कांग्रेस, कर्पूरी और पसमांदा

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 02-11-2025
Congress, Karpoori and Pasmanda
Congress, Karpoori and Pasmanda

 

dडॉ विश्वम्भर नाथ प्रजापति 

कांग्रेस मुख्यतः उच्च वर्गों की पार्टी रही है. पिछड़ों की राजनीति को ख़त्म करने के लिए उसने यादवों को आगे धकेला और राजनीति पिछड़े वर्ग की जगह यादव जाति पर आकर टीक गई. जनता पार्टी ने 1977 के आम चुनाव में अपने घोषणा पत्र में पिछड़े वर्ग को 25 प्रतिशत आरक्षण देने का वादा किया. वह जीत कर आई, कांग्रेस की बुरी तरह से हार हुई . लेकिन सरकार बनने के बाद जनता पार्टी से प्रधानमंत्री बने मोरार जी देसाई ने आरक्षण देने और काका कालेलकर आयोग की सिफारिशों को लागू करने में टालमटोल करने लगे. जब उनपर दबाव बहुत ज्यादा पड़ने लगा तो मामले को टरकाने के लिए उन्होंने बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में 1जनवरी 1979को एक नये आयोग का गठन करके आरक्षण जैसे विषय को टाल दिया.

संतोष सिंह और आदित्य अनमोल (2024:185) लिखते हैं कि बिहार में कर्पूरी ठाकुर की सरकार पहली सरकार थी जिसके समय ओबीसी मंत्रियों की संख्या करीब 42प्रतिशत, सवर्ण जातियों के मंत्री 29प्रतिशत से ज्यादा थी.

अति पिछड़ों और यादवों को भी कर्पूरी मंत्री मंडल में बड़ा हिस्सा मिला. इससे जो तथाकथित उच्च जातियों और पिछड़ों के बीच हिस्सेदारी का अंतर था ख़त्म हो गया. हालाँकि मंडल राजीनीति के बावजूद भी बाद की सरकारों, लालू प्रसाद यादव ने धीरे-धीरे अति पिछड़े वर्ग को ठिकाने लगा दिया और अशराफ मुस्लिम को अपना समीकरण का हिस्सा बना लिया .

Who was Karpoori Thakur? The 'Jan Nayak' honoured with Bharat Ratna  posthumously - India News News

मंडल कमीशन के एकमात्र अनुसूचित जाति के सदस्य एल आर नायक ने कर्पूरी फार्मूले जैसा ही सुझाव पूरे देश के लिए दिया . उन्होंने ओबीसी को दो वर्गों में विभक्त करने का सुझाव दिया जिसमें प्रथम वर्ग 'डिप्रेस्ड वैकवर्ड क्लासेज' के लिए 15प्रतिशत आरक्षण और द्वितीय वर्ग इंटरमीडिएट बैकवर्ड क्लासेज' के लिए 12प्रतिशत आरक्षण था. प्रथम वर्ग बिहार के अति पिछड़ा वर्ग से मिलता जुलता था और द्वितीय वर्ग पिछड़ा वर्ग से मिलता जुलता था. इसे नायक के 'डिसेंट नोट' के रूप में जाना जाता है. मंडल कमीशन ने इस सुझाव को अस्वीकार कर दिया.

पूरे देश में डिप्रेस्ड वैकवर्ड क्लासेज में ही पसमांदा मुस्लिमों की अधिकांश जातियां आती हैं, जैसा की बिहार में अति पिछड़े वर्ग में है. मंडल आयोग के अध्यक्ष खुद ही जमींदार यादव जाति से आते थे. ऐसे में यादवों के राजनीति को सुरक्षित रखने के लिए जरुरी था कि अति पिछड़ों और पसमांदा के किसी भी संभावित राजनीतिक उभार को पूरी तरह से ख़त्म कर दिया जाए.

हालांकि मंडल कमीशन ने भी माना की उत्तर भारत में यादवों को नेतृत्व का अवसर मिला लेकिन वह कभी भी एकजुट होकर मजबूती से पिछड़ों के आन्दोलन का नेतृत्व नहीं किये बल्कि वह अपनी जाति की राजनीति में एकजुट रहे.

दूसरा मंडल अपने बिहार के अनुभव से किसान जातियों, उच्च ओबीसी जातियों को अपने पाले में बनाये रखने व कर्पूरी ठाकुर और पिछड़ों की वर्गीय राजनीति को कमजोर करने के लिए यह जरुरी था. मोरार जी देसाई आरक्षण के विरोध में पटना गांधी मैदान में बोल चुके थे और कर्पूरी ठाकुर ने उसके कुछ दिन बाद ही मुंगेरीलाल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर दिया. ऐसे में मोरार जी देसाई के लिए मंडल कमीशन एक तीर से दो निशाना था और वी पी मंडल उसके लिए एकदम सही साबित हुए.

संविधान के अनुच्छेद 29 (1), 30(1), व 30 (2) द्वारा अल्पसंख्यकों के लिए अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति संरक्षित करने के लिए विशेष व्यवस्था का प्रावधान है लेकिन सबसे खास बात है कि इसके बैनर तले अशराफ मुसलमानों ने अपने अधिकारों को सुरक्षित और संरक्षित कर लिया.

उन्होंने आरक्षण के नियमों को नहीं स्वीकार किया और उसका खामियाजा सबसे ज्यादा पसमांदा मुसलमान को भुगतना पड़ा. वह कमतर दर्जे के मुसलमान साबित किए गए. बहुत सी जातियां अपना धर्म-परिवर्तित करके मुसलमान बनी और इस प्रकार मुसलमान में से शेख, सैयद, पठान अपने को असली व आला दर्जे का मुसलमान समझते रहे हैं.

यह जो ऊंची जाति के हिंदू, मुसलमान वने वह इस्लाम में जाकर ऊंच-नीच का वह भेदभाव पहले की तरह बरकरार रखे हुए हैं. छेदीलाल साथी जो कि 1975से 1977तक 'सर्वाधिक पिछड़ा वर्ग

आयोग' उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष रहे, वह बताते हैं कि उन्होंने, बिजनौर, मुरादाबाद, सहारनपुर और मुजफ्फरनगर में रहते हुए अशराफ मुसलमानों को स्वयं देखा और उनसे सुना कि "मैं राजपूत मुसलमान हूं, कोई बेहना जुलाहा थोड़े ही हैं."

अशराफ मुस्लिम, हिंदुओं की छोटी जातियों से धर्म परिवर्तित मुसलमान को बेहना, जुलाहा, धुनिया, कुंजड़ा, कसगर, रंगरेज, दफाली, हज्जाम, फकीर और हलालखोर आदि जाति के नाम से छोटा और नीचे दर्जे का मुसलमान समझते हैं. यहां तक की शेख, सैयद, पठान मुसलमान अपनी लड़की की शादी इन छोटी जातियों के मुसलमान के साथ करने को कभी तैयार नहीं होते हैं और शादियां करने से कतराते हैं.

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साथी मंडल कमीशन के को-ऑप्टेड सदस्य भी रहे हैं. वह बताते हैं कि वह जून 1980में भारत सरकार के मंडल आयोग के सदस्य की हैसियत से आयोग के साथ दौरे पर उत्तर प्रदेश के पहाड़ी जिलों (अब उत्तराखण्ड) नैनीताल, अल्मोड़ा गए तो बहुत से ऊंची जाति के मुसलमानों ने कहा कि शेख, सैयद, पठान को भी अन्य मुस्लिम पिछड़ी जातियों के समान ही पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल किया जाए या फिर पसमांदा मुसलमान जातियों को भी पिछड़े वर्ग की सूची से निकाल दिया जाए .

सच तो यह है कि भले ही शेख, सैयद, पठान मुसलमान हो और जुलाहा, धुनिया, रंगरेज भी मुसलमान हो लेकिन इन दोनों के मुसलमान होने में बहुत बड़ी खाई है, असमानता है. वही असमानता और घृणा अशराफों द्वारा पसमांदा के लिए रह रहकर के उभर के आती है.

अशराफ मुसलमानों का पसमांदा से उत्तर प्रदेश में घृणा करने का एक और कारण भी रहा है. साथी आयोग ने 1977के रिपोर्ट में ओबीसी आरक्षण 29.5%करने का सुझाव दिया था. जिसमें 10 प्रतिशत उच्च पिछड़ा वर्ग के लिए, 17प्रतिशत अति पिछड़ा वर्ग के लिए और वैकवर्ड मुस्लिम यानी पसमांदा मुस्लिम को अलग से 2.5प्रतिशत आरक्षण देने की बात की थी. ऐसा करना पसमांदा और अति पिछड़े वर्ग की राजनीति के उभार के लिए बहुत बड़ा कारण हो सकता था इसलिए कांग्रेस ने तो रिपोर्ट को ही दवा दिया.

उस पर विधानसभा में चर्चा तक कभी नहीं कराई. दूसरी ओर अशराफो के अंदर यह डर पैदा हो गया कि कहीं ऐसा ना हो इस आरक्षण की वजह से उनका राजनीति, विशेषाधिकार खत्म हो जाए और पसमांदा मुस्लिम उनसे आगे निकल जाए .

इसलिए हमेशा से ही अशराफ, पसमांदा मुस्लिम आरक्षण के विरोधी रहे हैं. पसमांदा की स्वतंत्रत राजनीति को कांग्रेस और अशराफो ने मिलकर दबा दिया अन्यथा आज पसमांदा मुसलमानों की राजनीति और प्रतिनिधित्व एक बेहतर स्थिति में होता .

इसलिए जब कोई भाजपाई यह कहता है कि कांग्रेस ने मुसलमानों का हमेशा इस्तेमाल किया है तो वह सही बात ही करता है. हां यह अलग बात है भाजपा भी पसमांदा को कितना प्रतिनिधित्व देगी यह बड़ा सवाल है.

A peek at the report of the Mungeri Lal Commission - Forward Press

हिंदुओं के अंदर तो मनु को कहा जाता है कि ऊंच-नीच और असमानता को मजबूत किया. अब प्रश्न उठता है बराबरी वाले इस्लाम को भारत में कौन से मनु मिल गए जो भारत में मुस्लिमों में भी सैकड़ों सालों से ऊंच-नीच और जाति बरकरार है.

बिना मनु के ही इतना बड़ा ऊंच-नीच और गैरवरावरी चल रहा है तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है इसका सवाल है कि सैय्यदवाद क्या है? अंग्रेजों ने जब भी जाति जनगणना की हर बार अशरफ मुस्लिमों ने अपने आप को शेख, सैयद, पठान, मुगल, मिर्जा बताया. उस समय उन्होंने यह नहीं कहा कि सभी को केवल मुसलमान लिखिए क्योंकि इनका उद्देश्य पूरी तरह से राजनीतिक और असमानता वाला ही रहा है.

यानी सीधे-सीधे कहा जाए तो कोई भी पसमांदा यही बोलेगा कि आखिर अशराफ की नजर में मैं बराबर क्यों नहीं हूं क्योंकि मैं सैयद नहीं हूं, मैं पार्लियामेंट में नहीं हूं, पॉलिटिक्स में नहीं हूं.

यूपी में पसमांदा मुस्लिम को आरक्षण नहीं मिला लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग आरक्षण (ईडब्ल्यूएस) सैय्यदों ने लपक के लिया. शेख, सैयद, पठान का आपस में रोटी बेटी का संबंध "गंगा-जमुनी तहजीब के नाम पर सवर्ण हिन्दुओं से रहा लेकिन मुसलमान के अंदर "छोटी बिरादरी" के लोगों के साथ रोटी-बेटी संबंध करने के लिए ना तो वे पहले तैयार थे ना आज नहीं आज तैयार है. दीन का संरक्षक भी सैयद ही रहेगा और मुसलमानों का संरक्षक भी सैयद रहेगा.

यही अशराफ राजनीति है. पसमांदा क्या करेगा? क्योंकि यही सैय्यदवाद है. इसलिए पूर्व सांसद अली अनवर अंसारी इसे 'मसावात की जंग' का नाम देते हैं. उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री माननीय राजनाथ सिंह अति पिछड़ा वर्ग और पसमांदा की राजनीति के महत्व को समझते थे.

इसीलिए उन्होंने जब हुकुम सिंह समिति की रिपोर्ट (2001) जिसे की सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट भी कहा जाता है, पर अपनी राय देते हुए कहा था कि " ओबीसी वर्गीकरण से अत्यंत पिछड़े वर्ग में 70में से कुल 22जातियां मुस्लिमों की हैं. इसे अति पिछड़े मुसलमानों को भी लाभ होगा क्योंकि उनकी अधिकांश मुस्लिम जातियां सर्वाधिक पिछड़े समुदाय में आती हैं."

समय-समय पर भाजपा ने इसका लाभ भी उठाया है. भाजपा को भी यह चुनाव करना है कि वह अपनी राजनीति के लिए कांग्रेस की तरह अशराफ को चुनना चाहती है या पसमांदा को क्योंकि 'मसावात की जंग' तो रुकने वाली नहीं है.

लेखक जेएनयू से पीएचडी और यूएन पीजी काॅलेज पडरौना,कुशीनगर में समाजशस्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. यह लेखक के विचार हैं.