जमीयत उलेमा-ए-हिंद की 34वीं आम सभा: गौरवशाली अतीत से बेहतर भविष्य की ओर

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 11-02-2023
जमीयत उलेमा-ए-हिंद देश को सुपर पॉवर बनाने के लिए आरएसएस के साथ काम करने को तैयार :  महमूद मदनी
जमीयत उलेमा-ए-हिंद देश को सुपर पॉवर बनाने के लिए आरएसएस के साथ काम करने को तैयार :  महमूद मदनी

 

wasayप्रो. अख़्तरुल वासे
 
भारत का स्वतंत्रता आंदोलन, जिसमें हमारे विद्वानों ने, शाह अब्दुल अज़ीज़ के फ़तवे से लेकर शामली के मोर्चे तक अंग्रेज़ों से लोहा लिया, विदेशी साम्राज्यवाद और औपनिवेशिक अत्याचार के ख़िलाफ़ डटकर मुक़ाबला किया और हज़ारों की संख्या में उलेमा ने अपना ख़ून बहाया. ये हमारे उलेमा ही थे जिन्होंने रेशमी रुमाल आन्दोलन की शुरुआत की थी.

फलस्वरूप उन्हें कारावास की अभूतपूर्व कठिनाइयों से गुज़रना पड़ा और यह क्रम केवल हिंदुस्तान तक ही सीमित नहीं था बल्कि माल्टा तक फैला हुआ था जहाँ शेख़ुल-हिन्द मौलाना महमूद हसन और शैख़ुल इस्लाम मौलाना हुसैन अहमद मदनी क़ैद रहे.
 
1919 में, शेख़ुल-हिंद और शेख़ुल-इस्लाम की वतन वापसी के बाद हमारे विद्वानों ने देश की स्वतंत्रता और मुसलमानों की इस्लामी पहचान की रक्षा के लिए एक मंच बनाने का फ़ैसला किया. शेख़ुल-हिंद, मुफ़्ती किफ़ायतुल्लाह साहिब, सहबानुल-हिंद मौलाना अहमद सईद साहिब, शेख़ुल हिंद मौलाना हुसैन अहमद मदनी और मुजाहिदे-मिल्लत मौलाना हिफ़ज़ुर्रहमान साहिब और उनके साथियों के नेतृत्व में जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने आज सौ साल से अधिक का सफ़र तय कर लिया है.
 
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उपरोक्त बुज़ुर्गों के बाद जमीयत उलेमा-ए-हिंद का नेतृत्व मौलाना सैयद असद मदनी ने संभाला और उन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों, धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों और राष्ट्रीय पहचान के लिए अनथक प्रयास किया.मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और मुजाहिद-ए-मिल्लत मौलाना हिफ़ज़ुर्रहमान जैसे विद्वानों ने ख़ुद को उन लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति प्रतिबद्ध किया जो परंपरा से स्थापित हो चुकी थीं.
 
जमीयत उलेमा-ए-हिंद के बारे में एक बात कम लोग जानते हैं कि जमीयत उलेमा-ए-हिंद के समान विचारधारा वाले बुज़ुर्गों ने मजलिस-ए-अहरार जैसे संगठनों को जन्म दिया और स्वतंत्रता आंदोलन को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
 
यह जमीयत उलेमा-ए-हिंद और उससे जुड़े लोगों की ही भूमिका थी जिसने मुस्लिम पर्सनल लॉ के कार्यान्वयन को सुनिश्चित किया और इसके अलावा जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने भी इमाम अबू हनीफ़ा के फ़तवे को ख़ारिज कर दिया और इमाम मलिक के फ़तवे को अपनाने की इज्तिहादी (धर्मशास्त्र) प्रक्रिया में बराबर के भागीदार थे और यह पहली बार था जब हनफ़ी मुसलमानों ने एकता और आम सहमति से एक महत्वपूर्ण फ़ैसला लिया.
 
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इसी तरह जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने मुसलमानों को धार्मिक रूप से मार्गदर्शन करने के लिए अमीर-ए-शरीयत का ओहदा स्थापित किया और आज भी बड़ी संख्या में मुसलमान धार्मिक मार्गदर्शन के लिए उनकी ओर देखते हैं.
 
जमीयत उलेमा-ए-हिंद की एक ऐतिहासिक भूमिका धार्मिक आधार पर अलगाववादी राजनीति का कड़ा विरोध करना भी थी. जब मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए एक अलग देश की मांग कर रही थी और मुहम्मद अली जिन्ना कह रहे थे कि “क़ौमें मज़हब से बनती हैं” तो उस वक़्त देवबंद के शेख़ुल-हदीस और जमीयत उलेमा-ए-हिंद शान मौलाना हुसैन अहमद मदनी ही थे जिन्होंने इस सिद्धांत का दृढ़ता से खंडन किया और कहा कि “क़ौमें मज़हब से नहीं, वतन से बनती हैं.” और समय ने इसे सच साबित कर दिया.
 
आज पाकिस्तान में कोई भी मुसलमान बिना वीजा के प्रवेश नहीं कर सकता है और यह नीति पाकिस्तान तक ही सीमित नहीं है, बल्कि आप मुस्लिम दुनिया के किसी भी देश में उनके द्वारा जारी वीजा के बिना प्रवेश नहीं कर सकते हैं.
 
इस प्रकार शेख़ुल-इस्लाम मौलाना हुसैन अहमद मदनी की दक्षता कऔर प्रवीणता को स्वीकार करना पड़ता है. आजादी के बाद ये शेख़ुल-इस्लाम मौलाना हुसैन अहमद मदनी ही थे जिन्होंने सरकार की पेशकश के बावजूद कोई आधिकारिक उपाधि या सम्मान स्वीकार नहीं किया और उन्हीं की तरह हमारे अधिकांश उलेमा ने भी यही रवैया अपनाया.
 
आज़ादी के बाद जमीयत उलेमा-ए-हिंद और ज़्यादा सक्रिय रही. चाहे उनके खिलाफ सांप्रदायिक दंगों में उनकी वैधता के सवालों का जवाब देना हो या मदरसों के अस्तित्व या स्कूल के पाठ्यक्रम में सांप्रदायिक सामग्री की उपस्थिति के खिलाफ़ संघर्ष, चाहे पर्सनल लॉ की सुरक्षा का मामला हो या आर्थिक और शैक्षिक मोर्चे पर अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा का मामला, जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने एक हरावल दस्ते का काम किया है. 
 
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पैग़ंबर मुहम्मद सल्ल., पवित्र क़ुरान और इस्लाम के ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ और आंदोलन के सामने जमीयत उलेमा-ए-हिंद सभी मुसलमानों के साथ खड़ी है. इसके साथ ही जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ देवबंद और दिल्ली के अलावा देश भर में बड़ी सभाएं आयोजित कीं.
 
पिछले कुछ सालों से मुसलमानों को तरह-तरह से प्रताड़ित करने के ख़िलाफ़ जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने न केवल गंभीरता से नोटिस लिया है बल्कि जमीयत सद्भावना मंच की स्थापना कर विभिन्न धर्मों के नेताओं को एक मंच पर लाकर एक सकारात्मक प्रयास भी किया है और अब तक जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने इस मंच के तहत विभिन्न शहरों और क़स्बों में अनगिनत सभाएँ आयोजित की हैं ताकि इस्लाम, क़ुरान और पैग़ंबर मुहम्मद के बारे में जो झूठ फैलाया जा रहा है उसे ठीक किया जा सके.
 
यह जमीयत उलेमा-ए-हिंद ही है जिसने विभिन्न स्थानों पर हुए दंगों में निर्दोष, दमित और निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी पर आवश्यक कानूनी कार्रवाई की है और उनके प्रयासों से न जाने कितने लोगों को रिहा किया गया है और उन्हें रिहा किया गया है.
 
कारावास की सजा से छुटकारा मिल सकता है जमीयत उलेमा हिन्द ने इस कानूनी संघर्ष को निचले स्तर की अदालतों तक सीमित नहीं रखा बल्कि सर्वोच्च न्यायालय तक अपनी आवाज उठाई और आज परिणाम यह है कि सर्वोच्च न्यायालय नफरत, सांप्रदायिक और हिंसक प्रवृत्तियों के खिलाफ सख्त नोटिस ले रहा है.
 
जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने अपनी गतिविधियों को केवल भारत तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि भारत के मुस्लिम देशों के साथ बेहतर संबंधों के लिए असाधारण योगदान भी दिया है और इसीलिए एक समय ऐसा भी था जब किसी मुस्लिम देश के प्रमुख या अधिकारी आते थे तो जमीयत उलेमा-ए-हिंद उनका स्वागत अवश्य ही करती थी.
 
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जमीयत उलेमा-ए-हिंद की 34वीं आमसभा 10 से 12 फरवरी 2023 को दिल्ली के रामलीला मैदान में होने जा रही है, जिसमें लगभग दस हजार प्रतिनिधि कार्यसत्रों में वर्तमान समय में उत्पन्न हुई समस्याओं और कष्टों पर विचार करेंगे, जमीयत उलेमा-ए-हिंद देश और देशवासियों को नई राह दिखाएगी और उम्मीद है कि 12 फ़रवरी को होने वाली आमसभा में क़रीब एक लाख लोग हिस्सा लेंगे.
 
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफ़ेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज़) हैं.)