बिहार विधानसभा चुनाव 2025: ‘अपनी क़ियादत’ को वोट देने का विचार लोकतंत्र के लिए ख़तरा

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 24-10-2025
Bihar Assembly Elections 2025: The idea of ​​voting only for ‘your leader’ is a threat to democracy
Bihar Assembly Elections 2025: The idea of ​​voting only for ‘your leader’ is a threat to democracy

 

dसाक़िब सलीम

बिहार में चुनावी बिगुल बज चुका हैऔर इसके साथ ही सोशल मीडिया पर बरसाती मेंढकों की तरह चुनावी विश्लेषक और तथाकथित बुद्धिजीवी अपने-अपने विचार परोसने लगे हैं.लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपने विचार रखने का अधिकार हैऔर इंटरनेट के इस युग में जिसके पास एक स्मार्टफ़ोन और डाटा पैक है, वह कुछ भी लिख सकता है.लेकिन जब कुछ बातें “जनहित” के नाम पर सोशल मीडिया पर इस तरह फैलाई जाएँ कि उनसे देश और समाज को नुक़सान पहुँचे, तो उनके बारे में लोगों को सचेत करना एक सामाजिक कर्तव्य बन जाता है.

पिछले कुछ महीनों से ख़ुद को “मुस्लिम पत्रकार” या “मुस्लिम कार्यकर्ता” कहने वाले कई लोग सोशल मीडिया पर यह लिख और कह रहे हैं कि मुसलमानों को किसी भी ग़ैर-मुस्लिम पार्टी को वोट नहीं देना चाहिए, बल्कि सिर्फ़ अपनी “क़ियादत” (नेतृत्व) को ही वोट देना चाहिए.

बिहार के एक प्रसिद्ध मुस्लिम पत्रकार  जिनके लाखों फ़ॉलोअर हैं ,ने लिखा कि अगर राजद या कांग्रेस के टिकट पर 50 मुस्लिम उम्मीदवार भी जीत जाएँ, तो वे पार्टी के लिए काम करेंगे, मुस्लिम समाज के लिए नहीं.इसलिए, मुसलमानों को सिर्फ़ “अपनी क़ियादत” को वोट देना चाहिए और अगर ऐसी कोई मुस्लिम पार्टी नहीं है, तो उसे बनाना चाहिए.

सुनने में यह विचार बड़ा अच्छा लगता है कि देश के एक पिछड़े वर्ग की अपनी पार्टी हो, जो उसके मुद्दों को उठाए। लेकिन ज़रा इसे व्यावहारिक नज़र से देखें, तो यह न केवल मुस्लिम समाज के लिए, बल्कि पूरे देश और लोकतंत्र के लिए अत्यंत भयावह विचार है.

इस विचार का अर्थ है कि मुसलमान केवल उस पार्टी को वोट दें जो मुस्लिम मुद्दों को उठाती हो और जिसका नेतृत्व मुसलमानों के हाथ में हो.बिहार के संदर्भ में यह परोक्ष रूप से असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM के लिए समर्थन की अपील है.लेकिन यह सोचना कि देशभर के मुसलमान सिर्फ़ एक “मुस्लिम पार्टी” को वोट दें — लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक विचार है.

ध्यान देने वाली बात यह है कि यह विचार सिर्फ़ किसी मुस्लिम उम्मीदवार को वोट देने की बात नहीं करता, बल्कि यह कहता है कि अगर कोई मुसलमान किसी ग़ैर-मुस्लिम पार्टी से चुनाव लड़ रहा है, तो उसे भी वोट नहीं दिया जाए.

देश की आख़िरी जनगणना के अनुसार, मुसलमानों की आबादी लगभग 14% है.भारत की केवल 15 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहाँ मुसलमान 50% से अधिक हैं.यानी, अगर सारे मुसलमान सिर्फ़ एक “मुस्लिम पार्टी” को वोट करें, तो वह अधिकतम 15 सीटें जीत सकती है,वो भी तब, जब सारे मुसलमान एकमत होकर वोट करें.

अगर हम यह मान लें कि 40-50% वोट पर चुनाव जीता जा सकता है, तो 14 और सीटें हैं जिनमें मुस्लिम आबादी 40-50% के बीच है.इसके बाद 19 सीटें हैं जहाँ मुस्लिम आबादी 30-40% है.यानी कुल मिलाकर यह “मुस्लिम पार्टी” अधिकतम 48 सीटें जीत सकती है और वह भी तब जब हर जगह उसे 30% से ज़्यादा वोट मिले, जो कि व्यावहारिक रूप से असंभव है.

अर्थात्, ऐसी पार्टी की लोकसभा में भागीदारी 9% से भी कम होगी.यथार्थ में यह संख्या 20 सीटों से आगे नहीं जा पाएगी.अगर मुसलमान खुलकर ऐलान कर दें कि वे केवल अपनी पार्टी को वोट देंगे, तो बाकी पार्टियाँ यह जान जाएँगी कि मुसलमान उनके वोटर नहीं हैं.

ऐसे में वे न तो मुस्लिम इलाकों में वोट माँगने जाएँगी, न ही मुस्लिम समाज के मुद्दों को प्राथमिकता देंगी.क्योंकि लोकतंत्र में वही समुदाय अहमियत रखता है जो किसी पार्टी को वोट देता है.जो समुदाय किसी पार्टी को वोट नहीं देता, उसकी आवाज़ सत्ता तक नहीं पहुँचती.

सिद्धांत रूप में तो हाँ,लेकिन व्यवहार में नहीं.लोकतंत्र में हर पार्टी अपने वोटरों को ध्यान में रखकर ही नीतियाँ बनाती है.उदाहरण के तौर पर, भाजपा एक हिंदुत्व आधारित पार्टी मानी जाती है, लेकिन क्या सारे हिंदू उसे वोट करते हैं? नहीं.देश में 80% हिंदू हैं, फिर भी भाजपा का वोट प्रतिशत 40% से ज़्यादा नहीं होता.बाक़ी हिंदू सपा, बसपा, कांग्रेस, राजद, तृणमूल आदि को वोट करते हैं.इसलिए हर पार्टी हिंदुओं को लुभाने की कोशिश करती है.

दलित, ब्राह्मण, राजपूत — सब समुदायों के लोग हर पार्टी में हैं.इसलिए हर पार्टी को हर वर्ग से उम्मीद रहती है.लेकिन अगर मुसलमान यह तय कर लें कि वे सिर्फ़ अपनी पार्टी को वोट देंगे, तो वे राजनीतिक मुख्यधारा से कट जाएँगे और हाशिये पर पहुँच जाएँगे.

1967 तक भारत में कांग्रेस का वर्चस्व था.लेकिन उसके बाद जनसंघ, समाजवादी और कम्युनिस्ट पार्टियाँ मज़बूत होने लगीं.हर पार्टी चाहती थी कि हर समुदाय का समर्थन उसे मिले.मुसलमानों का भी.

इंदिरा गांधी के दौर में बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, असम और केरल जैसे राज्यों में मुस्लिम मुख्यमंत्री बने.जनसंघ (आज की भाजपा) में भी इमदाद साबरी जैसे मुसलमान नेता थे.दिल्ली की जामा मस्जिद इलाक़े में जनसंघ जीत दर्ज करती थी.

लेकिन 1996 के बाद राजनीति बदली.मुसलमानों ने भाजपा को “अछूत” पार्टी मान लिया.अब न मुसलमान उसमें शामिल होते, न उसके पक्ष में वोट देते.भाजपा विरोधी पार्टियाँ यह जान गईं कि मुसलमान हर हाल में भाजपा को हराने के लिए ही वोट देंगे, इसलिए उन्हें लुभाने की ज़रूरत नहीं रही.

धीरे-धीरे भाजपा ने भी यह मान लिया कि मुसलमान उसे वोट नहीं देंगे, इसलिए उसने भी इस वर्ग में रुचि कम कर दी.आज भाजपा के नेतृत्व में शायद ही कोई मुस्लिम मंत्री या सांसद हो,जबकि पहले सिकंदर बख़्त, शाहनवाज़ हुसैन और मुख़्तार अब्बास नक़वी जैसे नाम प्रमुख हुआ करते थे.

कांग्रेस और अन्य दलों ने भी मुस्लिम मुद्दों पर सक्रियता दिखाना बंद कर दिया,क्योंकि सबको पता है कि मुसलमान किसे वोट देंगे.अगर मुसलमान अपनी अलग पार्टी बनाते हैं और सिर्फ़ उसी को वोट देते हैं, तो यह न केवल उन्हें मुख्यधारा से दूर करेगा, बल्कि धर्म के आधार पर राजनीति को और गहरा करेगा.सोशल मीडिया पर कुछ लोग “बुद्धिजीवी” बनने या “लाइक्स और कमेंट” पाने के लिए जो विचार फैला रहे हैं, वे मुस्लिम समाज, देश और लोकतंत्र  तीनों के लिए ही बेहद ख़तरनाक हैं.