डॉ फैयाज अहमद फैजी
आज 21अगस्त है और आज के ही दिन महान शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खान इस दुनिया की छोड़ परलोक सिधार गए थे.उन्होंने शहनाई के माध्यम से पूरे विश्व के संगीत जगत में भारत की पहचान को और अधिक प्रगाणता और श्रेष्ठता से प्रतिष्ठित कर पूरे भारत देश को गौरवान्वित किया.हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शहनाई को भौगोलिक संकेत (GI) टैग की मान्यता मिलना, इस महान परंपरा को एक बार फिर रेखांकित करता है, जिसकी पहचान उस्ताद बिस्मिल्लाह खान से अभिन्न रूप से जुड़ी है.
उस्ताद बिस्मिल्लाह जी की संगीत प्रतिभा ने इस वाद्य यंत्र शहनाई को जो डेढ़ सतक का साज था,प्रयोग करके दो सतक का साज बनाकर इसे बड़े मंचों पर उतार कर लोकप्रिय बनाया और जल्द ही शहनाई उनके द्वारा संगीत समारोहों, फिल्मों, संगीत एल्बमों और अन्य मीडिया में बेजोड़ कौशल के साथ बजने लगी.जिसके कारण शहनाई की ख्याति उपमहाद्वीप के लोक क्षेत्रों से परे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी होने लगी थी.
यह एक सुखद विरोधाभास का पवित्र संजोग हैं, जो केवल भारत में ही हो सकता है, वह व्यक्ति जिसने पवित्र हिंदू शहर बनारस के आध्यात्मिक भावना को अपने संगीत से बहुत ही करीने से मूर्त रूप दिया, एक पसमांदा मुस्लमान था.
जन्म और बनारस प्रवास
आपका जन्म बक्सर जिले के डुमराव क़स्बे के मुहल्ले पटहेरी के भिरुंग साह गली में बचई मियां और मिठ्ठन बीबी के घर पर हुवा था.पौत्र को देख कर दादा ने बिस्मिल्ला पढ़ा जिससे आपका नाम ही बिस्मिल्ला प्रसिद्ध हो गया.बचपन में बालक बिस्मिल्ला अपने पिता बचई मियां के साथ डुमराव क़िले के अंदर बिहारी जी के मंदिर में शहनाई बजाने जाया करते थे.जब आपकी आयु लगभग 10वर्ष थी तो आप अपने ननिहाल बनारस प्रवास कर गये और वही के होकर रह गये.
काशी विश्वनाथ मंदिर में उनके नाना और बाद मे उनके मामा आरती के समय शहनाई बजाया करते थे.बिस्मिल्ला जी के मामा विलायती मियां ने उन्हें अपना शिष्य बनाकर संगीत की शिक्षा और दिक्षा देने लगे.
बालक बिस्मिल्ला शीघ्र ही शहनाई मे निपुण हो गये और अपने मामा विलायती मियां के साथ विश्वनाथ मन्दिर में स्थायी रूप से शहनाई-वादन का काम करने लगे जो उनकी मृत्यु तक बदस्तूर जारी रहा.बनारस के साथ उनकी अपनी पहचान इससे भी आगे बढ़ गई.वह प्रदर्शन करने के लिए इधर-उधर गए, लेकिन हमेशा उस मिट्टी, हवा और पानी में लौट आए जिसने उन्हें और उनकी कला को पोषित किया था.
व्यवहार और धार्मिक प्रवृत्ति
बिस्मिल्ला की पूरी जिंदगी सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धांत के अनुसार ही व्यतीत हुई.उन्हें कभी किसी बात का घमंड नहीं किया,धन दौलत की इच्छा लेश मात्र भी नहीं थी.बिस्मिल्ला पसमांदा हालालखोर मुस्लिम समाज (स्वच्छकार समाज) से थे.
जो उत्तर भारत में एक दलित मुस्लिम समुदाय है.जैसा कि पसमांदा मुसलमानो का चरित्र अत्यंत आध्यात्मिक होता हैं ठीक वैसा ही व्यक्तित्व बिस्मिल्ला जी का भी था.वह पांच वक़्त के नमाजी थे.
साथ ही साथ पवित्र रमजान के दौरान व्रत रखते थे.वे काशी के बाबा विश्वनाथ मन्दिर में जाकर तो शहनाई बजाते ही थे इसके अलावा वे गंगा किनारे बैठकर घण्टों रियाज भी किया करते थे.उनके बनारसी प्रशंसक तो उन्हें अल्लाह, विश्वनाथ बाबा,माता सरस्वती और गंगा मैया सबके उपासक मानते थे.उन के व्यक्तित्व पर पसमांदा “कवि नज़ीर बनारसी का शेअर बिलकुल उचित जान पड़ता हैं.
'हिंदू को तो यकीन है कि मुसलमान है नज़ीर
कुछ मुसलमानों को शक है कि हिंदू तो नहीं' ”
गंगा जी और बनारस से विशेष लगाव
बिस्मिल्ला गंगा को मां मानते थे.जैसे उनके लिए पांच टाइम नमाज जरूरी थी. वैसे गंगा में स्नान करना उनके लिए उतना ही जरूरी था.वह रोज सुबह-सुबह गंगा घाट पर शहनाई का रियाज करते और गंगा में स्नान करते थे.
एक बार, अमेरिका के किसी विश्वविद्यालय ने बिस्मिल्ला को अपने यहां संगीतकार बनने के लिए आमंत्रित किया.उनसे अपनी शर्तें बताने को कहा.तब बिस्मिल्ला जी ने उत्तर दिया कि वह तभी अमेरिका रहेंगे जब उनकी माँ गंगा, विश्वनाथ बाबा का मंदिर और पूरा बनारस उनके साथ लाया जा सके.अमेरिकी उत्तर सुनकर आवाक रह गया.
जब वो विदेश होते थे तो उन्हें भारत याद आता था. जब भारत के किसी दूसरे हिस्से मे होते तो उन्हें बनारस याद आता था.
पसमांदा कवि नजीर बनारसी ने इस तथ्य का चित्रण कुछ यूँ किया है:
'सोएंगे तेरी गोद में एक दिन मरके,
हम दम भी जो तोड़ेंगे तेरा दम भरके,
हमने तो नमाजें भी पढ़ी हैं अक्सर,
गंगा तेरे पानी से वजू कर के...'
फिल्मों से नाता
आपने कई एक फिल्मो मे शहनाई का हुनर दिखाया हैं जिन्हें ऐतिहासिक कृतियाँ माना गया. विशेष रूप से सत्यजीत रे की बंगाली फिल्म जलसा घर (1958), विजय भट्ट की सुप्रसिद्ध ब्लॉकबस्टर फ़िल्म 'गूंज उठी शहनाई’(1959),निर्देशक विजय की कन्नड़ फिल्म सनादी अप्पन्ना (1977) जिसमे एक ग्रामीण शहनाई कलाकार का किरदार सुपरस्टार डॉ. राजकुमार ने निभाया.
इसमें एक भोजपुरी फिल्म “बाजे शहनाई हमार अंगना” (1982) भी शामिल है, जिसे उनके पैतृक गांव डुमरांव में शूट किया गया था.साथ ही साथ आशुतोष गोवारिकर की फिल्म "स्वदेश"( 2004) के साउंडट्रैक के लिए भी उन्होंने शहनाई बजाई, विशेष रूप से "ये जो देस है तेरा" गीत में योगदान दिया.
इसके अतिरिक्त एक वृत्तचित्र 'संगे मील से मुलाक़ात' जो गौतम घोष द्वारा निर्देशित है जिसमे उस्ताद खुद हैं और एक युवा शहनाई वादक से भारत के सर्वश्रेष्ठ में से एक बनने तक उनके विकास यात्रा की कहानी दर्शायी गयी है.
अपने योगदान के बावजूद, बिस्मिल्लाह फिल्म उद्योग में बहुत ज़्यादा शामिल नहीं थे.कथित तौर पर उन्हें सेल्युलाइड की दुनिया की चमक और कृत्रिमता पसंद नहीं थी.बिस्मिल्लाह का प्राथमिक ध्यान शास्त्रीय संगीत और शहनाई पर रहा, जिसे वे संगीत समारोहों के मंच पर लेकर आए और इसकी स्थिति को ऊंचा किया.
पुरुस्कार और सम्मान
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को 2001में भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित किया गया.यह एक अनोखा और सुखद संजोग था कि ब्राह्मण समाज से आने वाले भारत के प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी की अनुसंशा पर दलित समाज से आने वाले भारत के राष्ट्रपति के आर नारायणन द्वारा एक पसमांदा दलित से आने वाले शहनाई वादक को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान “भारत रत्न” द्वारा सम्मानित किया गया.
सन् 1980में आपको पद्म विभूषण जो देश का दूसरा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है, से सम्मानित किया गया.सन् 1968मे भारत का तीसरा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म भूषण प्राप्त हुआ.सन् 1961 मे पद्म श्री चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार उन्हें भारत की राष्ट्रीय संगीत, नृत्य एवं नाटक अकादमी द्वारा वर्ष 1956 में दिया गया था.मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें तानसेन पुरस्कार से सम्मानित किया था.
तालार मौसिकी पुरस्कार उन्हें वर्ष 1992में ईरान गणराज्य द्वारा दिया गया था.उन्हें 1994में संगीत नाटक अकादमी का फेलो भी बनाया गया। पुरस्कारो का सिलसिला 1937से ही शुरू हो गया था जब कलकत्ता मे उन्हें अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में तीन पदक मिले थे.
विदेश यात्राएं
उन्होंने 1966 से पहले अन्य देशों में प्रदर्शन करने के निमंत्रण ठुकरा दिया था, लेकिन जब भारत सरकार ने उनसे एडिनबर्ग अंतर्राष्ट्रीय महोत्सव में प्रदर्शन करने पर जोर दिया तो वे मान गये इससे उन्हें पश्चिम में लोकप्रियता मिली और उसके बाद वे यूरोप और उत्तरी अमेरिका में कई बार प्रदर्शन करने गए.लंदन में रॉयल अल्बर्ट हॉल और न्यूयॉर्क में कार्नेगी हॉल सहित कुछ सबसे प्रतिष्ठित स्थानों पर प्रदर्शन किया.
इसके साथ साथ उस्ताद बिस्मिल्ला ने कान फ़िल्म कला महोत्सव, ओसाका व्यापार मेले और मॉन्ट्रियल में विश्व प्रदर्शनी में वैश्विक दर्शकों के लिए भी प्रदर्शन किया.
विशेष उपलब्धियां
बिस्मिल्ला वह उस्ताद थे जिनके संगीत ने लाल किले पर आजादी का आगाज किया.15अगस्त 1947को जब देश आजाद हुआ तब जश्न-ए-आजादी में भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को बुलावा भेजा.उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की जादुई शहनाई से जश्न-ए-आजादी की रौनक को चार चांद लग गया.उन्होंने 26जनवरी 1950को देश के पहले गणतंत्र दिवस समारोह में भी प्रस्तुति दिया था.
हर साल 15अगस्त को भारत के प्रधानमंत्री के भाषण के ठीक बाद, शहनाई बजाना जारी रखा.बिस्मिल्ला का प्रदर्शन बहुत लंबे समय तक स्वतंत्रता दिवस समारोह का मुख्य आकर्षण माना जाता था.उस्ताद बिस्मिल्ला खान को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और विश्व भारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन से मानद डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गयी थी.
आखिरी विदाई
21 अगस्त 2006 को, 90 वर्ष की आयु में, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने अंतिम सांस ली.उनकी शहनाई को उनके साथ फातमान कब्रिस्तान में, एक नीम के पेड़ के नीचे, उनकी कब्र में दफनाया गया था.
भारत सरकार द्वारा एक दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया.भारतीय सेना ने उनके अंतिम संस्कार समारोह में उन्हें 21तोपों की सलामी दी.उस्ताद बिस्मिल्ला की मृत्यु पर उनके गृह राज्य, उत्तर प्रदेश की सरकार ने घोषणा की कि वह उनकी स्मृति का सम्मान करने के लिए एक अकादमी स्थापित करेगी.
वर्ष 2007में प्रसिद्ध संगीत नाटक अकादमी ने एक नया पुरस्कार ‘उस्ताद बिस्मिल्लाह खां युवा पुरस्कार’ शुरू किया, जो नृत्य, संगीत और रंगमंच के क्षेत्र में युवा कलाकारों को दिया जाता है.उनकी याद में 21अगस्त 2008को भारतीय डाक ने 5रुपये मूल्य के उत्सव डाक टिकटों की घोषणा किया.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2016में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को चित्रित करते हुए एक और विशिष्ट डाक टिकट भी जारी किया था.उनकी 102वीं जयंती पर, गूगल ने डूडल बनाकर श्रद्धांजलि दी थी.उनका संगीत समय के अंत तक बना रहेगा, उन्होंने स्वयं कहा था, "भले ही दुनिया खत्म हो जाए, संगीत तब भी जीवित रहेगा.”
यह कहना गलत नहीं होगा कि उस्ताद बिस्मिल्ला खान ने देशज पसमांदा और भारत को गर्व के कई एक झण दिये और शहनाई को पूरी दुनिया में लोकप्रिय बनाया.जहां भी शहनाई का नाम आएगा, उन्हें याद किया जाएगा.
डॉ फैयाज अहमद फैजी
लेखक अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट पसमांदा सामाजिक कार्यकर्ता एवं आयुष चिकित्सक