कारवां जो लेह की दुगर्म जमीन का नया रंग बना

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 13-10-2025
The caravan that brought a new color to the difficult terrain of Leh
The caravan that brought a new color to the difficult terrain of Leh

 

d हरजिंदर

जब भी लद्दाख के मुसलमानों की बात होती है तो कारगिल के शिया समुदाय का जिक्र जरूर होता है. लेकिन ऐसी चर्चाओं में हम अक्सर उन समुदायों को भूल जाते हैं जिनकी संख्या बहुत कम है या जो माइक्रोस्कोपिक माईनाॅरिटी हैं. भले ही उनका इतिहास बहुत दिलचस्प हो.

लद्दाख का एक ऐसा ही समुदाय है जिसे अरगान कहा जाता है. इस समुदाय के ज्यादातर लोग सुन्नी मुसलमान हैं और लेह में या उसके आस-पास रहते हैं. इस समुदाय की आबादी कितनी होगी इसका कोई प्रामाणिक आंकड़ा नहीं है. समुदाय के लोग अपनी आबादी दस हजार बताते हैं,लेकिन इस आंकड़ें की किसी तरह से पुष्टि नहीं हो सकती.
संख्या से ज्यादा दिलचस्प है इन लोगों का इतिहास. पहली नजर में यह समझ पाना आसान नहीं है कि अलग तरह के ये लोग लेह के इस दुगर्म इलाके में कैसे पंहुचे और फिर यहां के तमाम मुश्किलों वाले भूगोल को हिस्सा बन गए.

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अरगान समुदाय की कहानी 17वीं सदी से शुरू होती है. यह वह समय था जब लद्दाख रेशम मार्ग का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था. पश्चिमी एशिया के तमाम व्यापारी इसी रास्ते से चीन आते जाते थे. तुर्की के व्यापरियों ने अपने कारवां के लिए लेह के रास्ते को चुना. कारवां जब यहां पहंुचे तो उनके लिए यहां ठहरने खाने का पर्याप्त इंतजाम हों और आगे की यात्रा के लिए उन्हें कोई दिक्कत न हो इसके लिए यह सोचा गया कि अपने कुछ लोगों को यहीं बसा दिया जाए.

वैसे यह कैसे हुआ होगा यह हमें ठीक से पता नहीं है. कोई लिखित इतिहास नहीं है और अनुमान ही लगाए जा सकते हैं. एक दूसरा अनुमान यह है कि किसी साल ज्यादा बर्फ गिर जाने के कारण एक कारवां आगे नहीं बढ़ सका और यहीं रहने को मजबूर हो गया. यह भी कहा जाता है कि किसी भटक गए कारवां के लोग यहां पहंुचे और फिर यहीं के हो के रह गए.

सच जो भी हो लेकिन हम अभी सिर्फ इतना ही जानते हैं कि ये लोग जब यहां बसे तो उन्होंने स्थानीय महिलाओं से शादी कर ली. फिर अपनी दुनिया ही यहां बसा ली. धीरे-धीरे उन्होंने यहां के रीति रिवाज भी अपना लिए. बावजूद इसके उन्होंने अपनी धार्मिक पहचान बनाए रखी.

यह लद्दाख के इतिहास का महत्वपूर्ण दौर था. इसी दौरान मुगल शासन का विस्तार यहां तक हुआ. लेह के पहली मस्जिद सस सोम भी तकरीबन इसी दौरान बनी. यह भी कहा जाता है कि इस मस्जिद को बनाने में मुगल सेना की भूमिका थी.

इस समुदाय के लोग विदेशी मूल के हैं. इसे इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि स्थानीय भोटी भाषा में इनके लिए शब्द है- फई पा. जिसका अर्थ होता है विदेशी या परदेशी.

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इतिहास कभी सीधी रेखा नहीं होता. इसमें कईं जटिल मोड़ होते हैं. हमें इन सबके बारे में ज्यादा नहीं पता. एक बात और है कि लंबे समय तक बाकी दुनिया से कटे रहे समुदाय के लोग खुद ही अपने इतिहास से अनजान हैं.

अरगाॅन समुदाय की अदीबा जहां ने कुछ समय पहले अपने समुदाय के लोगों और बाकी दुनिया को अपने बारे में बताने की ठानी. इस काम के लिए उन्होंने दास्तानगोई का तरीका अपनाया. उनकी ‘दास्तान ए कारवां‘ हमें उस समुदाय की कहानी बताती है जिसके बारे में इतिहासकार भी चुप हैं.

 (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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