अविनाश दुधे
महाराष्ट्र के विदर्भ की जन्नत के तौर पर मशहूर चिखलदरा आनेवाले लोगों में से बहुत कम ही ऐसे होंगे जो मोहम्मद अशरफ़ और उनके नॉवेल्टी स्टोअर्स को नहीं जानते। यह नॉवेल्टी स्टोअर्स 31 अक्टूबर को 60 साल का हो गया है।आज चिखलदरा का मिनी डिपार्टमेंटल स्टोर या सुपर बाज़ार कहा जाने वाला यह नॉवेल्टी स्टोअर्स, 31 अक्टूबर 1965 को एक छोटी सी फ़ार्मेसी के तौर पर शुरू हुआ था। तब सिर्फ़ 19 साल के अशरफ़ ने ज़्यादातर आदिवासी आबादी वाले चिखलदरा में 60 साल पहले यह छोटा सा दवाखाना शुरू किया था।
तब सिर्फ़ 1380 की आबादी वाले चिखलदरा की ज़रूरतें बहुत कम थीं। हफ़्ते में मुश्किल से पांच-दस लोग सिर दर्द, पेट दर्द या मामूली बुख़ार की दवा लेने आया करते थे। धीरे-धीरे अशरफ़ने उसी जगह में एक जनरल स्टोर शुरू किया। गांव वालों को जो भी ज़रूरी चीज़ें लगतीं, वे क़रीबी शहर अचलपुर से मंगवा देते थे।
ऐसा करते-करते, रोज़मर्रा की ज़रूरी चीज़ें जैसे - दांत साफ़ करने का मंजन, कंघा, तौलिया, साबुन, सेफ़्टी पिन, पाउडर, दूसरी कॉस्मेटिक्स, अंडरपैंट, बनियान, चप्पलें, जूते, घड़ियाँ, पेन, पेंसिल, रबर, शार्पनर, कॉपियाँ, काग़ज़, स्कूल का दूसरा सामान, बिस्किट, चॉकलेट, लाइट, बैटरी, सेल, कोल्ड्रिंक, आइसक्रीम, वेफ़र्स... ऐसी हज़ारों चीज़ें अशरफ़भाई दुकान में रखने लगे।
चीज़ें हज़ारों हैं, लेकिन इतने सालों बाद भी नॉवेल्टी स्टोअर्स साइज़ में बहुत बड़ा नहीं है। पर वहां सब कुछ मिलता है। उनकी दुकान गोया अलिबाबा की गुफ़ा है। ग्राहक कोई भी चीज़ मांगे, अशरफ़भाई किसी न किसी कोने से एक सेकंड में वह हाज़िर कर देते हैं।
चिखलदरा में हर चीज़ पहली बार नॉवेल्टी स्टोअर्स में ही आई। पहला STD PCO नॉवेल्टी में, फ़ैक्स उन्हीं के पास, इंटरनेट नॉवेल्टी में ही। अख़बार-रिसाले बेचने का इकलौता मरकज़ कई सालों से नॉवेल्टी ही है।
नॉवेल्टी की इसी ख़ासियत की वजह से यहाँ गाहकों की हमेशा भीड़ रहती है। शहर के चमकीले फ़ैशनेबल कपड़ों वाले सैयाहों से लेकर आदिवासी पाड़े के इंसान तक, सबकी भीड़ नॉवेल्टी में ही होती है। नॉवेल्टी में सब कुछ मिलता है, यह तो एक वजह है ही, लेकिन अशरफ़ भाई की 'मीठी ज़ुबान' इसकी असली वजह है।
60 सालों से नॉवेल्टी स्टोअर्स की यह भीड़ अशरफ़भाई की वजह से टिकी हुई है। इंसान छोटा हो या बड़ा, अमीर हो या ग़रीब, शहरी हो या आदिवासी, अशरफ़ भाई सबसे बहुत मुहब्बत और नरमी से ही पेश आते हैं। 21वीं सदी के पहले दशक तक, चिखलदरा में यह इकलौता जनरल स्टोर, फ़ार्मेसी और दुकान थी।
आज कई हो गई हैं, लेकिन भीड़ नॉवेल्टी स्टोअर्स में ही होती है। इसकी वजह यह है कि अशरफ़ भाई इंसान की ज़रूरत को समझकर बर्ताव करते हैं।कई आदिवासियों के पास पूरे पैसे नहीं होते। चीज़ की क़ीमत सुनकर वे वापस जाने लगते हैं। उनका चेहरा देखकर अशरफ़ भाई उन्हें रोकते हैं। "अभी जितने हैं उतने दे। बाक़ी अगली बार जब जमे, तब दे देना," ऐसा कहकर वह उन्हें दिलासा देते हैं।
आज चिखलदरा में एक सरकारी अस्पताल है। कुछ प्राइवेट डॉक्टर भी हैं। लेकिन कई आदिवासियों के लिए, अशरफ़भाई ही उनके डॉक्टर हैं। बुख़ार, सर्दी, खांसी, सिर दर्द, उलटी जैसी मामूली तकलीफ़ों के लिए वे अशरफ़भाई की दवा पर ही भरोसा करते हैं। लेकिन अगर कुछ गंभीर हो, तो अशरफ़भाई मरीज़ को फ़ौरन अस्पताल भेज देते हैं। इंसानों को जोड़ने की अपनी इस आदत से उन्होंने सचमुच हज़ारों लोग जोड़े हैं।
आज अशरफ़ भाई 79 साल के हैं। लेकिन आज भी कम से कम 12 घंटे काम करते हैं। अशरफ़भाई का बैठे हुए दिखना बहुत ही कम होता है।सूबे के कोने-कोने से आने वाले लोग—नेता, सरकारी अफ़सर, डॉक्टर्स, कारोबारी, अख़बारों के मालिक, बड़े सहाफ़ी, और अलग-अलग शोबों की नामी हस्तियां—ऐसे कई बड़े लोगों से उनका दिली रिश्ता है।
ये लोग चिखलदरा की क़ुदरत में खोने से पहले, कुछ पल ही सही, अशरफ़भाई के पास ज़रूर बैठते हैं। चाय की चुस्की के साथ ख़ैरियत पूछते हैं। बदलते चिखलदरा पर चर्चा करते हैं। चिखलदरा का इतिहास, भूगोल सब जानने वाले अशरफ़ भाई, विदर्भ के इस 'नंदनवन' की पिछले साठ सालों की कई पुरानी, दिलचस्प यादें सुनाते हैं।
लेकिन अपनी ज़ाती ज़िंदगी की मुश्किलें वे किसी के सामने बयां नहीं करते। न ही वे कभी उन रिश्तों का फ़ायदा उठाते हैं। ज़ाती ज़िंदगी में उन्होंने कई मुसीबतें झेली हैं। कई अज़ीज़ों को उन्होंने खोया है। वे एक किडनी पर काम करते हैं। लेकिन इस बारे में वे कभी बात नहीं करते।
जब उनसे उनके इस इत्मीनान का राज़ पूछा जाता है, तो वे दो लफ़्ज़ों में जवाब देते हैं, 'ख़ुदा की मेहरबानी'।पैसे कमाने, प्रॉपर्टी बनाने के कई मौक़े उनके पास थे। लेकिन अशरफ़भाई अपने छोटे से नॉवेल्टी स्टोअर्स में ही मुतमईन रहे। बाद में आने वाले कई लोगों ने लाखों-करोड़ों रुपये जमा किए।
ज़मीनें, जायदादें इकट्ठा कीं। लेकिन इन्हें उनसे कोई हसद नहीं है। इस बारे में पूछने पर वे सिर्फ़ इतना ही कहते हैं, 'ख़ुदा की मर्ज़ी। उसकी कृपा से शांति से जी रहे हैं'। उनका यह इत्मीनान, यह सब्र, उनके हाव-भाव से झलकता रहता है, और वह आपको भी पुरसुकून कर जाता है।
(लेखक ज्येष्ठ पत्रकार और भूतपूर्व संपादक है।)