शनिवार वाड़ा में नमाज़ विवाद: पुणे की गंगा-जमुनी तहज़ीब पर सवाल और सबक

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 23-10-2025
The Shaniwar Wada Namaz Controversy: Questions and Lessons for Pune's Ganga-Jamuni Culture
The Shaniwar Wada Namaz Controversy: Questions and Lessons for Pune's Ganga-Jamuni Culture

 

आवाज द वायस/ पुणे

महाराष्ट्र के एक अहम तारीखी शहर पुणे में, शनिवार वाड़ा के अहाते में नमाज़ पढ़े जाने का एक वीडियो हाल ही में सोशल मीडिया पर वायरल हुआ. 18वीं सदी में बनी यह आलीशान इमारत, मराठा सल्तनत के पेशवाओं की हुकूमत का मरकज़  थी. इस वीडियो के बाद, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की पुणे से राज्यसभा सांसद मेधा कुलकर्णी और कुछ हिंदुत्ववादी तंज़ीमोंने सख़्त रुख़ अख़्तियार करते हुए अहाते में आंदोलन किया.

इसके बाद  इस तारीखी इमारत में नमाज़ पढ़ने के इल्ज़ाम में पुरातत्त्व विभाग के अफ़सरों ने तीन अज्ञात महिलाओं के ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई. इस शिकायत की बिना पर अब केस दर्ज कर लिया गया.सांसद मेधा कुलकर्णी और हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं ने  गोमूत्र छिड़क कर और गोबर से लीप कर उस जगह का 'शुद्धिकरण' किया. हालांकि, सांसद के इस क़दम के ख़िलाफ़ समाजी और सियासी हल्क़ों से सख़्त प्रतिक्रिया सामने आयी. 
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पुणे का माहौल ख़राब न करें:  'शुद्धिकरण' पर ऐतराज़

राज्य में सत्ताधारी बीजेपी के सहयोगी दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजित पवार) की महिला नेता रूपाली ठोंबरे-पाटील ने भी इस मामले में सांसद की कृति पर अपना सख्त विरोध ज़ाहिर किया है. उन्होंने कहा, "शनिवार वाड़ा में सभी मज़हबों और जातियों के लोग आते हैं. कुछ बुर्क़ा पहनी हुईं माँ-बहनें वहां चादर बिछाकर बैठ गईं. बाद में उन्होंने वहीं बैठकर इबादत की, दुआ मांगी, तो इससे शनिवार वाड़ा की पाकीज़गी ख़त्म नहीं हो जाती."

उन्होंने आगे कहा, "सांसद को संविधान के मुताबिक़ बर्ताव करना चाहिए. आप सभी मज़हबों, जातियों के लोगों की सांसद हैं. पुणे के समाजी भाईचारे का माहौल ख़राब न करें. पुणे में हिंदू-मुस्लिम मिल-जुलकर रहते हैं."

'मिस फरहा चैरिटेबल फाउंडेशन' की डॉ. फरहा अनवर ने इस वाक़ये को अहम नज़रियों से देखते हुए अपनी स्पष्ट राय रखी है. उन्होंने कहा, " सार्वजनिक, ऐतिहासिक या पर्यटन की जगहोंपर पर मज़हबी रस्में अदा नहीं करनी चाहिए. लेकिन, यह जानना भी निहायत ज़रूरी है कि उन ख़्वातीन को पब्लिक प्लेस पर नमाज़ अदा करने की नौबत क्यों आई."

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उन्होंने आगे कहा, "अगर शहर की मस्जिदों के दरवाज़े मुस्लिम ख़्वातीन के लिए इज़्ज़त के साथ खुले होते, तो उन्हें शनिवार वाड़ा जैसी तारीखी इमारत के अहाते में नमाज़ पढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती. शहर की कई मस्जिदों में औरतों के लिए नमाज़ पढ़ने की  सहूलियतें नहीं है. यह  व्यवस्थात्मक मसला ही आज के इस ग़ैर-ज़रूरी विवाद की असली वजह है."

डॉ. फरहा पिछले 10 सालों से महिलाओं को मस्जिदों में दाख़िला दिलाने के लिए संवैधानिक और समाजी लड़ाई लड़ रही हैं. उन्होंने हिंदुस्तान की कई बड़ी मस्जिदों को आधिकारिक ख़त लिखकर ख़्वातीन के लिए नमाज़ पढ़ने के दाख़िले और सहूलियतों की मांग की है. इस सिलसिले में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा भी खटखटाया है, जिस पर सुनवाई अभी बाकी है.

पुणे के गुलशन-ए-गरीब नवाज़ मस्जिद के ख़तीब और इमाम, मौलाना मोहम्मद तौफ़ीक़ अशरफ़ी ने इस मामले पर इस्लामी नज़रिया पेश किया है. उन्होंने कहा, "इस्लामी नुक्ता-ए-नज़र से, ख़्वातीन के नमाज़ पढ़ने के लिए कुछ उसूल बनाए गए हैं. शरीयत के मुताबिक़, औरतों के लिए घर में ही नमाज़ पढ़ना ज़्यादा बेहतर है. आपने कभी औरतों को ईद के दिन ईदगाह में नमाज़ पढ़ते नहीं देखा होगा. क्योंकि औरतों को यह ख़ास छूट दी गई है कि वे घर में ही नमाज़ पढ़ सकती हैं."

उन्होंने आगे कहा, "पुणे का शनिवार वाड़ा एक तारीखी मुक़ाम है. एक अवामी जगह है. ऐसा कहा जा रहा है कि कुछ मुस्लिम ख़्वातीन ने वहां नमाज़ अदा की. इस्लाम के नज़रिए से यह एक ग़ैर-ज़रूरी अमल था. वह एक अवामी जगह है, जहां लोगों का आना-जाना लगा रहता है. इस्लाम ने ऐसी जगहों पर औरतों को नमाज़ पढ़ने से मना किया है."

मौलाना अशरफ़ीने स्पष्ट किया, "हम हर मज़हब की इज़्ज़त करते हैं. एहतराम करते हैं. इसलिए अगर अवामी जगह पर नमाज़ क़ाबिल-ए-क़ुबूल  नहीं है, तो हमें इससे हर हाल में बचना चाहिए. हमारा इस्लाम कभी ऐसी चीज़ों को बढ़ावा नहीं देता कि हमारी वजह से किसी की भावनाएं आहत हों. इसलिए, जिन मुस्लिम ख़्वातीन ने वहां नमाज़ अदा की, उसके लिए हम एक तरह से माफ़ी मांगते हैं."

मर्दों को भी सलाह देते हुए मौलाना अशरफ़ी ने गुज़ारिश की, "आज के माहौल में, मर्दों को भी अवामी जगहों पर नमाज़ पढ़ने से बचना चाहिए. अगर किसी को यह बात पसंद नहीं आती है. इससे तनाज़ा बढ़ने या कार्रवाई होने का ख़तरा है, तो हमें इससे बचना चाहिए, इसी में समझदारी है."
शनिवार वाड़ा: बहादुरी, मुहब्बत  का तारीखी संगम
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शनिवार वाड़ा मराठा सल्तनत की बहादुरी, पेशवाओं की शान-ओ-शौकत और एक बेमिसाल इश्क़ की दास्तान का गवाह है. इसे 1732 में पेशवा बाजीराव प्रथमने तामीर कराया था और यह एक ज़माने में मराठा ताक़त का केंद्र था. इसी बाड़े से बाजीराव ने 'अटक के पार’ झंडे गाड़े और मराठा सल्तनत को फैलाया.

लेकिन शनिवार वाड़ा सिर्फ सियासी सरगर्मियों तक ही महदूद नहीं है. यह बाजीराव और उनकी दूसरी बेगम, मस्तानी की मुहब्बत की कहानी से भी ज़िंदा है. बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल की बेटी, मस्तानी, के बारे में माना जाता है कि वह मुसलमान थीं.

बाजीराव ने मस्तानी से शादी करके, उनके मज़हब और रस्म-ओ-रिवाज का पूरा एहतरामकिया. शनिवार वाड़ा के अहाते में उनके लिए एक अलग इंतेज़ाम किया गया था, जहां वे अपनी मज़हबी रस्में अदा कर सकती थीं. उस दौर में, सियासी उथल-पुथल के बावजूद, बाजीराव की यह सहिष्णुता ख़ास अहमियत रखती थी.

बाजीराव और मस्तानी की यह प्रेम कहानी सिर्फ तारीख के पन्नों तक सीमित नहीं रही. उनके वंशज, नवाब अली बहादुर का ख़ानदान आज भी मौजूद है और वे वक़्त-वक़्त पर इस इमारत को देखने आते हैं. यह ख़ानदान उस तारीखी हिंदू-मुस्लिम एकता की जीती-जागती निशानी है. यह सियासी तनाव के दौर में भी मज़हबी भाईचारे और आपसी इज़्ज़त की एक बोलती तस्वीर है.

साल 2015 में आई शानदार फ़िल्म 'बाजीराव मस्तानी' की वजह से शनिवार वाड़ा और इन तारीखी किरदारों के बारे में लोगों की दिलचस्पी बहुत ज़्यादा बढ़ गई. इस फ़िल्म ने बाजीराव-मस्तानी की मुहब्बत की पेचीदगियों और उस दौर के समाजी और मज़हबी पहलुओं को बड़े पर्दे पर पेश किया, जिससे आम लोगों में इस इमारत और इसके इतिहास को जानने का शौक़ पैदा हुआ. आज भी कई पर्यटक यहां सिर्फ़ शनिवार वाड़ा की शान देखने ही नहीं, बल्कि उन दीवारों के पीछे छिपी बाजीराव-मस्तानी की मुहब्बत के निशानात तलाशने के लिए भी आते हैं.