ज़ेब अख्तर
छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में फैले आदिवासी समुदायों में ज़मीन पर अधिकार पारंपरिक रूप से केवल पुरुषों को दिए जाते रहे हैं.एक आम मुहावरा—"हमारी बेटियाँ और बहनें हमारा गौरव हैं, लेकिन ज़मीन पर उनका कोई अधिकार नहीं है"—इन समाजों की गहरी जड़ों में मौजूद लैंगिक भेदभाव को उजागर करता है.
संविधान की पाँचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले इन क्षेत्रों में आदिवासी प्रथाओं को कानूनी मान्यता दी गई है.अनुच्छेद 13 और 372 के तहत इन्हें "प्रथागत कानून" का दर्जा मिला है.लेकिन जब ये परंपराएँ महिलाओं के खिलाफ भेदभाव पर आधारित होती हैं, तो वे संविधान के बुनियादी अधिकारों, विशेषकर समानता और न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ खड़ी हो जाती हैं.
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में स्पष्ट किया कि आदिवासी महिलाओं को भी पुरुषों की तरह समान उत्तराधिकार अधिकार मिलने चाहिए.पहली नज़र में यह फैसला न्यायसंगत लगता है, लेकिन जब इसे गहराई से देखा जाए तो सवाल उठता है कि क्या यह निर्णय संविधानिक न्याय है या सांस्कृतिक स्वायत्तता में एक बाहरी हस्तक्षेप?
आदिवासी महिलाएँ जल, जंगल और ज़मीन से गहराई से जुड़ी होती हैं.वे बीजों को संरक्षित करती हैं, खेती में भाग लेती हैं और पारंपरिक आजीविका बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती हैं.लेकिन जब ज़मीन के मालिकाना हक की बात आती है, तो वे अक्सर हाशिए पर रहती हैं.सम्मान और अधिकार में अंतर है—महिलाओं का सम्मान किया जाना एक बात है, लेकिन उन्हें बराबरी के हक़ देना दूसरी.
यह भी कहा जाता है कि आदिवासी ज़मीन सामूहिक होती है, लेकिन व्यावहारिक रूप में जब ज़मीन का अधिग्रहण होता है, तो मुआवज़ा ग्राम सभा को नहीं, बल्कि व्यक्तिगत मालिकों को ही दिया जाता है.
पनहाई, मुंडई, महतोई, डाली-कटारी जैसी पारंपरिक ज़मीनों के मामले में भी ऐसा ही देखने को मिला है.
एक और संवेदनशील पहलू यह है कि जब कोई आदिवासी महिला गैर-आदिवासी पुरुष से विवाह करती है, तो समुदाय इसे भूमि स्वामित्व की दृष्टि से देखता है.
हालांकि, कानून के अनुसार ज़मीन की प्रकृति नहीं बदलती—जैसे वन अधिकार अधिनियम के तहत दी गई ज़मीन हमेशा 'वन भूमि' रहती है, वैसे ही आदिवासी भूमि भी 'आदिवासी' ही मानी जाती है.
कानूनी दृष्टिकोण से देखें तो झारखंड में लागू छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (CNT Act) की धारा 6(1) विवाहित बेटियों को कृषि भूमि पर अधिकार से वंचित करती है, क्योंकि विवाह के बाद उन्हें अपने पैतृक परिवार का हिस्सा नहीं माना जाता.
लेकिन यही अधिनियम, धारा 17 में उत्तराधिकार के अधिकारों में लिंगभेद नहीं करता। यानी परंपराएँ अगर बेटियों को विरासत से बाहर करती हैं, तो वे संविधान की कसौटी पर असंवैधानिक ठहरती हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जब तक कोई विशिष्ट, मान्य परंपरा स्पष्ट रूप से सिद्ध न हो, तब तक न्याय, समानता और तर्क के सिद्धांतों के अनुसार निर्णय लिया जाना चाहिए.न्यायालय ने कहा कि न्यायालयों और प्रशासनिक अधिकारियों को अब आदिवासी महिलाओं को समान अधिकार सुनिश्चित करने होंगे—खासकर वहाँ जहाँ पारंपरिक प्रथाएँ अस्पष्ट या भेदभावपूर्ण हैं.
यह फैसला केवल एक कानूनी सुधार नहीं, बल्कि आदिवासी महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है.इससे उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ लेने, बैंक ऋण प्राप्त करने और सामुदायिक निर्णयों में सक्रिय भागीदारी की नई राहें खुल सकती हैं.
हालाँकि, यह भी सच है कि सिर्फ क़ानून बदलने से व्यवहार में हमेशा बदलाव नहीं आता.उदाहरण के लिए, मुस्लिम पर्सनल लॉ पहले से ही बेटियों को संपत्ति में हिस्सा देता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि कई मुस्लिम महिलाएं आज भी अपने अधिकारों से वंचित हैं.उसी तरह तथाकथित 'आधुनिक' समाजों में भी घरेलू हिंसा और संपत्ति विवाद आम हैं.
इसलिए यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ही आदिवासी महिलाओं की स्थिति बदल देगा.असली बदलाव तब होगा जब सामाजिक और सांस्कृतिक मानसिकता भी बदलेगी.कई आदिवासी समाज पहले से ही महिलाओं के प्रति लचीले और मानवीय दृष्टिकोण रखते हैं.विधवाओं, अविवाहित या परित्यक्त महिलाओं को ज़मीन का हिस्सा देने की परंपराएँ अनौपचारिक रूप से मौजूद हैं.
आख़िरकार, यह समय ही बताएगा कि यह निर्णय ज़मीनी स्तर पर कितना असर डालता है और आदिवासी समुदाय इसे कितनी सहजता से अपनाते हैं.लेकिन एक बात स्पष्ट है—संविधान अब यह इजाज़त नहीं देता कि कोई परंपरा महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करे.परिवर्तन का रास्ता लंबा हो सकता है, लेकिन इसकी दिशा अब तय हो चुकी है.