शुक्कुर दंपत्ति : जब प्यार, न्याय और हिम्मत ने मिलकर लिखा एक नया अध्याय

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 23-08-2025
Shukkur couple: When love, justice and courage together wrote a new chapter
Shukkur couple: When love, justice and courage together wrote a new chapter

 

dकेरल के प्रसिद्ध अधिवक्ता सी. शुक्कुर और उनकी पत्नी शीना शुक्कुर ने एक ऐसा कदम उठाया, जिसने राज्य के मुस्लिम समाज में चुपचाप एक नई जागरूकता की लहर पैदा कर दी.तीन बेटियों के माता-पिता इस दंपत्ति ने अपनी शादी के लगभग दो दशक बाद विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act - SMA) के तहत पुनः पंजीकरण कराया.यह फैसला केवल एक कानूनी औपचारिकता नहीं था, बल्कि एक बड़ा सामाजिक संदेश था, जिसका उद्देश्य मुस्लिम महिलाओं और विशेष रूप से बेटियों को संपत्ति में समान अधिकार दिलाना था.द चेंज मेकर्स के लिए केरल से हमारी प्रतिनिधि श्रीलता मेनन ने शुक्कुर दंपित पर यह विस्तृत रिपोर्ट साझा की है.

मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार, महिलाओं को पुरुषों की तुलना में उत्तराधिकार में कम हिस्सा मिलता है.उदाहरण के लिए, अगर पति की मृत्यु हो जाती है, तो पत्नी को केवल 1/8 संपत्ति मिलती है, जबकि पत्नी की मृत्यु पर पति को 1/4 हिस्सा मिलता है.

इसी तरह, पैतृक संपत्ति में बेटियों को बेटों की तुलना में केवल आधा हिस्सा ही मिलता है.इन असमानताओं से परेशान होकर शुक्कुर और उनकी पत्नी ने SMA के तहत अपनी शादी का पुनः पंजीकरण कर यह सुनिश्चित किया कि वे अपनी संपत्ति अपनी बेटियों के नाम वसीयत कर सकें, बिना शरीयत के बंधनों में बंधे.

शुक्कुर का कहना है कि यह कदम न केवल उनके परिवार के लिए था, बल्कि समाज के लिए एक संदेश भी था.उन्होंने स्वीकार किया कि उनके भाई संपन्न हैं.

उनकी संपत्ति में कोई दिलचस्पी नहीं रखते, इसलिए यह पूरी तरह एक जन-जागरूकता अभियान था.

SMA के तहत शादी पंजीकृत कराने से उन्हें यह कानूनी छूट मिल गई कि वे अपनी संपत्ति को अपनी मर्जी से किसी के नाम कर सकें, बिना मुस्लिम उत्तराधिकार कानूनों की बाध्यता के.

2023 में जब इस खबर को रिपोर्ट किया गया, तब तक यह कदम केरल के कई हिस्सों में एक प्रेरणा बन चुका था.शुक्कुर कहते हैं कि अब रोज़ लोग उनसे मिलते हैं.

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बताते हैं कि उन्होंने भी SMA के तहत अपनी शादी का पंजीकरण कराया है, ताकि बेटियों को बराबरी का हक मिल सके.हालांकि यह प्रक्रिया सार्वजनिक रूप से नहीं की जाती, लेकिन यह एक मौन क्रांति के रूप में मुस्लिम समाज में फैल रही है.

शुक्कुर मानते हैं कि शरीयत के उत्तराधिकार नियमों में समय के अनुसार बदलाव होना चाहिए.वे सवाल उठाते हैं कि अगर इस्लाम में ईश्वर को दयालु माना गया है, तो वह माता-पिता की मृत्यु के बाद उनके बच्चों को क्यों कष्ट देगा ?

वह कहते हैं कि लोग शरीयत को इसलिए मानते हैं क्योंकि उन्हें बताया गया है कि यह ईश्वर का बनाया कानून है.लेकिन जब कानून किसी के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो, तो उस पर पुनर्विचार आवश्यक हो जाता है.

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बाएं से दाएंः जबीं,शीना शुक्कुर,जैसमीन,सी शुक्कुर और जेहा

शुक्कुर शरीयत आवेदन अधिनियम, 1937में संशोधन की मांग करते हैं ताकि इसे मुस्लिमों के लिए वैकल्पिक बनाया जा सके.उनका मानना है कि वर्तमान स्वरूप में यह अधिनियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) और 16 (समान अवसर का अधिकार) का उल्लंघन करता है.

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dवे उदाहरण देते हैं कि दुबई जैसे मुस्लिम देश में भी शरीयत वैकल्पिक है.लोग अपनी संपत्ति अपनी संतान को बिना शरीयत की बाध्यता के दे सकते हैं.हालाँकि SMA के तहत विवाह पुनः पंजीकरण को एक समाधान के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन शुक्कुर इसे सीमित विकल्प मानते हैं.

उनका कहना है कि SMA की धारा 15केवल विवाहित जोड़ों को अपनी शादी का पुनः पंजीकरण कराने की अनुमति देती है.इसलिए विधवाएं, विधुर या तलाकशुदा लोग इसका लाभ नहीं उठा सकते.ऐसे में यह समाधान सभी के लिए उपलब्ध नहीं है.इसलिए वह चाहते हैं कि शरीयत को ही वैकल्पिक बना दिया जाए,ताकि हर व्यक्ति को समान अवसर मिल सके.

शुक्कुर इस बात से भी नाखुश हैं कि सरकार मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के नाम पर केवल प्रतीकात्मक कदम उठा रही है. जैसे तीन तलाक का मुद्दा.

उनका मानना है कि अगर सरकार वास्तव में मुस्लिम महिलाओं की परवाह करती है तो उसे बहुविवाह जैसी प्रथाओं पर रोक लगानी चाहिए, जो महिलाओं के भावनात्मक, आर्थिक और सामाजिक अधिकारों का खुला उल्लंघन है.

वह कहते हैं कि बहुविवाह सिर्फ एक धार्मिक या सांस्कृतिक मुद्दा नहीं है, महिलाओं के सम्मान और समानता से जुड़ा सवाल है.

अपने निर्णय के कारण उन्हें कई धार्मिक मंचों पर आलोचना झेलनी पड़ी है.कई बार उनके नाम को लेकर यह कहा गया कि उन्होंने शरीयत के विरुद्ध जाकर "पाप" किया है.उन्हें इसके लिए सज़ा मिलेगी.

लेकिन शुक्कुर इन बातों पर हँसते हैं.कहते हैं कि उन्होंने जो सोचा था, उसमें वे पूरी तरह सफल रहे हैं.

उनका आत्मविश्वास तब और प्रबल हो जाता है जब वे देखते हैं कि केरल के गाँवों और कस्बों में विवाह रजिस्टर SMA के तहत दोबारा पंजीकरण कराने वाले मुस्लिम जोड़ों से भरते जा रहे हैं.

यह सच है कि SMA कोई सर्वसमाधान नहीं है, लेकिन यह एक रास्ता ज़रूर खोलता है — एक ऐसा रास्ता जिसमें माता-पिता अपनी बेटियों को वही अधिकार दे सकते हैं जो बेटे को मिलते हैं

.यह कदम केवल संपत्ति के अधिकारों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह महिलाओं को सामाजिक और कानूनी समानता दिलाने की दिशा में एक बड़ी पहल है.

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शुक्कुर और शीना का यह साहसी निर्णय आज कई मुस्लिम परिवारों के लिए आशा की किरण बन चुका है.वे न सिर्फ एक नई सोच के प्रतीक हैं, बल्कि यह भी दिखाते हैं कि धार्मिक आस्था और कानूनी न्याय के बीच संतुलन बनाया जा सकता है.उनकी कहानी यह साबित करती है कि अगर इरादा मजबूत हो, तो परंपराएं भी बदली जा सकती हैं  और समाज में एक नई सोच की नींव रखी जा सकती है.