क़ुरान में न्याय और निष्पक्षता: एक शाश्वत मार्गदर्शन

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 11-07-2025
Justice and Fairness in the Quran: An Eternal Guidance
Justice and Fairness in the Quran: An Eternal Guidance

 

इमान सकीना

इस्लाम धर्म के मूल में न्याय (अदल) और निष्पक्षता का सिद्धांत सर्वोपरि स्थान रखता है. क़ुरान और पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शिक्षाओं में यह सिद्धांत केवल एक नैतिक आदर्श नहीं, बल्कि एक पूर्ण व्यवस्थित सामाजिक अनुशासन का ढांचा प्रस्तुत करता है. न्याय का अर्थ केवल दंड-प्रश्न से सम्बंधित नहीं है बल्कि यह एक विस्तृत, बहुआयामी अवधारणा है, जो व्यक्तिगत आचरण, पारिवारिक संबंधों, वाणिज्यिक कार्यों और राज्यपक्ष के हर निर्णय तक फैली हुई है.

 

 

इस लेख के माध्यम से हम न्याय और निष्पक्षता के इस्लामी दृष्टिकोण, उनके व्यवहारिक प्रयोग, समाज पर प्रभाव और अंतिम न्याय के मानवीय और आध्यात्मिक महत्व का विस्तार से आकलन करेंगे.

1. ईश्वरीय आदेश के रूप में न्याय

इस्लाम में न्याय को ईश्वरीय आदेश माना गया है. केवल यह नहीं कि इंसान अपने स्वार्थ और भावनात्मक पक्षपात से ऊपर उठकर न्याय करे, बल्कि उसे यह समझना होगा कि अल्लाह द्वारा यह आदेश मानव के प्रत्येक निर्णय और कार्य में अदृश्य बनकर उपस्थित है. इस सच्चाई का सार्थक उदाहरण क़ुरान की पहली निर्णयात्मक और निर्णायक आयतों में निहित है:

"निःसंदेह, अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि अमानत जिसे सौंपनी चाहिए, उसे सौंप दो और जब लोगों के बीच फ़ैसला करो, तो न्याय से करो. अल्लाह तुम्हें जो आदेश देता है वह उत्तम है. निस्संदेह, अल्लाह सुनने और देखने वाला है."(सूरह अन-निसा 4:58)

इस आयत में ‘अमानत’ और ‘न्याय’ को एक साथ रखकर यह बताने का प्रयास है कि ईमानदारी और निष्पक्षता, दो मुख्य स्तंभ हैं जिस पर एक न्यायपूर्ण समाज खड़ा होता है. अल्लाह हर कार्य को सुन रहा है और देख रहा है, अतः हर निर्णय में न्याय की जड़ मजबूत होनी चाहिए.

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2. सार्वभौमिक न्याय का सिद्धांत

क़ुरान किसी एक विशेष वर्ग, धर्म या जाति तक ही न्याय के नियम को सीमित नहीं रखता; बल्कि यह सभी मानवों के लिये सार्वभौमिक रूप में लागू होता है. चाहे यह किसी अपने पर हो या किसी शत्रु पर, न्याय का सिद्धांत समान रूप से प्रयोग में लाया जाना चाहिए. इस पहलू को क़ुरान की एक अत्यंत महत्वपूर्ण आयत स्पष्ट रूप से व्याख्यायित करती है:"ऐ ईमान लाने वालों, न्याय में दृढ़ रहो और अल्लाह के गवाह बनो, चाहे वह तुम्हारे अपने विरुद्ध हो या माता-पिता और रिश्तेदारों के विरुद्ध."(सूरह अन-निसा 4:135)

यह आयत हमें यह सीख देती है कि न्याय की परिभाषा केवल कानून-व्यवस्था तक सीमित नहीं है. यह परिवार और मित्र संबंधों तक भी फैली होती है। यहां यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि कोई भी हाल अनिश्चितता या भावनात्मक दबाव न्याय को प्रभावित नहीं कर सकता.

3. व्यावहारिक जीवन में न्याय का विस्तार

क़ुरान में न्याय को केवल सिद्धांत तक सीमित नहीं रखा गया है; इसे जीवन के सभी पहलुओं—व्यवहार, बोलचाल, व्यापार, यहाधिकार और रिश्तों—से जोड़ा गया है:"और नाप-तौल में न्याय करो. हम किसी पर उसकी शक्ति से अधिक बोझ नहीं डालते. और जब बोलो, तो न्याय से बोलो, चाहे वह किसी निकट संबंधी के बारे में ही क्यों न हो..."(सूरह अल-अनआम 6:152)

यह आयत यह स्पष्ट करती है कि न्याय एक दैनिक अभ्यास है—चाहे वह इमाम के रूप में हो, परिवार में हो, या रोजमर्रा के व्यापार में। यह एक सामाजिक अनुशासन है जो मानवीय व्यवहार में प्रतिबद्धता और ईमानदारी लाता है.

4. अल्लाह का पूर्ण और सर्वज्ञ न्याय

क़ुरान हमें बताता है कि अल्लाह का न्याय पूर्ण, सर्वज्ञ और निष्पक्ष है. यह न्याय “एक कण” के स्तर पर भी नहीं चूकता और अच्छे कर्मों को कई गुना पुरस्कार देता है:"निःसंदेह, अल्लाह एक कण के बराबर भी अन्याय नहीं करता; और यदि कोई अच्छा कर्म हो, तो हम उसे कई गुना बढ़ा देते हैं."(सूरह अन-निसा 4:40)

यह विश्वास ईमान को दृढ़ करता है, क्योंकि यह कहता है कि विश्व का न्यायिक व्यवस्था चाहे अंधा हो, अल्लाह का न्याय निश्चित और द्रढ़ है। यह विश्वास मन में धार्मिक पक्षी की तरह उड़ान भरता है.

5. प्रबुद्धता और सांगठन—पैगंबरों का उद्देश्य

पैगंबरों का मुख्य उद्देश्य यह था कि वे इंसान को न केवल आध्यात्मिक रूप से जाग्रत करें, बल्कि समाज में न्यायपूर्ण व्यवहार की व्यवस्था भी स्थापित करें:"हमने अपने रसूलों को स्पष्ट निशानियों के साथ भेजा और उनके साथ किताब और तराजू उतारा ताकि लोग न्याय पर कायम रहें..."(सूरह अल-हदीद 57:25)

यह सूचित करता है कि पैगंबर केवल उपदेशक नहीं थे, बल्कि वे समाज सुधारक भी थे. उन्होंने न्याय को जीवन और समाज में एक नैतिक आधारशिला के रूप में स्थापित किया.

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6. न्याय और दया का संयोजन

क़ुरान में न्याय और दया परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि संतुलित रूप से प्रस्तुत होते हैं. इसमें न्याय जरूर होता है लेकिन हमेशा दया और क्षमा की गुंजाइश भी रहती है:"बुरे कर्म का बदला उसके समान ही बुरा होता है, परंतु जो क्षमा करे और मेल-मिलाप करे, उसका प्रतिफल अल्लाह की ओर से है..."(सूरह अश-शूरा 42:40)

इस आयत से खबर मिलती है कि न्याय केवल दंडात्मक प्रतिक्रिया नहीं है, बल्कि उसमें सहानुभूति और रिश्तों की मर्यादा बनाए रखने की क्षमता भी होती है.

7. न्यायपूर्ण शासन और नैतिक नेतृत्व

क़ुरान में विशेष रूप से शासन और अधिकारियों को न्याय का पालन करने का आदेश दिया गया है, जो सामाजिक सौहार्द और न्यायवादिता का आधार हैं:"निःसंदेह, अल्लाह न्याय, अच्छे आचरण और रिश्तेदारों को दान देने का आदेश देता है; और अनैतिकता, बुरे आचरण और अत्याचार से कहता है."(सूरह अल‑नहल 16:90)

यह बताता है कि न्याय और नैतिकता शासन के मूल स्तंभ हैं, जिन्हें Friday खुतबा (यानी शुक्रवार के भाषण) में अक्सर उल्लेखित किया जाता है.

8. अंतिम न्याय—परलोक में निष्पक्ष न्याय

क़ुरान यह भी सिखाता है कि सांसारिक न्याय व्यवस्था भले कभी टूट जाए, पर अंतिम न्याय—जो क़यामत के दिन है—वह बिल्कुल निष्पक्ष, पूर्ण और अपरिवर्तनीय होगा:"हम क़यामत के दिन न्याय का तराजू रखेंगे, ताकि किसी झूठ, किसी अन्याय का स्थान न रहे..."(सूरह अल-अंबिया 21:47)

यह दृष्टिकोण इंसानों को चेतावनी देती है कि चाहे कितनी भी शक्ति या प्रतिष्ठा क्यों न हो, पर अंततः हर कार्य का हिसाब होगा.

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9. निष्कर्ष: न्याय—islamic धर्म की आत्मा

क़ुरान में न्याय और निष्पक्षता केवल कानून-कायदों का नाम नहीं—बल्कि यह एक आध्यात्मिक और सामाजिक जिम्मेदारियों की छवि है. हर निर्णय, हर व्यवहार, हर संबंध इसका प्रतिबिम्ब होता है. न्याय मुसलमान के जीवन का वह मार्गदर्शक प्रकाश है जो उसे अल्लाह के समीप ले जाता है."ऐ ईमान वालों! अल्लाह के लिए अडिग रहो और न्याय के साक्षी बनो..."(सूरह अल‑मायदा 5:8)

यह आदेश न केवल न्यायप्रियता का आह्वान करता है, बल्कि यह सम्पूर्ण मानव जाति के प्रति एक सशक्त नैतिक जिम्मेदारी का संदेश भी है. हममें से प्रत्येक को अपने जीवन में इस दिव्य आदेश का पालन करना चाहिए—व्यक्तिगत निर्णयों तक नहीं, बल्कि आपसी सहयोग, व्यावसायिक पारदर्शिता, सामाजिक न्याय और राज्य व्यवस्थाओं में भी न्याय की सौगंध देनी चाहिए.

इस्लाम की सच्ची पहचान उसी मानवता की भलाई में है जो न्याय और करुणा के साथ जुड़ी हो, और यही जीवन को एक सर्वोच्च नैतिक आदर्श की ओर अग्रसर करती है.