
यह कहानी है एक ऐसे शख्स की, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी समाज की सेवा में समर्पित कर दी. मो. मिनहाज, जिनकी साधारण सी सूरत और शांत लहजा कभी भी उनकी भीतर की उस अनमोल ऊर्जा को नहीं दिखाता जो उन्हें निरंतर 40 सालों से अधिक समय तक समाज की भलाई के लिए प्रेरित करती रही. रांची की बस्तियों में शिक्षा, स्वास्थ्य, और अधिकारों के मुद्दों पर काम करके उन्होंने न केवल अपनी जिंदगी बदली, बल्कि हजारों परिवारों की जिंदगी में उम्मीद और रोशनी का प्रकाश भी डाला. यह प्रेरणादायक यात्रा, जो एक छोटे से कदम से शुरू हुई, आज एक विशाल बदलाव की कहानी बन चुकी है. पढ़िए आवाज द वॉयस के थे चेंज मेकर्स सीरीज के तहत झारखंड से हमारे सहयोगी जेब अख्तर की मिनहाज पर यह विस्तृत रिपोर्ट.
झारखंड की राजधानी रांची में अगर आप मो. मिनहाज से मिलें, तो पहली नज़र में उनके भीतर छिपी उस आग का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता, जो उन्हें लगातार 40से भी अधिक वर्षों तक समाज की सेवा करने के लिए प्रेरित करती रही. सादगी से भरे चेहरे और शांत लहजे वाले मिनहाज असल में एक ऐसी ताक़त हैं, जिन्होंने रांची की बस्तियों में उम्मीद की नई रोशनी जगाई. उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और अधिकारों की लड़ाई को अपनी ज़िंदगी का मिशन बना लिया और बिना थके, बिना रुके, इस मिशन को आज तक आगे बढ़ाते जा रहे हैं.
साल 1982 में उनका ये सफर शुरू हुआ. उस दौर में रांची का शहर तो बढ़ रहा था, लेकिन उसकी बस्तियाँ गहरे अंधेरे में थीं. मज़दूरी करने वाले, दिहाड़ी मज़दूर और रिक्शा खींचने वाले परिवार सुबह से शाम तक सिर्फ़ दो वक्त की रोटी जुटाने में लगे रहते. ऐसे में पढ़ाई उनके लिए सपना ही लगती थी. मिनहाज ने उसी वक्त तय किया कि बदलाव की नींव शिक्षा होगी. उन्होंने गरीब इलाकों में नाइट क्लासेज शुरू कीं. दिनभर काम करके लौटे मज़दूर और रिक्शा चालक जब झोपड़ी में आराम की तलाश करते, तब मिनहाज उनके पास जाते और उन्हें पढ़ाते. यह आसान काम नहीं था. कई लोग हिचकते थे और कहते—हमारे लिए पढ़ाई का क्या मतलब, हमें तो पेट पालना है. लेकिन मिनहाज धैर्य से समझाते कि पढ़ाई ही उनकी अगली पीढ़ी को गरीबी से निकाल सकती है. धीरे-धीरे लोग मानने लगे और इन बस्तियों में रात की रोशनी सिर्फ़ लालटेन से नहीं, पढ़ाई से भी चमकने लगी.
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थोड़े ही समय में उन्हें अहसास हुआ कि असली बदलाव बच्चों की पढ़ाई से होगा. अगर बच्चे स्कूल जाएंगे, तभी समाज की तस्वीर बदलेगी. इसके लिए उन्होंने राजधानी की बस्तियों का बाकायदा सर्वे किया. डोम टोली, हरिजन टोला, गड़हा टोली, गुदड़ी मोहल्ला, कडरू टोली, इलाही नगर और इस्लाम नगर जैसे इलाकों में कदम रखा. यह वही जगहें थीं, जहां लोग नाक पर रुमाल रखकर भी जाने से हिचकते थे. लेकिन मिनहाज वहीं पहुँचे, परिवारों से मिले और बच्चों को स्कूल भेजने का अभियान शुरू किया.
उनकी राह में साथियों का सहयोग भी जुड़ता गया. YMCA ने मदद का हाथ बढ़ाया और फिर जर्मनी की संस्था CVJM से भी समर्थन मिला. धीरे-धीरे उनके अभियान ने आकार लेना शुरू किया. कई बार वे खुद बच्चों का हाथ पकड़कर उन्हें स्कूल ले जाते. कभी बच्चों की पसंद का स्कूल चुनते और वहां दाखिला कराते. इसका नतीजा यह हुआ कि 90के दशक तक शहर के 34नामी स्कूलों में 4से 5000गरीब बच्चे पढ़ाई करने लगे. आज वही बच्चे बड़े होकर डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर और सरकारी अफसर बन चुके हैं. मिनहाज जब इन बच्चों की कामयाबी के किस्से सुनाते हैं, तो उनके चेहरे की चमक किसी भी बड़े इनाम से बड़ी लगती है.
इतने बड़े काम को संभालना भी आसान नहीं था. इसके लिए उन्होंने बस्तियों में दो कमेटियां बनाई, लोकल कमेटी और महिला मंडल. लोकल कमेटी में इलाके के नौजवान और पुरुष शामिल होते, जो ज़रूरतें बताते और बच्चों को स्कूल भेजने में सहयोग करते. महिला मंडल घर-घर जाकर माताओं को समझातीं और बच्चों को पढ़ाई की ओर प्रेरित करतीं. खर्च का मॉडल भी बड़ा सोच-समझकर बनाया गया. कुछ पैसा YMCA से आता, कुछ मिनहाज के दोस्तों से और थोड़ा हिस्सा बच्चों के अभिभावकों से लिया जाता. मकसद साफ़ था कि माता-पिता भी जिम्मेदारी महसूस करें और शिक्षा को मुफ्त की चीज़ न समझें.

जब शिक्षा की नींव मजबूत हो गई, तब मिनहाज ने गरीब बस्तियों में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी को महसूस किया. उन्होंने शहर के डॉक्टरों, दवा दुकानदारों और मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स से संपर्क किया और महीने में एक बार स्लम इलाकों में फ्री हेल्थ कैंप लगाना शुरू किया. धीरे-धीरे यह पहल भी मजबूती पकड़ने लगी. बीमार बच्चों और बुजुर्गों को इलाज और दवाइयां मिलने लगीं. आज भी यह सिलसिला लगातार जारी है.
लगभग दो दशक तक शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने के बाद मिनहाज को एक और बड़ी चुनौती का एहसास हुआ. उन्होंने देखा कि गरीब सिर्फ़ अशिक्षित और बीमार ही नहीं हैं, बल्कि अपने अधिकारों से भी पूरी तरह अनजान हैं. उन्हें यह तक पता नहीं था कि उनके बच्चों को मुफ्त शिक्षा का अधिकार है, सड़क किनारे उनकी दुकानें हटाई नहीं जा सकतीं या सरकार की योजनाएं उनके लिए बनी हैं. इस कमी को पूरा करने के लिए मिनहाज ने एक नया कदम उठाया और अवेयरनेस बिल्डिंग कमेटियां बनाईं. इनमें 11सदस्य होते और इनका काम सिर्फ़ एक था, लोगों को उनके अधिकार और कर्तव्य समझाना. धीरे-धीरे शहर और आसपास की बस्तियों में ऐसी 30-35कमेटियां बन गईं. आज ये कमेटियां शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आवास और कानूनी अधिकारों तक हर मुद्दे पर गरीबों को जागरूक कर रही हैं.
साल 2018में मिनहाज ने औपचारिक रूप से रिटायरमेंट लिया. लेकिन उनके लिए रिटायर होना महज़ एक शब्द है. वे आज भी कहते हैं, जब तक सामर्थ्य है, मैं रिटायर नहीं हो सकता. सेवा से कोई रिटायरमेंट नहीं होता. यही वजह है कि आज भी वे कमेटियों को मार्गदर्शन देते हैं, बस्तियों में जाते हैं और जरूरत पड़ने पर हर मोर्चे पर खड़े रहते हैं.
इस बीच, उन्होंने सिर्फ़ शिक्षा और स्वास्थ्य तक खुद को सीमित नहीं किया. पानी की समस्या से जूझते इलाकों में कुआं और चापाकल लगवाने का काम भी किया. इसके लिए उन्होंने पब्लिक पार्टिसिपेशन का मॉडल अपनाया. यानी आर्थिक सहयोग बाहर से मिले तो इलाके के लोग कम से कम श्रमदान ज़रूर करें. उनका मानना है कि अगर लोग खुद मेहनत करेंगे, तो काम की अहमियत समझेंगे और उसे संभालकर रखेंगे.
आज मिनहाज की कहानी यह साबित करती है कि बदलाव लाने के लिए बड़ी ताक़त या पद की ज़रूरत नहीं होती. ज़रूरत होती है सिर्फ़ जज्बे की, ईमानदारी की और धैर्य की. उन्होंने अकेले शुरुआत की थी, लेकिन उनके साथ कारवां जुड़ता गया. हजारों बच्चों की जिंदगी बदली, बस्तियों में शिक्षा की रोशनी फैली, स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचीं और लोग अपने अधिकारों को पहचानने लगे.
मिनहाज जब मुस्कुराते हुए कहते हैं कि हमने जो किया, वह समाज ने मिलकर किया, मैं तो बस एक जरिया था, तो उनकी विनम्रता और भी बड़ी लगती है. असल में यही सच्चे हीरो होते हैं, जो चुपचाप मेहनत करके लोगों की जिंदगी में रोशनी भरते हैं और फिर पीछे हटकर कहते हैं कि यह काम मैंने नहीं, समाज ने किया.
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