
डॉ फैयाज अहमद फैजी
बिहार की राजनीति ने हमेशा भारतीय लोकतंत्र में विशेष भूमिका निभाई है। आज जब पसमांदा मुसलमानों के सामाजिक प्रतिनिधित्व की चर्चा केंद्र में है, तो इसके ऐतिहासिक परिदृश्य को समझना आवश्यक हो जाता है। 1946 का बिहार विधानसभा चुनाव इस संदर्भ में महत्वपूर्ण था—इसने स्वतंत्रता-पूर्व राजनीति को नया स्वरूप दिया और कांग्रेस के समावेशी राष्ट्रवाद व मुस्लिम लीग की अलगाववादी राजनीति के बीच, आसिम बिहारी की ‘मोमिन कॉन्फ़्रेंस’ ने पसमांदा मुसलमानों की वर्गीय और सामाजिक चेतना को राजनीतिक अभिव्यक्ति दी।
भारत में विधिवत चुनावी प्रक्रिया 1937 के प्रांतीय चुनावों से शुरू हुई, जो 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत हुआ था। राजनीतिक अस्थिरता के बाद वायसराय वेवेल ने 1945–46 में नए चुनाव कराए, जिनसे बनी विधानसभाओं ने संविधान सभा के सदस्य चुने जिन्होंने संविधान निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वहीं मुस्लिम लीग ने इसे पाकिस्तान के समर्थन में जनमत-संग्रह बताया।
1946 के चुनाव में देशज पसमांदा समुदाय ने एक जुट होकर मोमिन कॉन्फ़्रेंस के बैनर तले चुनाव लड़ा। यह संगठन धर्माधारित पहचान के बजाय रोज़गार, शिक्षा और सामाजिक समानता पर केंद्रित था। इसका उद्भव मुस्लिम समाज में जातिवाद और कुरीतियों के विरोध में हुआ था। जो आगे चलकर मुस्लिम लीग की मजहबी अलगाववादी राजनीति का सबसे प्रबल प्रतिरोध के रूप में सामने आया।
मोमिन कॉन्फ़्रेंस ने लीग के नारे “इस्लाम ख़तरे में है” का वैचारिक प्रतिरोध करते हुए पाकिस्तान की माँग को नवाबों और खान बहादुरों के वर्गीय हितों का प्रतीक बताया।
द्विराष्ट्र सिद्धांत के विरोध में इसने धर्मनिरपेक्षता की मिसाल पेश करते हुए चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर वर्गीय समानता, सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय एकता के पक्ष में मोर्चा खोला। बिहार में पृथक निर्वाचन के तहत कुल 40 सीटें थी जिसमें मोमिन कान्फ्रेंस ने 20 और कोंग्रेस ने 10 सीटों पर अपने अपने उम्मीदवार उतारे।
हालाँकि पसमांदा समाज के सीमित संसाधनों और लीग के धनबल व धार्मिक प्रचार के कारण यह संघर्ष कठिन था, फिर भी जनसभाओं में उमड़ती भीड़ उम्मीद जगाती रही।लेकिन पृथक निर्वाचन के तहत मुस्लिम आरक्षित सीटों के परिणामों में बिहार की 40 मुस्लिम आरक्षित सीटों में से 33 मुस्लिम लीग को 6 मोमिन कॉन्फ़्रेंस को (11 सीटी पर दूसरे स्थान पर रही) और मात्र एक सीट कांग्रेस के खाते में आई । कांग्रेस ने सामान्य सीटों पर 98 सीटें जीतकर सरकार बनाई, परंतु अधिकांश मुस्लिम मताधिकार लीग के पक्ष में चला गया।
संख्या के लिहाज़ से यह हार थी, पर विचारधारा के स्तर पर पसमांदा समाज की पहली ठोस घोषणा—मज़हबी राष्ट्रवाद के विरुद्ध वर्गीय चेतना और भारतीयता की नैतिक जीत थी।
मोमिन कॉन्फ़्रेंस की पराजय का सबसे बड़ा कारण सीमित मताधिकार था, अर्थात आज की तरह वयस्क व्यक्ति को वोट देने का अधिकार नहीं था, मतदान का अधिकार केवल उन लोगों को प्राप्त था जो धनी लोग थे, जो करदाता वर्ग में आते थे, या जिनकी आय और शिक्षा एक निश्चित मानकों को पूरा करती थी।
यह स्थिति मुसलमानों के भीतर और भी असमान थी—अशराफ वर्ग के नवाबों, ज़मींदारों और व्यापारियों को तो मताधिकार मिला, पर पसमांदा मुसलमानो का एक बड़ा भाग चुनावी प्रक्रिया से लगभग पूरी तरह वंचित रहा। परिणामस्वरूप, मुस्लिम लीग को राजनीतिक बढ़त मिल गई और पसमांदा प्रतिनिधित्व सीमित रह गया।
1939 में मोमिन कॉन्फ़्रेंस के राष्ट्रवादी नेता नूर मोहम्मद ने बिहार विधानसभा में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार लागू करने का प्रस्ताव रखा था, पर वह अस्वीकार कर दिया गया। यदि उनकी यह दूरदर्शिता स्वीकार की गई होती, तो 1946 के चुनाव परिणाम और शायद देश का इतिहास भी आज से भिन्न होता।
मोमिन कॉन्फ़्रेंस की हार का दूसरा बड़ा कारण आर्थिक और अन्य संसाधनों की कमी थी। गरीब और कामगार जातियों से आने वाला पसमांदा समाज धनबल और प्रचार में लीग से मुकाबला नहीं कर सका। यह कमी केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सदियों की सामाजिक उपेक्षा का भी परिणाम था। इसके बावजूद मिली छह सीटें पसमांदा समाज की वैचारिक दृढ़ता और सामाजिक न्याय के संघर्ष की प्रतीक बनीं—जो उसके नेतृत्व की जुझारू और सिद्धांतनिष्ठ भावना को दर्शाती हैं।
हाफ़िज़ मंज़ूर हुसैन की मुस्लिम लीग के उम्मीदवार पर विजय इसका एक ज्वलंत उदाहरण थी। मुस्लिम लीग के भय के कारण हाफिज मंजूर का पोलिंग एजेंट बनने को कोई तैयार नहीं था ऐसी सूरत में एक हिन्दू नौजवान इंद्र कुमार (आजादी के बाद आप 1986 तक बिहार विधान परिषद एवं 1997 से 2008 तक बिहार राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य सदस्य रहें) आगे आएं और हाफिज जी के मजबूत पोलिंग एजेंट बने।
जिस पर मुस्लिम लीग ने अधिकारियों से शिकायत किया कि पृथक निर्वाचन के मुस्लिम सीट पर एक हिन्दू कैसे पोलिंग एजेंट बन सकता है। शिकायत खारिज कर दी गई। जिस पर मुस्लिम लीग ने व्यंग किया कि देखिए इनको एक मुसलमान तक पोलिंग एजेंट नहीं मिल रहा है।
यह केवल एक राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि सांप्रदायिक विभाजन के पार सहयोग की एक ऐतिहासिक मिसाल थी—जिसने भारत के सेकुलर स्वभाव और देशज पसमांदा राजनीति की समावेशी भावना दोनों को उजागर किया।
मोमिन कॉन्फ़्रेंस ने सीमित मताधिकार और संसाधनों की विषमता के बावजूद अपने विचार, संघर्ष और जनाधार की मज़बूती को सिद्ध किया था।जब 30 मार्च 1946 को श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में बिहार में कांग्रेस मंत्रिमंडल ने शपथ ली, तो इसके मूल में समावेशी राष्ट्रवाद की एक गहन राजनीतिक रणनीति थी, जिसके सूत्रधार सरदार वल्लभभाई पटेल थे।
पटेल का मानना था कि यदि पसमांदा तबके के मुसलमानों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया जाए, तो मुस्लिम लीग की ‘अशराफ़’ केंद्रित राजनीति की जड़ें कमजोर होंगी।
इसी नीति के तहत, मौलाना आज़ाद जैसे कुछ वरिष्ठ नेताओं के विरोध के बावजूद, पटेल के आग्रह पर मोमिन कॉन्फ़्रेंस के नेता अब्दुल क़य्यूम अंसारी और नूर मोहम्मद को बिहार कैबिनेट में शामिल किया गया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद और पटेल के पत्राचार में अंसारी को “देशभक्त मुसलमान” कहा गया है।
यह कदम मुस्लिम लीग की विभाजनकारी राजनीति को कमजोर करने भर का उपाय नहीं था, बल्कि कांग्रेस के समावेशी राष्ट्रवाद का एक व्यावहारिक और सफल प्रयोग था जिसने स्वतंत्र भारत की राजनीति में पसमांदा भागीदारी की नींव रखी और यह संदेश दिया कि भारत का भविष्य सभी वर्गों को साथ लेकर ही बनेगा।
1946 का बिहार चुनाव आज की राजनीति का प्रतिबिंब है। तब मोमिन कॉन्फ़्रेंस ने जिस पसमांदा चेतना, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की नींव रखी थी, वही प्रश्न आज फिर सामने हैं।
आज जब सभी दल पसमांदा प्रतिनिधित्व की बात कर रहे हैं, तो याद रखना चाहिए कि यह विचार आसिम बिहारी,अब्दुल क़य्यूम अंसारी,नूर मोहम्मद और हाफ़िज़ मंज़ूर हुसैन जैसे नेताओं के ऐतिहासिक संघर्ष से उपजा है। 1946 का बिहार हमें याद दिलाता है कि पसमांदा समाज का संघर्ष अधूरा नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान का जीवंत और निर्णायक विमर्श है।
(लेखक अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट पसमांदा-सामाजिक कार्यकर्ता एवं आयुष चिकित्सक हैं)