पढ़ेगा मुसमलान तभी तरक्की करेगा समाज

Story by  क़ुरबान अली | Published by  [email protected] • 2 Years ago
पढ़ेगा मुसमलान तभी तरक्की करेगा समाज
पढ़ेगा मुसमलान तभी तरक्की करेगा समाज

 

मेहमान का पन्ना

 
qurbanकुरबान अली      
 
देश में मुसलमानों के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक हालात का पता लगाने के लिए सन 2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए  सरकार ने  जस्टिस राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था.

सन् 2006 में इस कमेटी ने अपनी जो रिपोर्ट केंद्र सरकार को पेश की और जो संसद के पटल पर भी रखी गई, वह चैंकाने वाली थी. इस रिपोर्ट में बताया गया कि देश में मुसलमानों के हालात पिछड़ी और दलित जातियों से भी बदतर हैं.
 
उनकी सुरतेहाल बेहतर करने के लिए तत्काल प्रभावी कदम उठाए जाने की जरूरत है. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में रोजगार और शिक्षा सहित अन्य क्षेत्रों में मुसलमानों के साथ भेदभाव और उन्हें अलग-थलग रखे जाने का विस्तार से विवरण पेश किया गया था.
 
इस कमेटी की सिफारिशों के आधार पर केंद्र सरकार ने बड़े स्तर पर नीतियां बनाईं. उन्हें देश भर में लागू किया गया.इसी रिपोर्ट के मद्देनजर अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए एक अलग मंत्रालय खोला गया और कई नई योजनाएं शुरू की गईं, जिनका मकसद देश के अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों की स्थिति को बेहतर बनाना था.
 
उसी समय राष्ट्रीय  विकास परिषद की बैठक में प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह ने यह बयान दिया कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है. उनके इस बयान पर अभी तक विवाद हो रहा है.
 
सच्चर कमेटी की सिफारिशों से मुसलमानों का कितना विकास हुआ यह जानने के लिए केंद्र सरकार ने प्रोफेसर अमिताभ कुंडू की अध्यक्षता में सितंबर 2013 में एक कमेटी का गठन किया.
 
इस कमेटी ने अक्टूबर 2014 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी. इस रिपोर्ट में कहा गया कि सच्चर कमेटी की सिफारिशें लागू किए जाने के 6-7 साल बाद भी मुसलमानों के हालत में कोई खास फर्क नहीं आया है. उनके विकास के लिए कुछ और ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत है.
 
दो साल पहले सन 2020 में कुछ शोधकर्ताओं ने यह जानने का प्रयास किया कि 2006 में आई सच्चर कमेटी की सिफारिशों के 14 वर्ष पूरे होने के बाद मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति में क्या बदलाव आया तो उनके द्वारा एकत्रित आंकड़े  हैरान करने वाले निकले. मुसलमानों की जनसंख्या देश की कुल आबादी का 14 प्रतिशत है, किंतु लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व महज 4.9 प्रतिशत है.
 
सिविल सेवाओं के 2019 के नतीजों में 829 सफल उम्मीदवारों में केवल 5 प्रतिशत मुसलमान थे. 28 राज्यों में कोई भी पुलिस प्रमुख या मुख्य सचिव मुसलमान नहीं था.
 
सुप्रीम कोर्ट के 33 जजों में मुसलिम समुदाय का केवल एक जज था.आईआईटी, आईआईएम तथा एम्स की प्रशासनिक समिति में कोई भी मुसलमान नहीं था. लगभग यही स्थिति निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र की श्रेष्ठ कंपनियों और मीडिया हाउस की थी,
 
जहां सर्वोच्च स्तर पर मुस्लिम प्रतिनिधित्व का नितांत अभाव था. सन 2013 में संयुक्त राष्ट्र संस्था यूएनडीपी ने भारत में महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों को रेखांकित करते हुए कहा था कि भारत में गरीब मुसलमानों की तादाद सबसे ज्यादा असम, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, और गुजरात में है.
 
संयुक्त राष्ट्र की संस्था का कहना है कि जहां तक धार्मिक समूहों का मामला है मुसलमानों में गरीबों की तादाद इन राज्यों में सबसे ज्यादा  है.
 
दरअसल, मुसलमानों के पिछड़ेपन के कई कारण हैं. सबसे बड़ा कारण उनका अशिक्षित होना है. मुसलमानों के सामाजिक आर्थिक पिछड़ेपन के कारणों का पता लगाने के लिए 1870 में तत्कालीन अंग्रेज हुकूमत ने हंटर कमीशन का गठन किया था.
 
इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि उस समय कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में 300 ग्रेजुएट छात्रों में सिर्फ तीन मुस्लमान थे. इसके बाद 1877 में महान समाज सुधारक सर सैयद अहमद खान ने अलीगढ़ में एमएओ कॉलेज की स्थापना की जो भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों के शैक्षिक स्तर को बेहतर बनाने में क्रांतिकारी कदम साबित हुआ.
 
इस कॉलेज के विश्वविद्यालय (1920)  बनने के महज 27 साल बाद देश का विभाजन हो गया. पढ़े लिखे ज्यादातर मुसलमान पाकिस्तान चले गए. तबसे लेकर आजतक भारतीय मुसलमान चैराहे पर खड़ा है.
 
भारतीय मुसलमान खासकर उत्तर भारतीय मुसलमानों को यह तय करना है कि उसे करना क्या है ? उनकी चुनौतियां क्या हैं ? दक्षिण भारत के मुसलमानों खासकर केरल, आंध्र प्रदेश-तेलंगाना और कर्नाटक के मुसलमानों ने शिक्षा के छेत्र में काफी तरक्की की है.
 
केरल में 100 प्रतिशत जनसंख्या शिक्षित होने का लाभ मुसलमानों को भी मिला और वह अरब तथा खाड़ी के देशों में बड़े पैमाने पर रोजगार हासिल कर रहे हैं.  
 
भारतीय मुसलमानों को गंभीरता के साथ यह सोचना है कि जज्बाती और धार्मिक मुद्दों के आधार पर वह क्या हासिल कर सकता है या क्या नहीं ? आमतौर पर यह देखा गया है कि उर्दू, पर्सनल लॉ,अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का माइनॉरिटी कैरेक्टर और बाबरी मस्जिद जैसे जज्बाती मुद्दों पर ही वह आंदोलित होता रहा है.
 
उसने कभी भी सरकारों से या अपने राजनीतिक आकाओं से यह सवाल नहीं किया कि वह पिछड़ा क्यूँ है ? उसके पिछड़ेपन को क्यूं दूर नहीं किया जाता ? क्यूं उन्हें शिक्षा और रोजगार के अवसर नहीं दिए जाते ?
 
क्यूं उनके साथ भेदभाव किया जाता है? क्यूं उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बना कर रखा जाता है. क्यूं उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से बाहर रखा जाता है ?
 
भारतीय मुसलमान इस बात पर फख्र कर सकता है कि दुनिया के आतंकवादी संगठनों जैसे अलकायदा,आईएसआईएस आदि में उसकी भागेदारी नहीं के बराबर है.
 
कश्मीर में भी आतंकवादी गतिविधियों में गैर कश्मीरी भारतीय मुसलमानों की तादाद नहीं के बराबर है, इसलिए समय का तकाजा है कि उसे अपने आपको शिक्षित करके रचनात्मक कामों में लगाना चाहिए.
 
साथ ही भारत सरकार, राज्य सरकारों और देश के बहुसंख्यक समाज को भी यह समझना होगा कि अगर देश का एक बड़ा वर्ग सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक रूप से पिछड़ा रहेगा तो देश भी सही मायनों में तरक्की नहीं कर सकेगा.
 
शरीर का अगर कोई अंग विकसित नहीं हो पाता या विकलांग हो जाता है तो तो आप पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हो सकते. यह बात देश के कर्णधारों और मुसलमानों दोनों को समझनी होगी.
 
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. बीबीसी में काम कर चुके हैं. यह उनके अपने विचार हैं.