इस ऐतिहासिक रस्म में इस्लामी दुनिया के वरिष्ठ अधिकारी, उलमा-ए-किराम और प्रतिष्ठित मेहमान शरीक होते हैं. इस दौरान काबा के अंदर की दीवारों को ज़मज़म का पानी, गुलाबजल और उम्दा ऊद की खुशबूदार मिलावट से धोया जाता है.
यह सिर्फ़ एक सफाई की क्रिया नहीं, बल्कि आध्यात्मिकता, आदर और नवचेतना का प्रतीक होता है – उस मक़ाम की तरफ़ जो दुनियाभर के एक अरब से ज़्यादा मुसलमानों की नमाज़ का क़िबला है.यह रस्म आम तौर पर साल में दो बार होती है – एक बार रमज़ान से पहले और दूसरी बार हज के बाद, मुहर्रम की शुरुआत में.
जहाँ तक इस रस्म में इस्तेमाल होने वाले सामग्री की बात है, तो समारोह से एक दिन पहले सऊदी जनरल प्रेसीडेंसी के नियुक्त सदस्य खास तौर पर धुलाई के लिए मिश्रण तैयार करते हैं.
इसमें शामिल होता है गुलाब जल, ऊद, और महंगे इतर. इन सामग्रियों की गुणवत्ता बेहतरीन होती है और इसकी कीमत हज़ारों सऊदी रियाल तक पहुँच जाती है.
कई बार लोगों में इस बात को लेकर नाराज़गी देखी जाती है कि इस पाक रस्म में भाग लेने का मौका सिर्फ़ कुछ चुनिंदा ऊँचे ओहदेदारों और विशिष्ट व्यक्तियों को ही दिया जाता है, जबकि आम हाजियों और स्थानीय मुसलमानों को दूर रखा जाता है.
लेकिन अगर सुरक्षा और भीड़ प्रबंधन के पहलू से देखा जाए, तो हर किसी को शरीक करना व्यावहारिक नहीं है. चूंकि किसी भी वक़्त हरम शरीफ़ में हज़ारों लोग मौजूद रहते हैं, अगर सभी को अंदर जाने की इजाज़त मिल जाए तो ख़ुदा ना करे कोई भगदड़ जैसी घटना हो सकती है, जिससे हालात बेकाबू हो सकते हैं.
हालांकि यह एक सीमित लोगों की रस्म होती है, लेकिन हर साल इसकी तस्वीरें और वीडियो पूरी दुनिया के मुसलमानों के दिलों को छू जाती हैं और यह पवित्र क्षण पूरी उम्मत के लिए एक साझा आध्यात्मिक अनुभव बन जाता है.
ग़ुस्ल-ए-काबा – एक आध्यात्मिक धरोहर, एकता और आदर का प्रतीक.