भारतीय सेना के खुल गए हाथ

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 30-04-2025
Indian Army has freed its hands
Indian Army has freed its hands

 

पाकिस्तान ने शिमला समझौते को निलंबित करके भारत का ही काम आसान किया है और अब उसने अपने लिए आफत को न्योता दे दिया है.

अरविंद

पहलगाम हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ गया है.भारत ने सिंधु जल समझौते को खूंटी पर टांग दिया है और ऐलान किया है कि पाकिस्तान जा रहे पानी के एक-एक बूंद को रोका जाएगा.वहीं, पाकिस्तान ने शिमला समझौते को निलंबित करने का ऐलान किया है.

आकाश कुसुम तोड़ लाने की दुस्साहसी उछल-कूद में हर बार टांगें तुड़वाने वाले पाकिस्तान के होश ठिकाने नहीं आए हैं और इस बार भी उसने शिमला समझौते को हाशिए पर डालकर ऐसा ही आत्मघाती कदम उठाया है, जिसमें पाकिस्तान के नक्शे को बदल देने की क्षमता है.

दरअसल, पाकिस्तान और भारत, दोनों की अपनी-अपनी मजबूरी है.आतंकवाद को औजार के तौर पर इस्तेमाल करने के खेल में अमेरिका तक को लंबे समय तक झांसे में रखने वाले पाकिस्तान को अपने इस हथियार की धार पर पूरा यकीन है.उसे लगता है कि कश्मीर समेत भारत के अन्य इलाकों में इसी हथियार के बूते खून-खराबा करके वह भारत को अंदर से खंड-खंड कर सकता है.

जरूरत पड़ने पर उसका हर मौसम का दोस्त चीन तो है ही और फिर ईरान के खिलाफ अमेरिकी घेरेबंदी में दुनिया के दारोगा के कुछ काम आकर वह उससे भी कुछ न कुछ हासिल कर सकेगा.

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दूसरी ओर, भारत की अपनी मजबूरी है.अब वह ‘नया भारत’ बन चुका है जो ईंट के जवाब पत्थर से, बंदूक का जवाब तोप से देने में न केवल यकीन करता है, खुलेआम इसका ऐलान भी करता है और यह कहने में जरा भी नहीं हिचकता कि पाकिस्तान के लिए उसके किसी भी दुस्साहस की कीमत अब ज्यादा हो गई है.

तो वह अपनी ही जुबान से बंधा हुआ है.उसे पहलगाम में आतंकवादियों के हाथों मारे गए 26पर्यटकों का बदला लेना होगा.प्रधानमंत्री मोदी ने उसी नए भारत की छवि के अनुसार ऐलान किया है कि पहलगाम के हमलावर आतंकवादियों और उनके मददगारों के लिए यह धरती छोटी पड़ जाएगी और भारत धरती के दूसरे छोर तक उनका पीछा करेगा.

इस पृष्ठभूमि में शिमला समझौते के बंधन से मुक्त भारत के अगले कदम की बात करना दिलचस्प हो जाता है.

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भारत आपे से बाहर

वर्ष 2001में संसद पर हमले के बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीर पर पाकिस्तान के साथ बातचीत की संभावनाओं पर कहा था- ‘खून और पानी साथ-साथ नहीं बह सकते.’

पाकिस्तान के साथ अच्छे रिश्तों की जोरदार वकालत करने वाले वाजपेयी का वह उद्गार निश्चित रूप से आहत भारत का आर्तनाद था.जब वाजपेयी यह कह रहे थे तो यही माना जा रहा था कि ताजे जख्म की ताजी टीस है, वक्त के साथ कसमों-वादों का वैसा ही दौर शुरू हो जाएगा, जैसा हमेशा होता आया है.हुआ भी ऐसा ही.

वाजपेयी के बाद आई मनमोहन सरकार ने कश्मीरी अलगाववादियों और पाकिस्तान से किश्तों में अमन खरीदने की नीति अपनाई.केंद्र में नरेन्द्र मोदी सरकार के आने पर भी जब पाकिस्तान की आदतें नहीं बदलीं तो ‘खून और पानी साथ-साथ न बहना’ पाकिस्तान के प्रति भारत की आधिकारिक नीति बन गई.बात इतने से भी नहीं बनी तो नरेन्द्र मोदी सरकार ने ‘खेल के दांव’ को बड़ा कर दिया.अब सीधी सी बात है, एक करोगे तो दस पाओगे.

इसी तर्ज पर पहलगाम हमले के बाद भारत ने पाकिस्तानी नागरिकों के लिए सार्क वीजा रद्द करने, अटारी चेकपोस्ट बंद करने, पाकिस्तान स्थित उच्चायोग में कर्मचारियों की संख्या 55से घटाकर 30 करने जैसे कदम उठाए.सबसे बड़ा कदम था 1960 के सिंधु जल समझौते को स्थगित करना जिससे पाकिस्तान को पश्चिमी नदियों- सिंधु, चेनाब और झेलम- का पानी मिलता है.

भारत ने बेशक कहा हो कि एक-एक बूंद पानी रोक देंगे, लेकिन यह कितना सच होता है, अभी कहना मुश्किल है.कारण, नल की टोंटी बंद कर दी और पानी आना बंद हो गया, इस तर्ज पर पाकिस्तान का पानी नहीं रोका जा सकता क्योंकि हमारे पास उतना पानी जमा करने की क्षमता ही नहीं.

हालांकि इसके लिए आनन-फानन तीन चरणों की रणनीति बनाई गई - 6 माह का पहला चरण 1, 6 माह से 2साल तक का दूसरा चरण और 2 से 5 साल वाला तीसरा चरण.पहले चरण के बाद 20-30 फीसद पानी रुक जाने की संभावना है.तीसरे चरण से एक-एक बूंद पानी रोकने के स्तर तक पहुंचना है.लेकिन 5साल के दौरान इस मिशन का क्या होगा, अभी से कहना मुश्किल है.

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आत्मघाती पलटवार

सिंधु जल समझौते का पुलिंदा लपेट देना पाकिस्तान पर सबसे ज्यादा भारी पड़ने वाला है और इसे ‘युद्ध वाला कदम’ करार देते हुए पाकिस्तान ने भी जो कदम उठाए, उनमें से सबसे अहम रहा 1972 के शिमला समझौते को निलंबित करना.

पाकिस्तान का यह हताशा भरा कदम वैसा ही है जैसे युद्ध के मैदान में जोश-ओ-खरोश के साथ तलवार भांजता कोई योद्धा- जिसने इतने जोर से तलवार घुमाई की अपनी ही गर्दन उतर गई. 

1972 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भुट्टो के बीच हुआ शिमला समझौता दोनों देशों के रिश्तों की बुनियाद रहा है.तब से भारत की सारी कूटनीति इसी समझौते को केंद्र में रखकर की गई और समय-समय पर दुनिया की सभी बड़ी ताकतों ने इसे दोहराते हुए भारत के रुख का समर्थन किया.

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सबसे पहले यह देखना चाहिए कि शिमला समझौता कैसी बंदिशें डालता था.मोटे तौर पर इस समझौते की चार खास बातें हैं-

1. बातचीत से विवाद हल करनाः दोनों देश अपने सभी मुद्दों को शांतिपूर्ण ढंग से और द्विपक्षीय वार्ता के जरिये सुलझाएंगे.

 2. भौगोलिक अखंडता का सम्मान: दोनों एक-दूसरे की सीमाओं और संप्रभुता का उल्लंघन नहीं करेंगे.

 3. बल का इस्तेमाल नहींः किसी भी विवाद को सैन्य शक्ति के बजाय राजनयिक रास्तों से हल किया जाएगा.

4. एलओसी की मान्यता: कश्मीर में युद्धविराम रेखा को ‘लाइन ऑफ कंट्रोल’ (एलओसी) के रूप में स्वीकार किया गया, जिसे अंतरराष्ट्रीय सीमा नहीं माना जाएगा.

इस समझौते का उद्देश्य टकराव को कम करके स्थायी शांति की नींव रखना था, लेकिन जरा याद कीजिए, क्या पाकिस्तान ने वाकई शिमला समझौते की भावनाओं के अनुसार काम किया? बिल्कुल नहीं.उसने लगातार और बड़ी बेशर्मी के साथ उसका उल्लंघन किया.

चाहे, 1999 का कारगिल युद्ध हो, 200 8में 26/11 मुंबई आतंकवादी हमला हो, 2016 का उड़ी और 2019 का पुलवामा हमला और ऐसे ही तमाम दुस्साहसी छोटे-बड़े हमले हों, पाकिस्तान ने हमेशा शिमला समझौते की ऐसी की तैसी की.

उसने कभी इसे गंभीरता से लिया ही नहीं.इसलिए वह समझ नहीं सका कि शिमला समझौते ने कैसे उसकी रक्षा की और कैसे उसने खुद ही अपना कवच उतार फेंका है.सच्चाई तो यह है कि भारत अकेले ही शिमला समझौते की भावनाओं का सम्मान कर रहा था.

उसने सबसे कठिन परिस्थितियों, यानी कारगिल युद्ध के दौरान भी उस एलओसी का उल्लंघन नहीं किया, जिसे पारकर पाकिस्तानी सेना चोटियों पर आ जमी थी.इसका हमें खामियाजा भुगतना पड़ा और बड़ी संख्या में हमारे जवान शहीद हुए और दुनिया ने माना कि हमने पाकिस्तान से निपटने में नैतिकता का अद्भुत उदाहरण दिया.

हर नेता का काम करने का अपना तरीका होता है.कभी हम लाल बहादुर शास्त्री के समय लाहौर तक जाकर वापस आ गए, कभी इंदिरा के समय में पूर्वी पाकिस्तान को तोड़ा और बिना अपने हिस्से के कश्मीर को वापस पाने केलिए तोलमोल किए उनके 92 हजार सैनिकों को 2-3 सालों तक खिलाने-पिलाने के बाद वापस कर दिया.

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कभी हमने वाजपेयी के समय अपनी जमीन में घुस आए पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़कर ही संतोष कर लिया और पलटकर उनके सीने पर मुक्का नहीं मारा, तो कभी हमने मनमोहन सिंह सरकार के दौरान आतंकवादी को बिरयानी खिलाकर किश्तों में अमन खरीदने कीरणनीति अपनाई तो कभी हमने नरेन्द मोदी की सरकार के दौरान उड़ी और पुलवामा के हमलों के बाद पाकिस्तान में घुसकर मारा.  

तो, पाकिस्तान ने भस्मासुर की तरह ही अपने सिर पर हाथ रख लिया है.इस बात की संभावनाएं काफी अधिक हैं कि अब जब भी भारत और पाकिस्तान की सेनाओं के बीच ‘गर्मी’ बढ़े, तो उस तपिश में नियंत्रण रेखा पिघल जाए.

( लेखक स्तंभकार और बलूचिस्तान मामलों के जानकार हैं. )


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