खेत को बनाया मैदान, उम्मीद को बनाया हथियार: अनवारुल हक की बदलती दुनिया की कहानी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 04-11-2025
Anwarul Haq, who set out to build his future through football, has transformed the lives of hundreds of children
Anwarul Haq, who set out to build his future through football, has transformed the lives of hundreds of children

 

झारखंड के चदरी गांव के अनवारुल हक ने गरीबी और अभाव के बीच उम्मीद की नई रोशनी जलाई है। दिन में बच्चों को फुटबॉल सिखाने और रात में उन्हें पढ़ाने वाले अनवारुल ने अपने गांव में “स्टार वारियर्स क्लब” की स्थापना की, जिसने सैकड़ों गरीब बच्चों को शिक्षा और खेल से जोड़ा है। उनकी यह पहल न केवल बच्चों के सपनों को नई उड़ान दे रही है, बल्कि पूरे समाज में बदलाव की मिसाल बन चुकी है। आवाज द वॉयस की खास प्रस्तुति द चेंज मेकर्स सीरीज झारखंड की राजधानी रांची से हमारे सहयोगी जेब अख्तर ने अनवारुल हक पर यह विस्तृत न्यूज़ रिपोर्ट की है।

गरीबी और अभाव अक्सर बच्चों के सपनों को समय से पहले तोड़ देते हैं। झारखंड के ग्रामीण इलाकों में यह तस्वीर आम है, लेकिन इन्हीं इलाकों से आज ऐसी कहानियाँ भी निकल रही हैं जो उम्मीद जगाती हैं। कांके प्रखंड के चदरी गांव के रहने वाले अनवारुल हक ने ऐसी ही एक कोशिश शुरू की है। दिन में वे फुटबॉल सिखाते हैं और रात को बच्चों को पढ़ाते हैं। महज़ तीन साल में उनकी इस पहल ने ऐसे कई बच्चों की ज़िंदगी बदल दी है, जिनके लिए पढ़ाई-लिखाई और खेल दोनों ही किसी विलासिता से कम नहीं थे। 

खेत से बने मैदान तक

अनवारुल हक पेशे से खेल शिक्षक हैं और रांची के एक आवासीय बालिका विद्यालय में पढ़ाते हैं। लेकिन अपनी नौकरी से इतर, उन्होंने जो काम शुरू किया, वही उन्हें अलग बनाता है। 2021 में जब उन्होंने अपने गांव और आसपास के बच्चों की हालत देखी, तो एक नई सोच मन में आई। ज़्यादातर परिवार दिहाड़ी मजदूरी करने वाले थे। बच्चे या तो स्कूल नहीं जाते थे या फिर नशे और गलत संगत में समय गंवाते थे। अनवारुल को लगा कि इन बच्चों को खेल और शिक्षा से जोड़ना ही एकमात्र रास्ता है। लेकिन समस्या थी—न मैदान, न संसाधन।

उन्होंने हार नहीं मानी। गांव के खेतों को समतल किया और उसे अस्थायी मैदान का रूप दिया। वहीं से बच्चों को फुटबॉल की ट्रेनिंग शुरू हुई। फसल के मौसम में मैदान हाथ से निकल जाता, तो फिर दूसरी जगह तलाशनी पड़ती। लेकिन अनवरत मेहनत और बच्चों की लगन ने इस असंभव को संभव बनाया।

विरोध के बीच अविश्वास

बच्चों को जुटाना आसान नहीं था। उनके माता-पिता को समझाना बड़ी चुनौती थी। शुरुआत में गांव के कई लोगों ने इस पहल का विरोध किया। गरीब परिवारों के गार्जियन को यह समझ नहीं आया कि फुटबॉल खेलने से उनके बच्चों का भला कैसे होगा। कुछ लोगों ने तो अफवाह तक फैला दी कि अनवारुल यह सब अपने फायदे के लिए कर रहे हैं। लेकिन अनवारुल हक ने हार नहीं मानी। वे एक-एक घर गए और माता-पिता को भरोसा दिलाया—“बच्चे दिन में फुटबॉल खेलेंगे और रात को पढ़ाई करेंगे।” धीरे-धीरे गार्जियन का भरोसा जीता गया और बच्चे मैदान तक आने लगे।

चार बच्चियों से 150 बच्चों तक

महज़ चार बच्चियों से शुरू हुई यह पहल आज बड़े कारवाँ में बदल चुकी है। उनका “स्टार वारियर्स क्लब” कांके और ओरमांझी इलाके के लगभग 150 बच्चों को फुटबॉल की ट्रेनिंग दे चुका है। इन पंक्तियों को लिखने तक कल्ब से 60-65 बच्चे जुड़े हैं। वहीं क्लब की 14 बच्चियाँ राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में खेल चुकी हैं। और सबसे बड़ी सफलता है दिव्यानी लिंडा का भारत की अंडर-17 महिला टीम में चयन। दिव्यानी आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल रही हैं।

दिव्यानी लिंडा की कहानी

अनवारुल की मेहनत की सबसे चमकदार मिसाल दिव्यानी लिंडा हैं। दिव्यानी का परिवार बेहद गरीब है। पिता का निधन हो चुका है। माँ मजदूरी कर किसी तरह घर चलाती हैं। उनका छोटा भाई तीन साल से टूटी टांग के कारण बिस्तर पर है। इन कठिन परिस्थितियों में भी दिव्यानी ने फुटबॉल को अपनी पहचान बनाया। अनवारुल की देखरेख में ट्रेनिंग लेने के बाद उनका चयन अंडर-17 भारतीय महिला फुटबॉल टीम में हुआ। आज वे नेपाल में खेल रही हैं और झारखंड का नाम रोशन कर रही हैं। दिव्यानी कहती हैं—“मेरा सपना है कि खेल से मिली रकम से अपने भाई का इलाज कराऊँ।”

अनवारुल बताते हैं, “दिव्यानी जैसे बच्चों को देखकर लगता है कि हमारी मेहनत रंग ला रही है। उनकी चमकती आँखों में जो उम्मीद है, वही हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है।”

लड़कियों को मैदान में उतारना

अनवारुल की पहल में लड़कियों की भूमिका अहम रही है। लेकिन शुरुआत में इसका भी विरोध हुआ। जब लड़कियाँ हाफ पैंट पहनकर मैदान में उतरीं, तो गांव के लोगों ने एतराज़ जताया। अनपढ़ और अशिक्षित गार्जियन को समझाना आसान नहीं था। अनवारुल ने धैर्य रखा, उन्हें समझाया और धीरे-धीरे मानसिकता बदली। आज उनकी टीम में लड़कियों की संख्या बराबरी पर है।

अनवारुल की इस पहल को अब स्थानीय स्तर पर सराहना मिलने लगी है। रांची के समाजसेवी जगदीश सिंह जग्गू लगातार उनका सहयोग करते हैं। स्थानीय पिठोरिया पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी कई बार बच्चों को ट्रॉफी और प्रोत्साहन दे चुके हैं। इंटरनेशनल हॉकी प्लेयर निक्की प्रधान भी क्लब आकर बच्चों का हौसला बढ़ा चुकी हैं।

पिछले साल अगस्त में सिंगापुर और मलेशिया से आए विदेशी मेहमानों ने भी स्टार वारियर्स क्लब का दौरा किया। उन्होंने बच्चों के फुटबॉल प्रेम और इस पहल से हो रहे बदलाव पर रिसर्च किया। बच्चों ने पारंपरिक झारखंडी नृत्य से उनका स्वागत किया। विदेशी मेहमान बच्चों के संघर्ष और सपनों को सुनकर प्रभावित हुए और सहयोग का आश्वासन भी दिया।

इसके बावजूद चुनौतियाँ खत्म नहीं हुई हैं। सबसे बड़ी ज़रूरत है एक स्थायी मैदान की। अनवारुल कहते हैं, “बच्चे जब राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर खेलकर लौटते हैं, तो स्वागत खूब होता है, वादे भी किए जाते हैं। लेकिन बाद में सब भूल जाते हैं। स्थायी मैदान की कमी सबसे बड़ी चुनौती है।”

शिक्षा और खेल का संगम

अनवारुल की पहल केवल फुटबॉल तक सीमित नहीं है। दिन में मैदान पर पसीना बहाने वाले यही बच्चे रात में किताबों से जूझते हैं। अनवारुल उन्हें पढ़ाते भी हैं। उनका मानना है कि शिक्षा और खेल, दोनों मिलकर ही बच्चों का भविष्य गढ़ सकते हैं।

आज स्टार वारियर्स क्लब से जुड़े सौ फीसद बच्चे अभावग्रस्त परिवारों से आते हैं। लेकिन इसी अभाव को उन्होंने ताकत बना लिया है। यही कारण है कि इतने कम समय में यह क्लब राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुका है।

सामाजिक बदलाव की ओर

अनवारुल की कोशिशें अब धीरे-धीरे सामाजिक बदलाव का रूप ले रही हैं। खेल के बहाने बच्चे न सिर्फ नशे और गलत संगत से दूर हो रहे हैं, बल्कि शिक्षा से भी जुड़ रहे हैं। यह बदलाव उनके परिवारों तक भी पहुँच रहा है। अनवारुल कहते हैं, “कई बार नेता या अधिकारी बच्चों को प्रोत्साहित करने आते हैं। यह देखकर अच्छा लगता है। लेकिन असली संतोष तो तब होता है, जब बच्चे मैदान में अपनी मेहनत का नतीजा जीत के रूप में लाते हैं।”

आज जब झारखंड के कई गांवों में बच्चे अभाव और लाचारी की वजह से अपने सपनों से समझौता कर रहे हैं, वहीं चदरी गांव से उठी अनवारुल की यह पहल मिसाल बन चुकी है। उन्होंने दिखाया कि निजी स्तर पर की गई छोटी-सी कोशिश भी बड़े बदलाव ला सकती है। फुटबॉल उनके लिए सिर्फ खेल नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का औज़ार है। उनके हौसले और समर्पण को सलाम करना तो बनता ही है।