बना रहता है कि उसका पड़ोसी सरदारजी कभी न कभी उसके साथ दगा करेगा. लेकिन वह उस वक़्त हैरान रह जाता है, जब सरदारजी अपनी जान गंवाकर उसे दंगाईयों से बचाते हैं. कहानी का अंत बड़ा ही मार्मिक है.
 
‘‘सरदारजी, यह तुमने क्या किया ?’’ मेरी ज़बान से न जाने यह वाक्य कैसे निकला ! मैं सकते में था.....मेरी बरसों की दुनिया, ख़यालात, भावनाएं, साम्प्रदायिकता की दुनिया खंडहर हो गई थी.
 
‘‘सरदारजी, यह तुमने क्या किया ? 
‘‘मुझे क़र्ज़ा उतारना था बेटा .’’ 
‘‘क़र्ज़ा ?’’ 
‘‘हा . रावलपिंडी में तुम्हारे जैसे ही एक मुसलमान ने अपनी जान देकर मेरी और मेरे घरवालों की जान व इज़्ज़त बचाई थी .’’
‘‘क्या नाम था उसका, सरदारजी ?’’
‘‘गुलाम रसूल !’’ वह गुलाम रसूल, जो पाकिस्तान में सरदारों का हमेशा मज़ाक़ बनाता था और उन पर मज़े ले-लेकर लोगों को लतीफ़े सुनाता था। अपने समग्र प्रभाव में यह बेमिसाल कहानी है, जो लोगों के दिलों पर लंबे समय तक राज करेगी। कहानी में इंसानियत और भाईचारे का पैग़ाम है.
 
शायर—अफ़साना निगार अहमद नदीम क़ासमी ने बेहतरीन शायरी के अलावा बंटवारे, इक़्तिसादी मसाइल पर भी बहुत अच्छी कहानियां लिखीं हैं. बंटवारे पर ‘परमेशर सिंह’ उनका लाजवाब अफ़साना है. बंटवारे के पसमंज़र में जब सीमा के इस तरफ और उस तरफ लोग एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हैं. ऐसे माहौल में भी परमेशर सिंह इंसानियत का दामन नहीं छोड़ता.
 
अपनी जान की परवाह किए बिना, वह उस बच्चे को पाकिस्तान की सीमा में छोड़ने जाता है, जो बंटवारे की भगदड़ में अपने परिवार से बिछड़ कर हिंदुस्तान जा पहुंचता है. परमेशर सिंह को इसकी क़ीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है.
 
बंटवारे पर सआदत हसन मंटो ने भी ख़ूब लिखा है. ख़ास तौर पर कहानी 'टोबा टेकसिंह' में उन्होंने बंटवारे की जो त्रासदी बतलाई है,वह अकल्पनीय है. मंटो ने बंटवारे का दर्द ख़ुद सहा था. वे जानते थे कि बंटवारे के ज़ख़्म कैसे होते हैं ? लिहाज़ा उनकी इस कहानी में बंटवारे का दर्द पूरी शिद्दत के साथ आया है. मंटो मुल्क के बंटवारे से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते थे. वे इसके ख़िलाफ़ थे, लेकिन क़िस्मत के आगे मजबूर.
 
मंटो और उनके जैसे करोड़ों-करोड़ लोगों की नियति का फ़ैसला, चंद लोगों ने मिलकर रातों-रात कर दिया था. और वे इस फ़ैसले को मानने को मजबूर थे. बंटवारे के ख़िलाफ़ उनका गुस्सा कहानी के इन प्रसंगों में भी देखा जा सकता है.
 
‘‘एक मुसलमान पागल, जो बारह बरस से रोज़ाना बाक़ायदगी के साथ ‘ज़मींदार’ पढ़ता था, उससे जब उसके दोस्त ने पूछा, ‘‘मौलवी साहब, यह पाकिस्तान क्या होता है ? तो उसने बड़े सोच-विचार के बाद जवाब दिया,
 
‘‘हिन्दुस्तान में एक ऐसी जगह है, जहां उस्तरे बनते हैं.’’, ‘‘उनको सिर्फ़ इतना ही मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्ना है, जिसको क़ायदे-आज़म कहते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक अलग मुल्क बनाया है, जिसका नाम पाकिस्तान है.’’
 
इन मार्मिक प्रसंगो और छोटे-छोटे संवादों के ज़रिए मंटो कहानी में बंटवारे और उसके बाद की स्थितियों का पूरा ख़ाका खींचकर रख देते हैं. कहानी में घट रही, हर बात और संवाद का एक अलग मायने है.
 
बंटवारे से सारी इंसानियत लहू-लुहान है। लेकिन हुक़ूमतों को इसकी जरा सी भी परवाह नहीं. वे संवेदनहीन बनी हुई हैं. इस हद तक कि साधारण कैदियों की तरह वे पागलों का भी तबादला करना चाहती हैं. सत्ता का अमानवीय चेहरा, जो पागलों का भी बंटवारा करना चाहती है। हिंदू पागल हिन्दुस्तान जाएं और मुसलमान पागल पाकिस्तान. हुक़ूमतों के इस तुग़लक़ी फ़रमान को पागलों को भी मानना होगा.
 
जबकि ‘‘अधिकतर पागल इस तबादले को नहीं चाहते थे. इसलिए कि उनकी समझ में नहीं आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़कर कहां फेंका जा रहा है.’’ टोबा टेकसिंह को भी यह मंज़ूर नहीं.
 
वह नहीं चाहता कि उसे अपने मुल्क टोबा टेकसिंह से दूर कर दिया जाए. उसके लिए हिंदुस्तान-पाकिस्तान का कोई मायने नहीं. उसकी जन्मभूमि और कर्मभूमि ही उसका मुल्क है. वह ऐसे किसी भी बंटवारे के ख़िलाफ़ है, जिसमें उसे अपनी ज़मीन से बेदखल होना पड़े. टोबा टेकसिंह को जब यह मालूम चलता है कि उसे ज़बर्दस्ती उसके गांव टोबा टेकसिंह से दूर हिन्दुस्तान भेजा जा रहा है, तो वह जाने से इंक़ार कर देता है.
 
मंटो ने कहानी का जो अंत किया, वह अविस्मरणीय है. एक दम क्लासिक. अपने अंत से कहानी ऐसे कई सवाल छोड़ जाती है, जो अब भी अनुत्तरित हैं. टोबा टेकसिंह आज भी हमारे नीति नियंताओं, हुक़्मरानों से यह सवाल पूछ रहा है कि बंटवारे से आख़िर उन्हें क्या हासिल हुआ ?
 
सत्ता की हवस में उन्होंने जो फ़ैसला किया, वह सही था या ग़लत ? ‘‘देखो, टोबा टेकसिंह अब हिन्दुस्तान में चला गया है-यदि नहीं गया है, तो उसे तुरन्त ही भेज दिया जाएगा’’ किन्तु वह न माना.
 
जब ज़बरदस्ती दूसरी ओर ले जाने की कोशिश की गई तो वह बीच में एक स्थान पर इस प्रकार अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया, जैसे अब कोई ताक़त उसे वहां से नहीं हटा सकेगी. क्योंकि आदमी बेज़ार था, इसलिए उसके साथ ज़बरदस्ती नहीं की गई,
 
उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और शेष काम होता रहा। सूरज निकलने से पहले स्तब्ध खड़े हुए बिशन सिंह के गले से एक गगनभेदी चीख निकली. इधर-उधर से कई अफसर दौड़े आए और देखा कि वह आदमी, जो पन्द्रह वर्ष तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा था, औंधें मुंह लेटा था। इधर कांटेदार तारों के पीछे हिन्दुस्तान था-उधर वैसे कांटेदार तारों के पीछे पाकिस्तान। बीच में ज़मीन के उस टुकड़े पर, जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेकसिंह पड़ा था.’’