संजय सुखटणकर
आर्थिक नीति को और आसान बनाने की दिशा में केंद्र सरकार ने पिछले हफ़्ते एक अहम क़दम उठाया। "पुराने और दम घोंटने वाले मज़दूर क़ानूनों को बदलो," यह उद्योग जगत की बरसों पुरानी मांग थी, जिसे आख़िरकार केंद्र सरकार ने मान लिया है। यह लेख मज़दूर क़ानूनों में हुए इन बदलावों को विस्तार से समझाता है।
आज़ादी से पहले से चले आ रहे क़रीब तीस मज़दूर क़ानूनों में केंद्र सरकार ने बदलाव किए हैं और उनमें थोड़ा-बहुत सुधार किया है। क़रीब चालीस लोकसभा सीटों पर मज़दूरों के वोट काफ़ी असर रखते हैं, इसलिए पिछली सरकारें मज़दूर क़ानूनों को हाथ लगाने से डरती थीं। मोदी सरकार ने वह क़दम उठा लिया है।
केंद्र सरकार का मानना है कि इन सुधारों की वजह से विदेशी पैसा और विदेशी कंपनियां बड़ी तादाद में भारत आएंगी। क्या ऐसा होगा? सौ से ज़्यादा मज़दूरों वाली कंपनियों को अभी छंटनी, तालाबंदी या कंपनी बंद करने के लिए राज्य सरकार की इजाज़त लेनी पड़ती थी।
अब केंद्र सरकार ने मज़दूरों की यह कम से कम तादाद बढ़ाकर तीन सौ कर दी है। देश की क़रीब अस्सी फ़ीसदी कंपनियां इसका फ़ायदा उठा सकती हैं। जो विदेशी कंपनियां भारत आएंगी, वे नई तकनीक लेकर आएंगी, उनके कर्मचारियों की तादाद ज़्यादातर तीन सौ से कम होगी। एक तरह से उनकी यह मांग सरकार ने मान ली है, इसलिए उनके भारत आने के लिए अब सही माहौल बन गया है।
लेकिन क्या तीन सौ का आंकड़ा आख़िरी है? नहीं। राज्य सरकार इस आंकड़े को बढ़ा सकती है। कपड़ा उद्योग, आईटी, मछली पालन और कंस्ट्रक्शन जैसे क्षेत्रों में, जहां निर्यात की गुंजाइश ज़्यादा है, वहां तीन सौ से ज़्यादा मज़दूर होते हैं। उनके लिए राज्य सरकार इस आंकड़े को बढ़ाने पर विचार कर सकती है।
कम हुनर वाले मज़दूरों का क्या?
मैनेजमेंट और विदेशी कंपनियों की यह शिकायत रहती थी कि भारत में कर्मचारी को एक बार काम पर रख लिया तो वह ज़िंदगी भर कर्मचारी बना रहता है। अब इस बारे में केंद्र सरकार ने मैनेजमेंट को बे-हिसाब आज़ादी देकर मज़दूर संगठनों को इतिहास का हिस्सा बनाने की दिशा में एक क़दम बढ़ाया है। अब कंपनियां मज़दूरों को एक तय समय के लिए कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरी दे सकेंगी। मतलब अगर तीन साल का कॉन्ट्रैक्ट है, तो तीन साल बाद मज़दूर की नौकरी ख़त्म हो जाएगी।
बेरोज़गारी से जूझ रहे हमारे देश में ज़्यादातर मज़दूरों के पास कोई ख़ास हुनर नहीं होता और उनका परिवार उन पर निर्भर होता है। ऐसे हालात में, इस बात की संभावना कम है कि ये मज़दूर मैनेजमेंट के ख़िलाफ़ जाएंगे या काम में ढिलाई करेंगे। इस बदलाव से उद्योगपतियों की यह शिकायत दूर हो सकती है कि भारतीय मज़दूरों की उत्पादकता कम है। इससे औद्योगिक विकास को और विदेशी कंपनियों को भारत आने में बढ़ावा मिलेगा।
सबसे अहम बात यह है कि नियमों में लचक आने से रोज़गार के मौक़े बढ़ सकते हैं। भारत को आज इसकी सख़्त ज़रूरत है। लेकिन मज़दूर कम करने की छूट का इस्तेमाल करते वक़्त, बिना हुनर वाले मज़दूरों के सड़क पर आ जाने का ख़तरा पैदा हो सकता है। हमारे यहां ऐसे लोगों की तादाद बहुत बड़ी है। उन्हें कोई सामाजिक सुरक्षा भी नहीं है। ऐसे हालात में, भले ही हुनरमंद मज़दूरों के लिए कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम लागू किया जाए, लेकिन बिना हुनर वाले मज़दूरों को मौजूदा तरीक़े से ही काम पर रखा जाना चाहिए।
जब विदेशी कंपनियां भारत आएंगी, तो वे बड़ी मात्रा में पूंजी, नई तकनीक और विदेशी बाज़ार भी हमें मुहैया कराएंगी। इससे हमारी राष्ट्रीय आय बढ़ाने और अंतर्राष्ट्रीय मुक़ाबले में अपनी जगह मज़बूतकरने में फ़ायदा होगा। हालांकि, इसके लिए राज्य सरकार को कुछ नियमों में और ढील देकर निर्यात करने वाले उद्योगों को ज़्यादा रियायतें देनी होंगी।
मैंने क़रीब पैंतीस साल इस क्षेत्र में काम किया है। पिछले कुछ सालों में कंपनी मालिकों का रुझान कॉन्ट्रैक्ट पर मज़दूर रखने की तरफ़ ज़्यादा रहा है। पक्के मज़दूरों की उत्पादकता कम होना, उनकी तनख़्वाह ज़्यादा होना, अनुशासन की कमी और उन्हें मज़दूर संगठनों का संरक्षण होना, ये मालिकों की मुख्य शिकायतें होती हैं। इन सब से बचने के लिए कंपनियां कॉन्ट्रैक्ट पर मज़दूर रखती हैं। अभी बीस मज़दूरों वाली कंपनियों पर 'कॉन्ट्रैक्ट लेबर एक्ट' लागू होता है, उस आंकड़े को पचास करके सरकार ने मैनेजमेंट को और आज़ादी दी है। अलग-अलग सरकारी अफ़सरों की जांच पर रोक लगाकर उस बारे में मैनेजमेंट का सिरदर्द भी कम किया है।
मज़दूरों के लिए इसमें क्या है?
मुआवज़ा बढ़ाएं
फिलहाल मज़दूरों को पांच साल की नौकरी के बाद ग्रेच्युटी मिलती है, वह अब एक साल के बाद मिलेगी। उनकी तनख़्वाह अब उनके बैंक खाते में जमा होगी। असंगठित मज़दूरों और प्रवासी मज़दूरों के लिए भलाई के इंतज़ाम किए गए हैं। लेकिन, नौकरी से निकालते वक़्त मज़दूरों को दिया जाने वाला मुआवज़ा मौजूदा नियमों के मुताबिक़ ही दिया जाएगा। आज की महंगाई के दौर में वह बहुत कम है और उसमें बढ़ोतरी न करना मज़दूरों के साथ नाइंसाफ़ी है।
समिति का नियम
नए क़ानून में मज़दूर संगठन के बारे में एक नियम है जिसे लागू करना मुश्किल है। अगर कंपनी में एक से ज़्यादा संगठन हैं और किसी को भी 51 फ़ीसदी मज़दूरों का समर्थन नहीं है, लेकिन बीस फ़ीसदी से ज़्यादा सदस्य हैं, तो उन संगठनों को मिलकर एक समिति बनाना ज़रूरी है। आज तक का इतिहास और मज़दूर संगठनों की विचारधारा देखें तो यह नामुमकिन लगता है।
कई राज्य सरकारों ने पहले ही ये क़ानून लागू कर दिए हैं। अगर महाराष्ट्र सरकार को इसमें आगे रहना है, तो तीन सौ का आंकड़ा बढ़ाना होगा। निर्यात करने वाली कंपनियों के लिए और रियायतें, अलग विभाग और दोस्ताना सरकारी तंत्र की ज़रूरत है। साथ ही, माथाडी कामगार क़ानून जैसे स्थानीय क़ानूनों पर भी फिर से विचार करना ज़रूरी है जो सिर पर बोझा उठाने वाले मज़दूरों के लिए बनाए गए थे।
संगठित क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों की तादाद क़रीब बारह फ़ीसदी है। उससे कहीं ज़्यादा लोग ग़रीबी की हालत में हैं। देश की औद्योगिक तरक़्क़ी करके यह संख्या कम करनी है, इसके लिए कड़े फ़ैसले लेने हैं या सिर्फ़ संगठित वर्ग का विचार करना है, यह भी सरकार को तय करना है।
(लेखक मज़दूर क़ानूनों के जानकार हैं)