प्रमोद जोशी
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के बयानों और टैरिफ को लेकर भारत और अमेरिका के बीच चलती तनातनी के दौरान दो-तीन घटनाएँ ऐसी हुई हैं, जो इस चलन के विपरीत हैं.
एक है, दोनों देशों के बीच दस साल के रक्षा-समझौते का नवीकरण और दूसरी चाबहार पर अमेरिकी पाबंदियों में छह महीने की छूट. इसके अलावा दोनों देश एक व्यापार-समझौते पर बात कर रहे हैं, जो इसी महीने होना है.
इन बातों को देखते हुए पहेली जैसा सवाल जन्म लेता है कि एक तरफ दोनों देशों के बीच आर्थिक-प्रश्नों को लेकर तीखे मतभेद हैं, तो सामरिक और भू-राजनीतिक रिश्ते मजबूत क्यों हो रहे हैं? उधर अमेरिका और चीन का एक-दूसरे के करीब आना भी पहेली की तरह है.
डॉनल्ड ट्रंप और शी चिनफिंग के बीच मुलाकात के बाद कुछ दिनों के भीतर अमेरिकी युद्धमंत्री (या रक्षामंत्री) पीट हैगसैथ ने रविवार को बताया कि उन्होंने चीन के रक्षामंत्री एडमिरल दोंग जून से मुलाकात की और दोनों ने आपसी संपर्क को मजबूत करने और सैनिक-चैनल स्थापित करने पर सहमति व्यक्त की है.
	
दूसरी पहेली
ट्रंप ने शी जिनपिंग के साथ आमने-सामने की मुलाकात को ‘दस में बारह’ की रेटिंग दी है. बातों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की उनकी आदत है. सच यह है कि इस मुलाकात से जुड़ा कोई संयुक्त बयान जारी नहीं हुआ है. ट्रंप के बयानों से ही तस्वीर गढ़नी पड़ रही है. इतना साफ है कि व्यापार-युद्ध में चीन कहीं मज़बूत बनकर उभरा है.
अमेरिका और चीन के बीच सैनिक-चैनल स्थापित होना महत्वपूर्ण परिघटना है. अमेरिका और चीन के भू-राजनीतिक रिश्ते सुधरेंगे, तो इससे क्या भारत और अमेरिका के रिश्तों में भी बदलाव आएगा? इसका अनुमान अभी लगाना मुश्किल है, क्योंकि बहुत सी बातें अब भी स्पष्ट नहीं हैं.
कुछ पर्यवेक्षकों के लगता है कि दोनों की स्पर्धा अब आर्थिक-क्षेत्र तक सीमित हो जाएगी. ऐसा हुआ, तो क्या क्वॉड पहल कमज़ोर होगी? वह सामरिक गठबंधन नहीं है. इसका दायरा काफी बड़ा है और भारत ने दूरंदेशी के साथ इसे चीन-विरोधी गठबंधन कभी नहीं माना.
रक्षा-सहयोग
रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने 31अक्तूबर को मलेशिया के कुआलालंपुर में आसियान रक्षामंत्रियों की बैठक प्लस (एडीएमएम-प्लस) के अवसर पर अमेरिका के रक्षामंत्री पीट हैगसैथ के साथ दस वर्षीय रक्षा-सहयोग के एक दस्तावेज पर दस्तखत किए.
यह कोई नया समझौता नहीं है, बल्कि 2005में हुए समझौते का हर दस साल में होने वाला नवीकरण है. यह दूसरा नवीकरण है. पहला 2015में हुआ था. बहरहाल दोनों देशों ने भू-राजनीतिक अनिश्चितताओं के दौर में चुनौतियों के समाधान के लिए मिलकर काम करने पर सहमति व्यक्त की है.
कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि पिछले कुछ महीनों में परिस्थितियाँ बदली भी हैं. मसलन इस समझौते का नवीकरण इस साल जुलाई-अगस्त में हो जाना चाहिए था, पर लगता है कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद ट्रंप के बयानों के कारण भारत की नाराजगी से इसमें देरी हुई.
बहरहाल अब इस नवीकरण के मौके पर अमेरिकी रक्षामंत्री ने कहा कि अमेरिका के लिए भारत प्राथमिकता वाला देश है और स्वतंत्र और खुले हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए भारत के साथ मिलकर काम करने पर प्रतिबद्ध हैं. उसके पहले उनके विदेशमंत्री ने स्पष्ट किया था कि पाकिस्तान के साथ हमारे बदलते रिश्ते भारत की कीमत पर नहीं हैं.
	
बुनियादी समझौते
अमेरिका अपने रक्षा सहयोगियों के साथ चार बुनियादी समझौते करता है. इनमें पहला है जनरल सिक्योरिटी ऑफ मिलिटरी इनफॉर्मेशन एग्रीमेंट (जीएसओएमआईए). यह समझौता दोनों देशों के बीच सन 2002में हो गया था.
इसके बाद 2016में दोनों के बीच लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (लेमोआ) हुआ. फिर 2018में कोमकासा पर दस्तखत हुए. उसके बाद 2020में चौथा समझौता बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बेका) हुआ. अब दोनों देशों के बीच रक्षा संबंधी तमाम गोपनीय जानकारियों का आदान-प्रदान होता है.
2005में हुए भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग समझौते के बाद 2012में तकनीकी सहयोग की पहल डिफेंस टेक्नोलॉजी एंड ट्रेड इनीशिएटिव (डीटीटीआई) की भूमिका भी महत्वपूर्ण है. 2016में अमेरिका ने भारत को मेजर डिफेंस पार्टनर (एमडीपी) घोषित किया.
2018में भारत की संस्था इनोवेशन फॉर डिफेंस एक्सेलेंस (आईडेक्स) और अमेरिका की डिफेंस इनोवेशन यूनिट के बीच तकनीकी सहयोग का समझौता हुआ. उसी वर्ष दोनों देशों के बीच विज्ञान और तकनीकी सहयोग का समझौता भी हुआ था.
मालाबार युद्धाभ्यास
दोनों देशों के सामरिक सहयोग की शुरुआत 1992से हो गई थी, जब दोनों देशों की नौसेनाओं ने ‘मालाबार युद्धाभ्यास’ शुरू किया था. सोवियत संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के एक साल बाद.
हर वर्ष इसकी मेजबानी चारों देश बारी-बारी से करते हैं. इस साल यह अभ्यास 25से 26नवंबर को गुआम में होगा, जो जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच पश्चिमी प्रशांत महासागर में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण द्वीप समूह है. पिछले वर्ष यह अभ्यास भारत के विशाखापत्तनम में हुआ था.
इस अभ्यास में क्वॉड समूह के चारों सदस्य देश भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल होते हैं. अभ्यास का उद्देश्य हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षित समुद्री मार्ग सुनिश्चित करना और सहयोगी देशों के बीच इंटरऑपरेबिलिटी बढ़ाना है.
1998 में भारत के एटमी परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत पर कई तरह की पाबंदियाँ लगा दीं. मालाबार युद्धाभ्यास भी बंद हो गया, पर 11सितम्बर 2001को न्यूयॉर्क के ट्विन टावर पर हुए हमले के बाद अमेरिकी दृष्टि में बदलाव आया. 2002से यह युद्ध अभ्यास फिर शुरू हुआ और भारत धीरे-धीरे अमेरिका के महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में उभरने लगा.
	
चीन-फैक्टर
डॉनल्ड ट्रंप और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की मुलाकात के बाद लगता है कि दोनों देशों के रिश्तों में सुधार है. कुछ लोगों का कयास है कि क्वॉड की भूमिका और अमेरिका का भारत को समर्थन कमतर होगा.
संज़ीदा पर्यवेक्षक मानते हैं कि अमेरिकी रक्षा-नीति दूरगामी विचार पर आधारित होती है, किसी राष्ट्रपति दिमाग से नहीं चलती. ऐसा कोई संकेत नहीं है कि अमेरिकी नीति में कोई बुनियादी बदलाव आने वाला है.
ताइवान और दक्षिण चीन सागर को लेकर चीनी नीतियाँ भी बदलने वाली नहीं हैं. ऐसे में अमेरिका को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन से मुकाबिल ताकतवर सहयोगी की ज़रूरत बनी रहेगी.
ऐसा ज़रूर लगता है कि ट्रंप चीन से आर्थिक-समझौते के लिए आतुर हैं. उन्हें उम्मीद है कि कुछ ले-देकर चीन से समझौता हो जाएगा. ऐसा हुआ भी, तो यह मान लेना जल्दबाज़ी होगी कि उसका भारत पर असर होगा. ट्रंप का कार्यकाल ख़त्म होने के बाद हालात बदल भी सकते हैं.
मुख्य चुनौती
सामरिक-दृष्टि से भारत के सामने मुख्य चुनौती चीन है. दोनों देशों की सीमा पर गतिरोध का नवीनतम दौर पिछले साल अक्तूबर में गश्त और पीछे हटने के समझौते के साथ सुलझा है. दोनों के बीच सीधी विमान सेवा शुरू हो गई है.
भारत ने चीन के साथ अनावश्यक टकराव से बचने और आर्थिक-सहयोग जारी रखने की नीति अपनाई है. पाकिस्तान के साथ चीन के रिश्ते हमारे लिए बड़ी चुनौती हैं. ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जैसी किसी सैनिक टकराव में पाकिस्तान-चीन गठजोड़ खतरनाक होगा.
थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि अमेरिका अपने आर्थिक हितों की खातिर हिंद-प्रशांत क्षेत्र से हाथ खींच लेगा, तब चीन के लिए ताइवान पर हमला करना आसान हो जाएगा. वहीं हिंद महासागर क्षेत्र में चीनी गतिविधियाँ बढ़ जाएँगी.
रूस फैक्टर
इस साल अगस्त में अमेरिका ने भारतीय सामान के आयात पर 50फ़ीसदी का टैरिफ़ लगा दिया है. अमेरिका ने इसे रूस से तेल ख़रीदने की 'सज़ा' बताया. भारत ने इस मुद्दे पर काफ़ी सावधानी के साथ प्रतिक्रिया दी और सार्वजनिक बयानबाज़ी से खुद को दूर रखा है.
भारत ने यह संकेत दिया है कि रूस की दो तेल कंपनियों पर प्रतिबंध के बाद भारत की रिफाइनरियाँ तदनुरूप कार्य करेंगी. और यह भी कि हम अमेरिका से तेल और रक्षा खरीद बढ़ाने के लिए तैयार हैं.
बेशक रूस अब भी भारत के लिए हथियारों का एक प्रमुख सप्लायर बना हुआ है, फिर भी भारत की रक्षा ख़रीद में इसकी हिस्सेदारी लगातार घट रही है, क्योंकि भारत इसमें विविधता लाने और घरेलू क्षमता को बढ़ाने की कोशिश कर रहा है.
भारत ने रक्षा-तकनीक के लिए नब्बे के दशक से ही रूस पर आश्रय कम करना शुरू कर दिया था. इसके लिए इसराइल और फ्रांस के साथ सहयोग किया और अब अमेरिका के साथ भी सहयोग कर रहा है.
लंबी दूरी की वायु रक्षा प्रणाली, विमान, पनडुब्बियों और टैंकों सहित उन्नत हथियार प्रणालियों का एक विश्वसनीय आपूर्तिकर्ता रूस रहा है और कमोबेश बना रहेगा. ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल इस रूसी सह-विकास की सफलता की कहानी है.
भारत अपने पाँचवीं पीढ़ी के उन्नत बहुद्देश्यीय लड़ाकू विमान कार्यक्रम के लिए उन्नत जेट लड़ाकू विमानों और जेट इंजनों के लिए फ्रांस के साथ सहयोग कर रहा है. मिसाइलों और ड्रोन तथा लॉइटरिंग म्यूनिशंस के लिए इसराइल के साथ हमारा सहयोग जारी है.
हाल के वर्षों में भारत ने दक्षिण कोरिया, जापान और ब्राज़ील के साथ भी तकनीकी सहयोग के रिश्ते जोड़े हैं. इन सब बातों के अलावा भारत ने रक्षा-तकनीक में आत्मनिर्भरता हासिल करने की और रक्षा-तकनीक के महत्वपूर्ण निर्यातक के रूप में विकास करने की दिशा में भी कदम बढ़ाए हैं.
	
अमेरिका क्या करेगा?
अभी कहना मुश्किल है कि अमेरिका पश्चिम एशिया और हिंद-प्रशांत क्षेत्र से पूरी तरह हाथ खींच लेगा. महाशक्ति के रूप में, उसके पास पर्याप्त सैन्य और तकनीकी शक्ति है, जो उसके आर्थिक-हितों की रक्षा भी करती है
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में जापान, ऑस्ट्रेलिया और यहाँ तक कि इंडोनेशिया, मलेशिया, वियतनाम और फिलीपींस जैसे देश चीन के बढ़ते सामरिक प्रभाव को पसंद नहीं करेंगे. ऐसे में भारत उनके अपरिहार्य साझेदार के रूप में उभरेगा.
अमेरिका ने चीन पर टैरिफ दस प्रतिशत कम करने पर सहमति जताई है—ट्रंप के अनुसार, कुल टैरिफ दर 47प्रतिशत हो जाएगी. इसके बदले में फेंटेनाइल के उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले रसायनों के निर्यात को रोकने में चीन का सहयोग मिलेगा.
ट्रंप ने हाल में घोषित ‘50प्रतिशत नियम’ को एक साल के लिए स्थगित करने पर भी सहमति जताई, जिसके तहत चिप बनाने वाले उपकरणों और अन्य अमेरिकी तकनीक पर निर्यात नियंत्रण को दरकिनार करने वाली काली सूची में डाली गई चीनी संस्थाओं की हज़ारों सहायक कंपनियाँ प्रतिबंधों से बचेंगी.
बदले में, चीन ने रेअर-अर्थ खनिजों पर अपने निर्यात नियंत्रण को एक साल के लिए स्थगित करने और अमेरिकी सोयाबीन की खरीद पिछले स्तर पर, प्रति वर्ष अरबों डॉलर के बराबर, फिर से शुरू करने का वादा किया है.
इसे एक अस्थायी युद्धविराम कह सकते हैं. दूरगामी बातों के लिए हमें कुछ और बातों का इंतज़ार करना होगा. इस चर्चा में ताइवान और दक्षिण चीन सागर जैसे भू-राजनीतिक मुद्दे पीछे छूट गए हैं. रूसी तेल की खरीद का मसला उठा ही नहीं, जिसे लेकर ट्रंप ने भारत के खिलाफ हाहाकार मचा रखा है.
(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)