जब झूठ को मिला सम्मान: पाकिस्तान की पत्रकारिता पर गहरे सवाल

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 22-10-2025
When lies were respected: Pakistan's journalism faces serious questions
When lies were respected: Pakistan's journalism faces serious questions

 

आयुषी राणा 

जब कोई देश अपने सच बताने वालों (truth-tellers) को पुरस्कृत करता है, तो वह लोकतंत्र में निवेश करता है. लेकिन जब वह अपने झूठ फैलाने वाले (disinformation agents) लोगों को सम्मानित करता है, तो यह एक गहरा संकेत देता है,तथ्यों को कल्पना से और जवाबदेही को हेरफेर से बदलने का एक जानबूझकर किया गया फैसला.

पाकिस्तान ने ठीक यही किया . पत्रकारिता की नैतिकता और सार्वजनिक ज़िम्मेदारी के एक असाधारण उल्लंघन में, पाकिस्तानी सरकार ने भारत-पाकिस्तान गतिरोध के दौरान झूठ गढ़ने के लिए जाने जाने वाले दो व्यक्तियों: क़मर चीमा और वजाहत काज़मी को अपना एक सर्वोच्च नागरिक सम्मान — तमग़ा-ए-इम्तियाज़  देने का फैसला किया है.

यह केवल गलत पहचान का मामला नहीं. यह एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की झलक है जो अब सार्वजनिक सत्य से ज़्यादा कथा युद्ध (narrative warfare) को महत्व देती है. उन लोगों को पुरस्कृत करती है जो राज्य के उद्देश्यों के लिए झूठ को हथियार बनाते हैं.
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ऑपरेशन सिंदूर के दौरान, क़मर चीमा ने सोशल मीडिया पर शेखी बघारी थी कि "भारत सूचना युद्ध (information war) में पाकिस्तान से नहीं जीत सकता." लेकिन अपनी श्रेष्ठता की घोषणा करते हुए, चीमा ठीक इसका उल्टा कर रहे थे.वह AI-जनरेटेड तस्वीरें साझा कर रहे थे, मनगढ़ंत कहानियाँ प्रसारित कर रहे थे और यहाँ तक कि वीडियो गेम की फुटेज को "लड़ाई के सबूत" के रूप में दिखा रहे थे. किसी भी कार्यशील लोकतंत्र में, ऐसे व्यवहार से एक पत्रकार की विश्वसनीयता खत्म हो जाती. पाकिस्तान में, इससे उन्हें पदक मिला.

सरकार ने चीमा और काज़मी की उनकी "महत्वपूर्ण मीडिया भूमिका" के लिए प्रशंसा की. हालाँकि, एक गहन जाँच से सच्चाई सामने आती है. उनकी "भूमिका" जनता को सूचित करना नहीं, बल्कि उसे धोखा देना था. उन्होंने सोशल मीडिया पर झूठे दावों की बाढ़ ला दी, जैसे भारतीय लड़ाकू विमानों को मार गिराने की कहानियाँ और पाकिस्तान द्वारा भारत के पावर ग्रिड को निष्क्रिय करने के मनगढ़ंत किस्से,जिनमें से किसी को भी स्वतंत्र सबूतों से समर्थन नहीं मिला.

चीमा का करियर विश्लेषण से हटकर राज्य के प्रचार की ओर झुकाव दिखाता है. कभी उन्हें एक सुरक्षा विशेषज्ञ के रूप में प्रस्तुत किया जाता था, लेकिन वह तेज़ी से पाकिस्तानी राज्य की कहानियों के रक्षक बन गए. भले ही वे सच्चाई के विपरीत हों. जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पाकिस्तान को "दुनिया का सबसे खतरनाक देश" बताया, तो चीमा की प्रतिक्रिया यह जाँचने की नहीं थी कि ऐसा बयान क्यों दिया गया, बल्कि चर्चा को भारत की ओर मोड़ना था. यह आदतगत ध्यान भटकाना पत्रकारिता नहीं है, यह ध्यान भंग करने की एक रणनीति है ताकि शक्ति की जाँच न हो पाए.

इससे भी ज़्यादा परेशान करने वाली बात चरमपंथी व्यक्तियों के साथ चीमा का जुड़ाव है. जून 2025 में, उनके थिंक टैंक, सनोबर इंस्टीट्यूट, ने एक गोलमेज सम्मेलन की मेजबानी की, जिसमें एक प्रतिभागी कारी मोहम्मद याक़ूब शेख थे, जो अमेरिकी ट्रेज़री और संयुक्त राष्ट्र द्वारा आतंकवादी गतिविधियों के लिए सूचीबद्ध लश्कर-ए-तैयबा का एक नामित नेता है.

यह तथ्य कि एक सम्मानित "पत्रकार" एक आतंकवादी ऑपरेटिव को मंच प्रदान करता है, पाकिस्तान के मीडिया और चरमपंथी नेटवर्कों के बीच के संबंध के बारे में बहुत कुछ बताता है.

भारत में हुए पहलगाम हमले का चीमा का विश्लेषण इसका एक और उदाहरण है. बिना किसी सबूत के, उन्होंने इसे "झूठा झंडा ऑपरेशन" (false flag operation) करार दिया.एक भड़काऊ षड्यंत्र सिद्धांत जिसका उद्देश्य त्रासदी का फायदा उठाना और शत्रुता को गहरा करना था.
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वजाहत काज़मी की कहानी भी कम परेशान करने वाली नहीं है. बीबीसी, सीएनएन और डॉन जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के साथ काम करने के अनुभव के साथ, काज़मी कभी पत्रकारिता की विश्वसनीयता का प्रतीक लगते थे. फिर भी उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान उस विश्वसनीयता को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया, झूठ को बढ़ाया और धार्मिक तथा राष्ट्रीय विभाजन को भड़काया.

काज़मी की बयानबाजी अक्सर पाखंड से भरी होती. जब भारतीय क्रिकेटर अर्शदीप सिंह ने एक कैच छोड़ा, तो काज़मी ऑनलाइन ट्रोल्स के साथ मिलकर अल्पसंख्यकों के प्रति कथित "असहिष्णुता" के लिए भारत पर हमला करने लगे, जबकि वह खुद धार्मिक शत्रुता को गहरा करने के लिए इस घटना को हथियार बना रहे थे.

काज़मी पर यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोप भी हैं, जिसके कारण उन्हें 2016 में अचानक अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स को डिलीट करना पड़ा था. इन अनसुलझे आरोपों से उनके चरित्र और पाकिस्तान जिस ईमानदारी के स्तर को सम्मानित करने के लिए चुनता है, उस पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं.

चीमा और काज़मी को सम्मानित करने का निर्णय कोई अकेली गलती नहीं है. यह पाकिस्तान के शासन में एक गहरी प्रवृत्ति को दर्शाता है. राज्य-कला के एक उपकरण के रूप में दुष्प्रचार को बढ़ावा देना. झूठ गढ़ने वालों का जश्न मनाकर, राज्य यह संकेत दे रहा है कि सत्य अब राष्ट्रीय प्राथमिकता नहीं है, बल्कि कथा नियंत्रण (narrative control) है.

पत्रकारिता की नैतिकता के इस पतन के गंभीर परिणाम हैं. यह जनता के विश्वास को कमजोर करता है. बातचीत को ज़हरीला बनाता है. विभाजन को गहरा करता है. यह चरमपंथी कथाओं को भी emboldens (साहस देता) करता है, जैसा कि चीमा के लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े लोगों के साथ संबंध और भारतीय अल्पसंख्यकों के खिलाफ उनकी भड़काऊ बातों में देखा गया है.

पहले से ही अस्थिरता से भरे क्षेत्र में, इस तरह के दुष्प्रचार अभियान केवल गुमराह नहीं करते.वे शांति और स्थिरता को खतरे में डालते हैं. वे संवाद को कठिन, सुलह को दूर और संघर्ष को अधिक संभावित बनाते हैं.

पाकिस्तान का अपने सत्य बताने वालों के बजाय प्रचारकों को सम्मानित करने का निर्णय उसके मीडिया परिदृश्य की एक दुखद टिप्पणी है. क़मर चीमा और वजाहत काज़मी ने जनता को सूचित नहीं किया.उन्होंने इसे हेरफेर किया. उन्होंने सत्ता को जवाबदेह नहीं ठहराया.उन्होंने उसकी सेवा की. ऐसा करके, उन्होंने पत्रकारिता को, जो लोकतंत्र की सबसे पवित्र पुकार है, धोखे के एक उपकरण में बदल दिया.

उनके सीने पर लगे पदक सम्मान के निशान नहीं हैं. वे एक ऐसी प्रणाली के प्रतीक हैं जो राज्य के लिए झूठ बोलने वालों को पुरस्कृत करती है और सच बोलने वालों को दंडित करती है.

जब तक पाकिस्तान सत्य को एक सार्वजनिक मूल्य के रूप में और पत्रकारिता को एक सार्वजनिक विश्वास के रूप में फिर से स्थापित नहीं करता, तब तक वह अपने धोखेबाजों को सम्मानित करता रहेगा और इसकी कीमत केवल उसकी विश्वसनीयता ही नहीं, बल्कि उसके लोकतंत्र को भी चुकानी पड़ेगी.

(लेखक दिल्ली स्थित खोजी पत्रकार हैं और DFRAC से जुड़ी हैं)